कॉंग्रेस ने 1936 की फैजपुर घोषणा में वन समुदायों के वर्जित करने पर अपनी सिथति स्पष्ट कर दी :
इस कॉंग्रेस की राय में वर्जित एवं आंशिक वर्जित क्षेत्रों को पृथक रखने के पीछे का अभिप्रेत , उस क्षेत्र की संपती एवं खनिज को विस्तृत नियंत्रण और दोहन को बाहर करके वहाँ के निवाशियों की जीविका का शोषण तथा दमन करने का हैं ।
आदिवासियों के हित सर्वश्रेष्ठ आधुनिक प्रभाव के प्रति उनका रुझान और संरक्षण नियमों के कार्यान्वन द्वारा ही पूरा हो सकता है। वन उत्पाद औद्योगीकरण आदिवासी समाज की प्रगति के लिए आवश्यक समझा जा सकता है।
जन जातीय विरोध को उनकी अनुकूलन , अपनाने और परिवर्तित होने की अक्षमता के सूचक के रूप में देखा गया।
जिन्होंने उनके आत्मसातकरण का समर्थन किया, उन्होंने अंग्रेजी शासन के अंतर्गत मुख्यधारा के विकास के नियमों को माँ लिया ।
वे स्वंत त्रता संग्राम में जनजातीय वनवासियों द्वारा दिए जा सकने वाले योगदान से अनभिज्ञ थे। ज नजातीय विरोधों में दर्शाए जाने के बावजूद उनके ज्ञान तथा उनके जीने ढंग के साथ उसके संबंध से जुड़े प्रश्नों की उपेक्षा की गई।
यह उस स्थिति से मेल खाती थी जो जवाहरलाल नेहरू ने जनजातीय स्थिति के बारे में सोची थी ।
सन् 1952 में 'अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित क्षेत्रों पर पहले स त्र में उन्होंने कहा हमने आधी शताब्दी या उससे भी अधिक तक स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी और उसे प्राप्त किया।
अन्य किसी भी चीज के अतिरिक्त, वह संघर्ष एक महान मुक्तिदायक बल था। उसने हमें स्वयं से ऊँचा उठाया हमें या द रखना चाहिए कि करोड़ों भारतीयों का यह अनुभव जनजातीय लोगों ने नहीं बाँटा था।
यह स्पष्ट है कि उन्होंने अंग्रेज शासन के विरुद्ध संघर्ष और विरोध किया किंतु कर भारतीयों के साथ अपने अनुभव बाँटने का उनके पास कोई मार्ग न था क्योंकि एक और वे वर्जित क्षेत्रों में राजनीतिक रूप से अलग हो गए थे और दूसरी ओर, वे तथाकथित प्र भावी समाज के समाज बहिष्कृत लोग थे।
इस प्रकार के बाहरी लोग थे। जनजातीय लोगों की सिथति को मुख्यधारा के प्रशासन की इस विधि के दृष्टिकोण से अब नहीं समझा जा सकता है।
0 टिप्पणियाँ