Sociology: कृषक आंदोलन (Peasants Movements)

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Sociology: कृषक आंदोलन (Peasants Movements)




   ऐतिहासिक     रूप से      कृषकों की   विरोधाभाषी सामाजिक पहचान  है। ऐतिहासिक रूप से किसान सदा  से ही    समाज में चरम अधीनता तथा दमन के लिए अनिशप्त है। 



जबकि उनके अस्तित्व की    विशिष्टता   सामाजिक आर्थिक स्थितियों ने काफी हद तक सामाजिक परिवर्तन तथा रूपातरण ने   कृषक   वर्ग की भूमिका को सुधार दिया है। 



कृषक आदोलन पर मुख्यत दो विचार दिए गए है। ये आदोलन स्वतंत्रता के पश्चात उत्पन्न हुए, जो वास्तविक तौर से सामाजिक और सास्कृतिक प्रकृति के हैं। 



कुछ आंदो लन स्वतंत्रता से पहले भी थे, जो उपनिवेशवादी शासकों तथा जगीदारों  के विरोधी  थे। वे सांस्कृतिक तथा राजनीतिक थे। विभिन्न क्षेत्रो  में कृषक आदोलन जैसे तेभाना, तेलंगाना और नक्सलवादी, भूदान एवं सर्वोदय आदोलनों के माध्यम से भी कृषकों के हितों को प्रकाश में लाया गया।



 इनका संचालन विनोबा भावे और जय प्रकाश नारायण द्वारा हो रहा था। कृषकों ने इसका संचालन नहीं किया। तेभागा आंदोलन अनेक कारकों द्वारा चलाया गया था. ये कारक थे. 



1943 का अकाल, जोतदारों, जमाखोरों व काला बाजारियों के विरुद्ध अभियान, आदोलन में शामिल आदिवासियों की सामाजिक एकता तथा बटाई पर काम करने वालों की बढ़ती सौदेबाजी की क्षमता, क्योंकि इस आंदोलन का विस्तार सीमित था। 



कृषकों के कल्याण के लिए कुछ आआंदोलन गाँधीवादी सिद्धांतों पर संगठित किए गए थे। दो ऐसे आदोलन थे.



 विनोधा भावे का भूदान आंदोलन और जय प्रकाश नारायण का सर्वोदय आदोलन। प्रस्तुत इकाई में भारतीय समाज में कृषक आदोलनों के गुण, कृषक आंदोलन की संकल्पना, कृषक आंदोलनों की भागीदारी तथा मौलिक कृषक आंदोलनों के कारणों का आविर्भाव तथा इन आंदोलनों का कार्यप्रणाली पर विस्तार से वर्णन  किया गया हैं ।



 समय के साथ -साथ इन आंदोलनों के रूपातरण की प्रक्रिया तथा कृषकों के लिए अनेक सामाजिक -राजनीतिक प्रक्षाशन का विश्लेषण किया गया हैं । 

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