भारतीय साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु युग।

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भारतीय साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु युग।

 



भारतेन्दु युग, जिसे हिंदी साहित्य के आधुनिक काल का प्रारंभिक चरण माना जाता है, भारतीय साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। 


इस युग की शुरुआत 19वीं सदी के मध्य में हुई, जब हिंदी साहित्य ने सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से एक नया मोड़ लिया।


 इस युग को 'भारतेन्दु युग' इसलिए कहा गया, क्योंकि इस समय के प्रमुख साहित्यकार, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, ने न केवल हिंदी साहित्य में क्रांतिकारी परिवर्तन किए, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय जागरूकता को भी साहित्य के माध्यम से फैलाया।


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885) को हिंदी साहित्य के इस युग का प्रमुख प्रतिनिधि माना जाता है। उन्होंने अपने लेखन से हिंदी भाषा को नया रूप दिया और इसे साहित्यिक क्षेत्र में सम्मान दिलाया। 


भारतेन्दु ने खड़ी बोली का प्रयोग किया, जो उस समय के साहित्यकारों की प्राथमिक भाषा ब्रज भाषा से अलग थी। उनके लेखन में देशभक्ति, सामाजिक सुधार, और जागरूकता के विषय प्रमुख रूप से सामने आए।


भारतेन्दु का साहित्यकारों के एक समूह से गहरा संबंध था, जिसे 'भारतेन्दु मंडल' कहा जाता है। इस मंडल में बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', राधाकृष्ण दास और अन्य प्रमुख साहित्यकार शामिल थे। 


इन साहित्यकारों ने भारतेन्दु के मार्गदर्शन में साहित्य को और भी प्रगति की दिशा दी। यह समय हिंदी साहित्य के लिए एक संक्रमणकाल था, जिसमें पुरानी परंपराओं से नई सोच की ओर बढ़ने का प्रयास किया गया।


भारतेन्दु युग की कविता की मुख्य विशेषताएँ थीं—देशभक्ति, जनवादी विचारधारा, और सामाजिक सुधार। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद, जब भारत में ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ, तब कविता में देशभक्ति का स्वर प्रमुख हो गया। 


इस युग के कवियों ने अपने काव्य में ब्रिटिश साम्राज्य और भारत की दयनीय स्थिति का विरोध किया। जैसे कि प्रेमघन ने लिखा था:


"करहु आज सों राज आप केवल भारत हित,
केवल भारत के हित साधन में दीजे चित।"

इसके अलावा, इस युग के कवियों ने जनवादी विचारधारा को भी अपनी कविता में समाहित किया। वे भारतीय समाज के पुराने ढाँचों से संतुष्ट नहीं थे और समाज में सुधार की आवश्यकता महसूस करते थे।


 उन्होंने छुआछूत, बाल विवाह, और महिलाओं के अधिकारों जैसे मुद्दों पर भी अपने विचार व्यक्त किए। जैसे प्रतापनारायण मिश्र ने स्त्री शिक्षा के पक्ष में लिखा था और बाल विवाह के विरोध में अपनी कविता का प्रवाह किया।


इस युग की कविता में भक्ति और श्रृंगार की परंपराओं का अनुसरण भी किया गया। यद्यपि भारतेन्दु और उनके समकालीन कवियों ने नयापन लाने की कोशिश की, फिर भी उन्होंने पुराने काव्य रूपों को संरक्षित रखा। इस समय की कविता में देशभक्ति और प्रेम का मिश्रण देखने को मिलता है।


 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कविता में भक्ति और श्रृंगार के उदाहरण स्पष्ट रूप से मिलते हैं:

"ब्रज के लता पता मोहि कीजै।
गोपी पद पंकज पावन की रव जायैं सिर घीजै।।"


इस प्रकार, भारतेन्दु युग ने हिंदी साहित्य को एक नया दिशा दी। इसके लेखकों और कवियों ने अपने साहित्य में देशभक्ति, समाज सुधार, और जागरूकता के साथ-साथ पुरानी काव्य परंपराओं को भी जीवित रखा।


 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके समकालीन साहित्यकारों के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि उन्होंने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि भारतीय समाज के सुधार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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