Sociology: आधुनिक युग में प्रौद्योगिक आर्थिक , राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में बहुत तीव्र गति से परिवर्तन होते दिखाई डे रहे हैं ।
माइ क्रोवेव , डीवीडी , पाम टॉप कंपटुपर , आनुवंशिक परिचालन क्लोनिंग आदि सभी इस बात की पुष्टि करते प्रतीत होते हैं कि भूतकाल की तुलना में समकालीन समाज आज प्रौद्योगिक रूप से अत्यधिक उन्नत हैं।
वर्तमान जगत अद्भुत रूप से गतिशील प्रतीत होता है। यह ऐसी दुनिया है जो निरंतर परिवर्तन और रूपातंरण प्रक्रिया में है।
अनिवार्य रूप से आधुनिकता जीवन मूल्यों और व्यक्तित्वों के प्राचींन, मूल्यों और व्यक्तियों के उत्पादन की सूचक हैं । इसका एक प्रमुख परिणाम हुआ है उपभोक्ता संस्कृति या उपभोक्तावाद का उदभव जहां संस्कृति उपभोग द्वारा निर्मित होती है केवल उत्पादन द्वारा नहीं।
उपभोक्ता संस्कृति कुछ प्रमुख मूल्यों प्रचलनों और संस्थाओं से बंधी हुई है जो आधुनिकता की परिभाषा, पसंद, व्यक्तिवाद और बाजार संबंधों के रूप में देते हैं। मुख्य रूप से इस उपभोक्ता सिद्धांत में नवीनीकरण निरतर बदलाव और नव परिवर्तन की प्रक्रिया शामिल है।
20वीं शताब्दी में हमने उपभोक्ता संस्कृति के अतर्गत जो विकसित हुआ है वह है एक ऐसी 'जीवन शैली जो
वैयक्तिकता, आत्म-अभिव्यक्ति
और शैलीगत आत्म-चेतना की संकेतक है।
प्रायः उपयोग और उपभोक्ता संस्कृति' शब्दों का प्रयोग अदल-बदल के होता है, लेकिन समजशास्त्रीय विश्लेषण से ज्ञात होता है , कि दोनों के बीच एक निश्चित अंतर हैं । उपभोक्ता संस्कृति और उपभोग के बीच भेद दिखलाने वाली दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ है:
(क) उपभोग्य वस्तुओ का निरंतर बदलाव जिसने वस्तुओं के अधिक नए और परिवतृत रूपों पर जोर दिया गया है। व्यक्ति इसलिए खरीददारी नहीं करता कि उसको उस वस्तु की जरूरत है बल्कि फैशन के अनुसार चलने के लिए खरीदता है।
(ख) एक सामान्य उपभोग-यह समाज के उच्च सोपान तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि सर्वव्यापक हो जाता है।
आधुनिक उपभोक्तावादी समाजों में, लोगों की जीवन शैलियों में सुधार लाया जा सकता
है और निरंतर लाया भी जा रहा है।
इसके अतिरिक्त विज्ञापनों के कारण और उपभोक्ता संस्कृति में सक्रिय सहभागी होने के कारण सभी वर्गों के लोगों के लिए यह एक सामान्य बात बन जाती है कि वे प्रतिमाओं और प्रतीकों की प्रचुरता के अधीन हो जाते हैं।
इस समय से विद्यमान है वह अनिवार्य रूप से उपभोग का अस्थायित्व (अनिश्चितता) है अर्थात् सामाजिक जीवन के पिछले स्थायी और सापेक्षिक रूप से नियत स्थानिक और अल्पकालिक आयामों से मुक्त होना।
उपभोग को संवार की प्रक्रिया में एक अवस्था के रूप में भी देखा जाता है अर्थात् अर्थ निकालने और विसकेतन करने के एक कार्य के रूप में।
आवश्यकता इस बात की है कि अर्थ के प्राथमिक स्तर से हट सकना, जिसे व्यक्ति साधारण अनुभव के आधार पर गौण अर्थो के स्तर तकसमझ सकता है जिसका संकेत दिया है।
अतः आधुनिक समाज में सामाजिक समूहों के लिए यह एक सशक्त प्रवृत्ति होती है कि वे अपनी सामाजिक परिस्थितियों के वर्गीकरण करने और संचारकों के रूप में प्रयुक्त करें जो कुछ लोगों के बीच सीमाएँ स्थापित करें और दूसरो के साथ सेतुओं को बनाए ।
वह प्रक्रिया जिसके द्वारा पसंद विभेदिकर्ण की प्रक्रिया बन जाती है, जिसके फलस्वरुप वस्तुओं की विभिन्न श्रेणियों के बीच और सामाजिक समुह के बीच भेदभाव होते हैं एक सतत प्रक्रिया है। समकालीन पश्चिमी समाज इसके साक्षी है जिसे माइक फेदर स्टोन ने वस्तुओं का दुगना प्रतीकात्मक पहलू कहा है।
प्रतीकात्मकता केवल उत्पादन और विपणन प्रक्रियाओं की रूपरेखा और विवों में ही प्रकट नहीं होती, बल्कि वस्तुओं के प्रतीकात्मक संबंध को जीवनशैली में उन भिन्नताओं पर बल देने के लिए भी प्रयुक्त किया जाना चाहिए।
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