इस काग्रेस की राय में वर्जित एवं आशिक वर्जित क्षेत्रों को पृथक रखने के पीछे का
अभिप्रेत, उस क्षेत्र की संपति एव खनिज को विस्तृत नियंत्रण और दोहन को बाहर करके ,
व हाँ के निवासियों की जीविका का शोषण तथा दमन करने का है।
'आदिवासियों के हित सर्वश्रेष्ठ आधुनिक प्रभाव के प्रति उनका रुझान और सरक्षण नियमों के कार्यान्वयन द्वारा ही पूरा हो सकता है। वन उत्पाद का औद्योगीकरण आदिवासी समाज की प्रगति के लिए आवश्यक समझा जा सकता है।
जनजातीय विरोध को उनकी अनुकूलन, अपनाने और परिवर्तित होने की अक्षमता के सूचक के रूप में देखा गया । जातीय जिन्होंने उनके आत्मसात करण का समर्थन किया, उन्होंने अंग्रेजी शासन के अंतर्गत मुख्यधारा के विकास के नियमों को मान लिया। ये स्वतंत्रता संग्राम में जनजातीय वनवासियों द्वारा दिए अंतर्गत मुख्य पान के बाल योगदान से अनभिज्ञ थे।
जनजातीय विरोधों में दर्शाए जाने के बावजूद उनके ज्ञान तथा उनके जीने के ढंग के साथ उसके संबंध से जुड़े प्रश्नों की उपेक्षा की गई।
यह उस स्थिति से मेल खाती थी जो जवाहरलाल नेहरू ने जनजातीय स्थिति के बारे सोची थी। सन् 1952 में 'अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित क्षेत्रों पर पहले सत्र में उन्होंने कहा "हमने आधी शताब्दी या उससे भी अधिक तक स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लते और उसे प्राप्त किया।
अन्य किसी भी चीज के अतिरिक्त, यह संघर्ष एक महान मुक्तिदायक बल था। उसने हमे स्वयं से ऊँचा उठाया हमे याद रखना चाहिए कि करोड़ों भारतीयों का यह अनुभव जनजातीय लोगों ने नहीं बाँटा था।
यह स्पष्ट है कि उन्होंने अंग्रेज शासन के विरुद्ध संघर्ष और विरोध किया किंतु अन्च भारतीयों के साथ अपने अनुभव बाँटने का उनके पास कोई मार्ग न था क्योंकि एक ओर, वे वर्जित क्षेत्रों में राजनीतिक रूप से अलग हो गए थे और दूसरी ओर, वे तथाकथित प्रभावी - समाज के समाज बहिष्कृत लोग थे। इस प्रकार वे बाहरी लोग थे। जनजातीय लोगों की स्थिति को मुख्यधारा के प्रशासन की इस विधि के दृष्टिकोण से अब नहीं समझा जा सकता है।
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