ब्रजभाषा में ही प्रारम्भ में हिन्दी-काव्य की रचना हुई। सभी भक्त कवियों, रीतिकालीन कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानन्द, बिहारी, इत्यादि।
वस्तुतः उस काल में हिन्दी का अर्थ ही ब्रजभाषा से लिया जाता था।
सामान्य ब्रजभाषा-क्षेत्र की सीमाओं का उल्लंघन करके एक वृहत्तर क्षेत्र में ब्रजभाषा साहित्य की रचना हुई।
इस बात का अनुमान रीतिकाल के कवि आचार्य भिखारीदास ने किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ब्रजभाषा का परिचय ब्रज से बाहर रहने वाले कवियों से भी मिल सकता है।
इस क्षेत्र-विस्तार में भक्ति आन्दोलन का भी हाथ रहा। कृष्ण-भक्ति की रचनाओं में एक प्रकार से यह शैली रुढ़ हो गई थी। पं॰ विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अनेक प्रदेशों के ब्रज भाषा भक्त-कवियों की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार प्रकट की है-
ब्रज की वंशी-ध्वनि के साथ अपने पदों की अनुपम झंकार मिलाकर नाचने वाली मीरा राजस्थान की थीं, नामदेव महाराष्ट्र के थे, नरसी गुजरात के थे, भारतेन्दु हरिश्चंद्र भोजपुरी भाषा क्षेत्र के थे।
...बिहार में भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषा क्षेत्रों में भी ब्रजभाषा के कई प्रतिभाशाली कवि हुए हैं। पूर्व में बंगाल के कवियों ने भी ब्रजभाषा में कविता लिखी।
पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा। और भी पश्चिम में गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे।
ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था। इस प्रकार मध्यकाल में ब्रजभाषा का प्रसार ब्रज एवं उसके आसपास के प्रदेशों में ही नहीं, पूर्ववर्ती प्रदेशों में भी रहा। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, काठियावाड़ एवं कच्छ आदि में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ हुई।
साहित्यिक ब्रजभाषा के सबसे प्राचीनतम उपयोग का प्रमाण महाराष्ट्र में मिलता है। तेरहवीं शताब्दी के अंत में महानुभाव सम्प्रदाय के सन्त कवियों ने एक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया।
गोकुल में वल्लभ सम्प्रदाय का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई।
भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि सूरदास से आधुनिक काल के वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही। साहित्यिक ब्रजभाषा का विस्तार पूरे भारत में हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में तंजौर और केरल में ब्रजभाषा की कविता लिखी गई।
सौराष्ट्र व कच्छ में ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद तक चलती रही थी।
उधर पूरब में यद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहीं साहित्यिक ब्रज रूपी स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे। बंगाल और असम में इन भाषा को ‘ब्रजबुलि’ नाम दिया गया। इस ‘ब्रजबुली’ का प्रचार कीर्तन पदों में और दूर मणिपुर तक हुआ।
साहित्यिक ब्रजभाषा की कविता ही गढ़वाल, कांगड़ा, गुलेर बूंदी, मेवाड़, किशनगढ़ की चित्रकारी का आधार बनी और कुछ क्षेत्रों में तो चित्रकारों ने कविताएँ भी लिखीं।
गढ़वाल के मोलाराम का नाम उल्लेखनीय है। गुरु गोविन्द सिंह के दरबार में ब्रजभाषा के कवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग था।
उत्तर भारत के संगीत में चाहे ध्रुपद, धमार, ख्याल, ठुमरी या दादरे में सर्वत्र हिन्दू-मुसलमान सभी प्रकार के गायकों के द्वारा ब्रजभाषा का ही प्रयोग होता रहा
और आज भी जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा जाता है, उसके ऊपर ब्रजभाषा ही छायी हुई है और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के कारण सम्भव हुई।
उन्नीसवीं शताब्दी तक काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का अक्षुण्ण देशव्यापी वर्चस्व रहा। इस प्रकार लगभग आठ शताब्दी तक बहुत बड़े व्यापक क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करने वाली साहित्यिक भाषा रही।
एक प्रकार से ब्रजभाषा ही मुक्तक काव्य भाषा के रूप में उत्तर भारत के बहुत बड़े हिस्से में एकमात्र मान्य भाषा थी। उसकी विषयवस्तु श्री कृष्ण प्रेम तक ही सीमित नहीं थी,
उसमें सगुण-निर्गुण भक्ति की विभिन्न धाराओं की अभिव्यक्ति सहज रूप में हुई और इसी कारण ब्रजभाषा जनसाधारण के कंठ में बस गई। 1814 में एक अंग्रेज़ अधिकारी मेजर टॉमस ने ‘सलेक्शन फ़्रॉम दि पॉपुलर पोयट्री ऑफ़ दि हिन्दूज’ नामक पुस्तक में सिपाहियों से संग्रहीत लोकप्रिय पदों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया।
इस में अधिकतर दोहे, कवित्त और सवैये हैं, जो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों के द्वारा रचित हैं एवं केशवदास के भी छन्द इस संकलन में हैं।
रचना बाहुल्य के आधार पर प्राय: यह समझा जाता है कि ब्रजभाषा काव्य एकांगी या सीमित भावभूमि का काव्य है।
ब्रजभाषा काव्य का विषय मूल रूप से शृंगारी चेष्टा-वर्णन तक ही सीमित है। साधारण मनुष्य के दुःख-दर्द या उनके जीवन-संघर्ष का चित्र नहीं है। पर जब हम भक्ति-कालीन काव्य का विस्तृत सर्वेक्षण करते हैं
और उत्तर मध्यकाल की नीति-प्रधान रचनाओं में यह संसार बहुत विस्तृत दिखाई पड़ता है। चाहे सगुण भक्त कवि हों अथवा निर्गुण भक्त कवि; आचार्य कवि हों, स्वछन्द कवि या सूक्तिकार - सभी लोक व्यवहार के प्रति बहुत सजग हैं और इन सबकी लौकिक जीवन की समझ बहुत गहरी है।
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