Sociology: प्राचीन सामाजिक आंदोलनों की विशेषताएँ बताइए ।

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Sociology: प्राचीन सामाजिक आंदोलनों की विशेषताएँ बताइए ।

      


उत्तर- प्राचीन सामाजिक आदोलनों की विशेषताएँ निम्नलिखित है।


(1) प्राबीन अथवा क्लासिकी सामाजिक आंदोलनों को सामान्यतः उनके वर्ग घटकों के आधार पर परिभाषित किया जाता है।



 इसे समकालीन विश्व की तीन प्रमुख सामाजिक-आर्थिक विशेषताओं-पूँजीवाद, औद्योगिकवाद तथा भौतिकवाद के शिशु के रूप में देखा जाता है। अतः प्राचीन सामाजिक आदोलन, अधिकार 'वर्ग-वद्ध आदोलन होते हैं। शब्द 'वर्ग' को समझाने की आवश्यकता है। 




ओमवेट जोर देते हैं कि वर्ग की संकल्पना को उत्पादन के सबंधों की सामाजिक मार्क्सवादी संकल्पना के संदर्भ में परिभाषित करने की आवश्यकता है। अपने सरलतम अर्थ में, शब्द "वर्ग" का अर्थ है. (क) जनसंख्या का असमान समूहों में विभाजन, 



(ख) समूहों के बीच असमानता आर्थिक संसाधनों के विभेदी वितरण के कारण होती है,



 (ग) अल्पसंख्यक


      समूहों को आर्थिक  संसाधनों के स्वामित्व तथा नियंत्रण में अपनी आवश्यकता से  अधिक भाग   मिलता है, अन्य,  यानी बहुसंख्यक समूह को परिणामतः उनकी आवश्यकता  से कहीं कम भाग मिलता है.



 (घ) आर्थिक संसाधनों अथवा संपत्ति के वित रण की ये दोषपूर्ण प्रणाली समाज में 'अमीर' तथा 'गरीब" अथवा "मध्यवर्गीय   तथा   "श्रम जीवी वर्गों को जन्म देती है, 


ङ) गरीबों में एक ही नाव में सवार होने यानि  एक-सी स्थिति के कारण वर्ग एकता का बोध विक सित कर लेते हैं तथा अपने से उच्च वर्ग के साथ एक विरोधी संबध  बना लेते हैं। 



अमीर तथा गरीब के बीच ये विरोधी संबंध अपने तर्कशास्त्रीय संबंध के क्रम में उसे जन्म देता है जिसे माक्र्सवादी विद्वानों ने 'वर्ग संघर्ष" कहा है। 



कृषको तथा कृषक आंदोलनों पर अधिकांश अध्ययन अथवा ट्रेड यूनियनों तथा कार्यकारी वर्ग आदोलनों पर अध्ययन वर्ग मॉडल पर आधारित प्राचीन आंदोलन अध्ययनों के कुछ उदाहरण है।




(2) वर्ग आधारित प्राचीन सामाजिक आंदोलनों में 'वर्ग संघर्ष", "वर्ग क्रांति' की संकल्पना में तथा शासन के संपूर्ण राजनीतिक तंत्र को उखाड़ फेंकने की तथा नई सामाजिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना की प्रबल विचारधारात्मक प्रवृत्ति होती है।



 मार्क्सवादी सैद्धांतिक अभिविन्यात्त के अनेक 'प्राचीन सामाजिक आंदोलन अध्ययनों में समाज की मौलिक पुनर्रचना की कल्पना करता है। वाक्य जैसे 'कृषक युद्ध' अथवा 'भूमिसबंधी संघर्ष' उपयोग में हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में कृषक संघर्ष की मार्क्सवादी रचना की क्रांतिकारी प्रकृति को झंकृत करता है।



 इस प्रकार की सामूहिक लामबंदियों में हित्ता की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि सभी क्रांतिकारी संघर्षों में व्यापक स्तर पर 'प्रणाली की सफाई' अथवा समाज से भ्रष्टों का "सफाया' करने के नाम पर हिंसा का उपयोग भी देखा गया है।




(3) पुराने सामाजिक आंदोलनों में ये नोट किया जा सकता है कि विरोधी आसानी से पहचाना जाने वाला सामाजिक समूह एक जाति अथवा एक वर्ग होता है। अवध क्षेत्र तथा उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में कृषक विद्रोह की स्पष्ट छवि तथा विरोधी की ज्ञात पहचान रही थी। 



ब ग्रामीण प्रभावी लोगों की श्रेणी जो सामान्यतः अवध में तालुकदारों के वर्ग तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में जमीदारी क्षेत्रों के जमींदारों के वर्ग से संबंधित थे, ग्रामीण जनसंख्या के स्पष्ट रूप से पहचाने जाने वाले समूह थे।



 बेचैन तथा विद्रोही, काश्तकार स्वयं को अपने अभावों तथा अधीनता और भाग्यहीन जीवन के लिए उत्तरदायी मानते थे। 



यह स्थानीय भूस्वामियों द्वारा उनका शोषण था जिसने कृषकों को अंततः संगठित होने तथा सामूहिक संघर्ष के द्वारा अपने विरोध को मुखर करने के लिए मजबूर किया। इसी प्रकार, महाराष्ट्र राज्य में शिवसेना आंदोलन में विरोधी अथवा झारखंड क्षेत्र में तथा वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में जनजातीय विद्रोह में दीखू यानी "बाहरी व्यक्तियों' की स्पष्ट 



तस्वीर है जो जनजातियों के शोषण तथा सामाजिक विपन्नताओं के लिए जिम्मेदार माने गए थे। 



साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि अधिकांश मामलों में वि अथक आयोलन के लक्ष्य एक ही स्थान अथवा क्षेत्र में स्थित थे। यही स्थित जमींदारों तथा तालुकदारों के विरुद्ध कृषक विद्रोह के मामले में थी जो गाँधी किसानों के साथ ही रहते थे।


(4) अंत में आदोलनों की जनसमूह समाज संकल्पना ही सामान्यतः विद्वानों के लेचा अंत में आया है।



 समकालीन समाजों के सामाजिक निदान को प्रस्तुत करने में परिलक्षित हुई औन में लोगों के स्थान की निराशावादी तस्वीर पेश करते उनके प्रयास माज में सामाजिक पराएपन, निराशाजनक स्थिति तथा उत्तर खडभिवन पर बढ़ती प्रक्रिया पर जोर दिया है, जिसमें हम रहते हैं। 



आधुनिक ज समाज के मूर्तरूप की पहचान सामाजिक जड़हीनता, आकारहीनता तथा सत्ताधीनता के बढ़ते बोध से होती है।



 व्यक्ति स्वयं को अत्यधिक नौकरशाही वाले यांत्रिक सामाजिक जगत में पाता है तथा उसे भिन्न सामाजिक स्थितियों में दूसरों के प्रति अपने संबंधों को विकसित करने में कठिनाई होती है। उसे दिशाहीनता का बोध होता है। सामाजिक आशाओं, प्रत्याशाओं के आदर्श आधारों के विघटित हो जाने के कणमय जन समाज निर्मित होता है।

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