परिवार एक विशिष्ट संस्था है क्योंकि इनमें एक ही समय में निजी एवं सार्वजनिक सस्था मौजूद होती है। भारत में परिवार संबंधी तीन दृष्टिकोण देखने में आते हैं:
(1) पाठ-विषयक दृष्टिकोणः हिंदू मत में परिवार का उद्गम पितृ ऋण की अवधारणा से हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति को संतानोत्पत्ति द्वारा अपने पूर्वजों का ऋण चुकाना पड़ता है।
बच्चे का जन्म, विशेषकर पुत्र का जन्म होने मात्र के लिए नहीं अपितु पितृ-ऋण से मुक्त होने के लिए होता था। अगली पीढ़ी का पालन-पोषण करना अर्थात् पुत्रों को बड़ा करने से व्यक्ति का स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त होता था। अपने पिता की चिता को अग्नि देना तथा अन्य मृत्यु-संबंधी संस्कारों को पूर्ण करने का अधिकार एवं कर्तव्य, संतान के इसी ऋण को चुकाने तथा उससे बाहर निकलने को दर्शाता है।
अतः अंतिम संस्कार के विनिमय के आपसी संबंधों द्वारा बँधा हुआ निकटतम समूह हिंदू परिवार कहलाता है। परिवार तीन अथवा चार पीढ़ियों का समूह था और इस पर निर्भर करता था कि किसे
और कैसे गिना जाता है अथवा छोड़ा जाता हैं । श्राद तथा संपत्ति परिवार की अवधारणा से जुड़े हुए थे। हिन्दू परिवार का पाठ -विषयक आयाम संपत्ति-धारी और श्राद्ध करने की इकाई का आयाम हैं ।
घु र्रे ने भारतीय - यूरोपीय वंशावली का दावा किया हिंदू परिवार ने काफी समय से स्वंय को आदर्श रूप में विश्लेषित , टिपनियाँ एवं संस्तुतित पाया हैं । उच्च जाती तथा उच्च वर्ग भारतीयों ने अपनी जाती के लिए , उनके संस्कृतकरण के दौरान श्रीनिवास की अवधारणा का प्रयोग करते हुए, यह अनुकरणीय आदर्श बन गया।
इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने सामाजिक संस्थाओं पर टिप्पणी करने लिए परिवार सहित पाठ-विषयक सस्रोतों का प्रयोग किया। चाहे वह रामायण परिवार हो अथवा कोई उच्च जाति और उच्च वर्गीय हिंदू परिवार, न तो वर्तमान और न ही अतीत में बड़ा संयुक्त परिवार भारत में सर्वव्यापी प्रकार का परिवा नहीं है।
यह पुनः बताया जाता है कि सयुक्त तथा एकल परिवार भारत-विक विषयक संरचनाएँ है। अनुभववादी सामाजिक मानवविज्ञानी तथा समाजशास्त्री अध्ययनों के माध्यम से क्षेत्र में प्राप्त परिवार, आदर्श सयुक्त परिवार की तुलना है
बहुत अधिक भिन्न है।
(2) क्षेत्र -विषयक दृष्टिकोण: परिवार का अनुभववादी अध्ययन अब भी पूर्वी और पशिचमों परिवारों के मूलभूत अंतर के प्रभाव में था और इस प्रकार के
परिवार तथ्य बन गए क्योंकि अनुभववादी सत्य को दो में से किसी एक प्रकोष्ठ में रखना आवश्यक
था। वास्तव में,' घरेलू समूह' तथा 'घर' शब्द, परिवार का प्रक्रियात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, जिसके कारण परिवार की जीवंत वास्तविकार समाजशास्त्री य
जाँच के निकट आ गई। हालाँकि, अनुभववादी मामलों और वंशावली संबंधित प्रक्रिया के सही
आँकड़ों को उपलब्ध करवाने की पहल रिवर्स (1906) में की थी । भारत में पारिवारिक अध्यनणों में , लगभग आधी शताब्दी तक वैधिक तथा पाठ -विषयक प्रभाव का वर्चस्व बना रहा । अपने व्यापक सर्वेक्षण में , दुबे ने बताया है कि जाति के बाद पारिवारिक अध्य नों को सबसे अधिक रुचिकर मन गया हैं ।
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