मध्ययुगीन प्राकृतों का गद्य-पद्यात्मक साहित्य विशाल मात्रा में उपलब्ध है।
प्राकृत, भारतीय उपमहाद्वीप में जनभाषा रही है। यह जैन आगमों की भाषा मानी जाती है।
भगवान महावीर ने इसी प्राकृतभाषा के अर्धमागधी रूप में अपना उपदेश दिया था।
यह शिलालेखों की भी भाषा रही है। हाथीगुफा शिलालेख, नासिक शिलालेख, अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा में ही
हैं। प्राकृत में व्याकरण ग्रन्थ, नाटक, गीत, धार्मिक उपदेश आदि विपुल साहित्य है।
प्राकृत
साहित्य में सबसे प्राचीन वह अर्धमागधी साहित्य है जिसमें जैन धार्मिक ग्रंथ रचे
गए हैं तथा जिन्हें समष्टि रूप से जैनागम या जैनश्रुतांग कहा जाता है।
कथा साहित्य की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन रचना बड्डकहा (बृहत्कथा) भी प्राकृत भाषा (पैशाची) में ही लिखी गयी थी।
पादलिप्तसूरी की तरंगवई, संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी, हरिभद्रसूरि विरचित समराइच्चकहा, उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला आदि कृतियाँ
उत्कृष्ट कथा-साहित्य की निदर्शन हैं।
विमलसूरि विरचित ‘पउमचरियं’ (पद्मचरितम्) जैन रामायण का ग्रन्थ है जो प्राकृत में ही लिखा गया है।
जंबूचरियं, सुरसुन्दरीचरियं, महावीरचरियं आदि अनेक प्राकृत
चरितकाव्य हैं जिनके अध्ययन से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का बोध होता है।
हालकवि की गाहासतसई (गाथा सप्तशती) बिहारी कीसतसई का प्रेरणास्रोत आधारग्रन्थ रही है।
गाहा सतसई शृंगाररस प्रधान काव्य है, जिस पर टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं।
रुद्रट , मम्मट, विश्वनाथ आदि काव्य शास्त्रियों ने गाहासतसई की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है तथा संस्कृत के काव्यशास्त्रों में गाहासतसई कवि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने इस पर ‘सर्वङ्कषा’ संस्कृत टीका लिखी है।
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