दंड का प्रतीकात्मक महत्व
- दंडी संन्यासियों की सबसे बड़ी पहचान उनका दंड (लकड़ी की छड़ी) होती है, जिसे वे अपने साथ हमेशा रखते हैं। यह दंड भगवान विष्णु और उनकी शक्तियों का प्रतीक माना जाता है। इसे ब्रह्म दंड भी कहते हैं।
- दंड की शुद्धता बनाए रखना आवश्यक होता है। इसे हमेशा एक विशेष आवरण में ढक कर रखा जाता है और केवल पूजा के समय इसे खोला जाता है।
सख्त नियमों का पालन
- दंडी संन्यासी अपने जीवन में ब्रह्मचर्य, निरामिष भोजन, क्रोध से रहित व्यवहार, और दुख-सुख में समान भाव रखने जैसे नियमों का पालन करते हैं।
- इन्हें किसी को छूने या खुद को छूने देने का अधिकार नहीं होता।
दंड का पूजन
- दंडी संन्यासी अपने दंड का प्रतिदिन अभिषेक, तर्पण और पूजन करते हैं।
- ऐसा माना जाता है कि उनके दंड में ब्रह्मांड की दिव्य शक्ति होती है, जिसे शुद्ध और पवित्र बनाए रखना जरूरी है।
शंकराचार्य बनने की प्रक्रिया
- शंकराचार्य बनने से पहले दंडी स्वामी की दीक्षा अनिवार्य है।
- इसके लिए 12 वर्षों तक कठोर ब्रह्मचर्य और अन्य धर्म नियमों का पालन करना पड़ता है।
मोक्ष का मार्ग
- अद्वैत वेदांत सिद्धांत के अनुसार, दंडी संन्यासी निर्गुण और निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं।
- दीक्षा के दौरान ही उनके अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पूरी कर दी जाती है, और मृत्यु के बाद उन्हें जलाने की बजाय उनकी समाधि बनाई जाती है।
समाज और राष्ट्र के लिए समर्पण
- दंडी संन्यासी अपने जीवन को समाज और राष्ट्र की सेवा में समर्पित करते हैं। वे साधारण जीवन जीते हैं और अध्यात्म के माध्यम से मानवता को मार्गदर्शन देते हैं।
महाकुंभ 2025 में दंडी संन्यासियों का स्थान
महाकुंभ 2025 में दंडी संन्यासियों का अखाड़ा प्रयागराज के सेक्टर 19 में स्थापित किया गया है। यह स्थान उनके अनुयायियों और श्रद्धालुओं के लिए आध्यात्मिक शांति का केंद्र बनेगा। दंडी संन्यासियों की परंपराएं और साधनाएं महाकुंभ के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को और गहराई प्रदान करती हैं।
दंडी संन्यासियों का यह समर्पण और अनुशासन आधुनिक जीवन में एक प्रेरणा का स्रोत है, जो आध्यात्मिकता और जीवन के आदर्श मूल्यों को बनाए रखने का संदेश देता है।
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