सन् 1700 ई. के आसपास हिंदी कविता में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, जिसे साहित्य में "रीतिकाल" के नाम से जाना जाता है।
इस काल की विशेषता यह थी कि कविता पर संस्कृत साहित्य और तत्कालीन दरबारी संस्कृति का गहरा प्रभाव पड़ा।
संस्कृत साहित्यशास्त्र के अनुशासन ने हिंदी काव्य को शास्त्रीय स्वरूप प्रदान किया। "रीति" या "काव्यरीति" का अर्थ काव्यशास्त्र से लिया गया, और इस काल की काव्य प्रवृत्तियों को "रीतिकाव्य" कहा गया।
रीतिकाव्य की विशेषताएँ:
- शृंगार प्रधानता: इस काल की कविता में शृंगार रस की प्रधानता रही। इसमें प्रेम, सौंदर्य और श्रृंगारिक भावों की अभिव्यक्ति पर विशेष जोर दिया गया।
- मुक्तक काव्य: यह काल मुख्यतः मुक्तक-रचना का काल था। कवित्त, सवैया और दोहा जैसे छंदों में रचनाएँ की गईं।
- दरबारी संस्कृति: रीतिकालीन कवि प्रायः राजदरबारों में आश्रय पाते थे। इसलिए इनकी कविताओं में चमत्कारपूर्ण व्यंजना और अलंकरण की प्रमुखता तो थी, लेकिन यह साधारण जनता से विमुख हो गई।
- काव्यशास्त्र आधारित रचनाएँ: रीतिकाल के कवियों ने काव्यशास्त्र पर आधारित लक्षणग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में रस, अलंकार, नायिका-भेद आदि का विस्तृत निरूपण हुआ।
प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ:
- आचार्य केशवदास: रीतिकाव्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:
- कविप्रिया: अलंकारों का निरूपण।
- रसिकप्रिया: रस का सोदाहरण वर्णन।
- रामचंद्रिका: रामकथा पर आधारित प्रबंध काव्य।
- बिहारी: सतसई उनकी प्रसिद्ध कृति है, जिसमें प्रेम और प्रकृति का अद्भुत वर्णन है।
- भूषण: वीर रस के प्रमुख कवि, जिन्होंने शिवाजी और छत्रसाल जैसे वीर शासकों की प्रशंसा में रचनाएँ कीं।
- मतिराम, देव, और चिंतामणि: इन्होंने शृंगार और काव्यशास्त्र के विभिन्न पहलुओं को अपने काव्य में स्थान दिया।
रीतिकाल की सीमाएँ: हालाँकि रीतिकाल में काव्य कला अत्यंत परिष्कृत हुई, परंतु इसका स्वरूप अधिकतर दरबारी और अभिजात्य वर्ग तक सीमित रहा। साधारण जनता की पीड़ा, संघर्ष, और सामाजिक समस्याएँ इस काल की कविता में दुर्लभ हैं।
उपसंहार: रीतिकालीन काव्य हिंदी साहित्य के इतिहास में कला, शास्त्रीयता, और सौंदर्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह काल भले ही साधारण जनता से थोड़ा दूर रहा हो, लेकिन इसमें काव्य-रचना की जो कलात्मकता और शास्त्रीय अनुशासन दिखा, उसने हिंदी साहित्य की परंपरा को गहराई और विविधता प्रदान की।
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