वास्तविकता का निर्माण किस प्रकार होता हैं? सामाजिक वास्तविकता की परिघटनाओं का वर्णन करें ।

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वास्तविकता का निर्माण किस प्रकार होता हैं? सामाजिक वास्तविकता की परिघटनाओं का वर्णन करें ।

 


 

समाज के नए सदस्य जब पूर्ववर्ती तथ्यों व विचारों को अपनाना शुरू कर देते हैं के वे सामाजिक सच्चाइयाँ बन जाते हैं। 


जीवन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आर्थिक, राजनीतिक मनोवैज्ञानिक क्षेत्रों का समावेश है और इसी तरह नई पीढ़ी के सदस्यों को विशिष्ट तरीके से व्यवहार करने का प्रशिक्षण देकर इनमें से प्रत्येक को एक दूसरे के साथ जोड़ने का प्रया किया जाता है, जिन्हें नई पीढ़ी अपने लिए उपयुक्त और सही समझती है।



 

किसी भी समाज की सामाजिक बनावट एक नाजुक रचना है जिसकी आंनुष्ठानिक और सतत् अंत क्रियाओं के माध्यम से लगातार समीक्षा करनी पड़ती है। 



अतः वास्तविकता स्वय इस तरह 'क्षणभंगुर" है कि कोई भी विघटनकारी या द्वंद्वात्मक स्थिति से व्यवस्था और अंगभग नियम ठप्प पड़ जाते हैं।



 ऐसी सामाजिक तालेबंदी के बाद दूसरे राष्ट्र से युद्ध के समय या यहाँ तक कि जीर्ण अव्यवस्था के दौरान जो अंत क्रिया उत्पन्न होती है उसे ठीक होने में काफी समय लगता है और इससे सामाजिक बनावट को ठीक करने के लिए बहुत से वर्ष लग जाते है या कुछ सदस्यों पर इसका स्थायी प्रभाव पड़ जाता है।



 संस्कृति के बहुत से आयाम हैं और सच्चाई का निर्माण यद्यपि बहुत से समाजों में समान होता है. फिर भी असल में वह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति और एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में भिन्न होता है।



 इस बात की शंका है कि युवा और प्रभावनीय व्यक्ति के मस्तिष्क में मान लीजिए धार्मिक या आर्थिक स्थिति द्वारा बद्ध कुछ निश्चित सामर्थ्य विकसित करना ही होगा।



 अतः विविध जातिर्यो एवं वर्गों द्वारा विविध जीवन शैलियाँ सृजित की जाती हैं जो कि रोजाना के जीवन में पूर्ण विचारधारा और अंत क्रिया के रूप में नज़र आती हैं।



 ये वस्तुओं पर महज उत्सुकता से देखने के ही तरीके नहीं हैं बल्कि यह एक ऐसी नाजुक स्थिति है जहाँ निर्मित सच्चाई को निरंतर प्रचंड करने की जरूरत है ताकि वह सामाजिक व्यवस्था या व्यवस्थाओं पर अपने विचार प्रकट कर सके।

 

सच्चाई का निर्माण किस प्रकार किया जाता है तब हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि स्थायित्व की प्राप्ति के लिए समाज स्वयं समाजीकरण और शिक्षा का सहारा लेता है और कुछ सीमा तक व्यक्ति को नियंत्रित करता रहता है और यहाँ तक कि उसकी वास्तविकता को आगे कायम रखने के लिए उसमें उत्तरदायित्व की भावना भी पैदा करता है।



हमारी वास्तविकता और अनुभव ये सभी बातें कुछ समुदायों, बड़े समूह, राष्ट्र राज्यों में मनुष्यो द्वारा निर्मित की जाती है और कभी-कभार राष्ट्र-राज्यों की तुलना में इनका इस और अधिक ध्यान होता  है। 



ज्ञान के समाजशास्त्र का कार्य यह दर्शना है कि कितनी सटीकता से सामाजिक सच्चाई की ये  रचनाएँ मनुष्यो, समूहो  और मनुष्यों के समुदायों द्वारा विकशित की जाती है। 


अतः ज्ञान और सामाजिक संदर्भ के बीच के अंत संबंध जिसमें ये विकसित हुआ है. यह समझनें  में एक महत्वपूर्ण बिंदु है कि समाज किस प्रकार युगों से स्वयं को सृजित एवं पुनः सृजित करने के योग्य रहा है।

 

कुछ सामाजिक वैज्ञानिकों के अनुसार यह माना जाता है कि समाजकीय संदर्भ विचारों के अस्तित्व का आधार था न कि अपने आप में सटीक विचार और इसलिए व्यक्ति को स्वैच्छिक कार्यों एवं कार्य की स्वतंत्रता की कुछ महत्त्वपूर्ण कोटि प्रदान की।




 दूसरी तरफ कुछ ऐसे सामाजिक वैज्ञानिक है जिनका मानना है कि मानव चिंतन कभी भी विचारधारा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया और परिवेश में व्याप्त बौद्धिक वातावरण से वह कभी अछूता नहीं रहा।



 अतः यह स्पष्ट है कि जैसे सामाजिक विज्ञानियों ने इस ओर इशारा किया है कि ज्ञान की प्राप्ति सहवर्धी  है और यह अपेक्षाकृत धीमी गति से एकत्र होती है और केवल जब प्राप्त ज्ञान के पर्याप्त पहलुओं की जाँच की जाती है तब किसी भी सच्चाई का दृष्टिकोण लक्षित और स्पष्ट होता है। 




ज्ञान समय के साथ एकत्र होता है और इसके लिए नये सदस्यों को सारा कुछ एक साथ देना संभव नहीं होता और मौजूदा सदस्यों को मीडिया, संस्थान, परिवार और कार्य परिवेश के माध्यम से निरंतर नवीन जानकारी दी जाती है ताकि उन्हें ऐसी घटनाओं का अच्छे से पता हो जो समाज में घटित हो रही है।

 

सामाजिक वास्तविकता की परिघटना बर्जर और लुकमान का मानना है कि सामाजिक सच्चाई की परिघटना का अध्ययन करने से आशय है, प्रस्थान स्थल के रूप में हम हर रोज सामान्य समझ आधारित सच्चाई का प्रयोग करते हैं।




 यह वही है जो अंततः ज्ञान में शामिल होता है अर्थात् सामाजिक जीवन एवं प्रक्रिया में निहित अंत क्रिया एवं सहभागित्ता। अतः 'सामान्य बोध विचार, व्यक्तियों व समूहों एवं समाज की परिघटना और समाजशास्त्र को समझने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रवेश बिंदु है।



 अतः यह स्पष्ट है कि समाज के पास अपना अस्तित्व कायम करने और सत्तामीमांसा के लिए कम से कम दो पहलू होते हैं जिनमें से एक व्यक्तिगत और एक विषयगत हैं। 



ये तथ्य मिलकर समझ को बढ़ाते हैं अर्थात् जहाँ व्यक्ति के लिए समूह जीवन है वहाँ दरअसल विषयगत सच्चाई, नियम एवं विनियम होते हैं। जिनका पालन करना तब तक अत्यावश्यक होता है जब तक कि व्यक्त्ति या समूह अलग-अलग नहीं रहना चाहते हो। 




अतः सर्वप्रथम सामाजिक जीवन की सभी सच्चाई स्वजातिक होती है जो कित्ती एकल व्यक्ति के ऊपर और उससे परे मौजूद रहती है। अतः बर्जर भी हमारी ही तरह यह पता लगाने में इच्छुक है कि किस प्रकार मनुष्य सभी नानारूप आयामों एवं पहलुओं में सामाजिक जीवन को उत्पन्न करते हैं और इसे कायम रखते हैं।

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