विषयगत वास्तविकता से तात्पर्य समाज द्वारा व्यक्ति पर नियंत्रण को बनाए है तथा यह कार्य सामाजिक संस्थाओं द्वारा संपन्न किया जाता हैं
क्योंकि संस्था समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती हैं
सामाजिक रूप से संस्था वैध
होती है, व्यक्ति आते-जाते रहते हैं, लेकिन संस्था
अनिशिचत समय
तक अपना अस्तित्व बनाए रखती है।
सथानीकरण एवं क्रियाविधि की घटना एक ऐसी कार्य प्रणाली है जो स्थान बनाती और कुछ निश्चित लक्ष्य एवं उद्देस्यों को सृजित करती है जिन तक एक ऐसे विविध नियम के माध्यम से पहुंचा जा सकता है जो संस्थागत व्यवहार को परिभाषित करते है।
यह बात उठाई गई है कि प्रत्येक सस्थान भौतिक परिवेश और सामाजिक परिवेश अर्थात दोनों में अपना अस्तित्व कायम करता हैं है।
सच यह है कि ये दोनों प्रदत है और अपनी इच्छा से इन्हें बदला नहीं जा सकता। वास्तव में यह उसका समग्र सामाजिक और भौतिक परिवेश है जो मनुष्य को इंसान बनाता है।
यह भौतिक और सामाजिक पर्यावरण
के साथ अतः क्रिया ही है जो हर तरह की मानव गतिविधि के अस्तित्व को
उत्पन्न करती है। ऐसा इसलिए है कि कोई भी मानव गतिविधि समय या पूर्ण पर्यावरण के प्रभाव के
बिना न तो शुरू और न ही पूरी की जा सकती है।
मानव संस्थानों की उत्पत्ति विषय में इस ओर इशारा किया जा सकता है कि सस्थान उत्पन्न होते हैं जब आभ्यासिक व्यवहार का अन्योन्य प्रतीकीकरण (reciprocal typification) होता है जो ठोस प्रतिमानित व्यवहार को बनाता है जो कि समग्र नियंत्रण पैटर्न की सीमाओं से बाहर नहीं होना चाहिए।
अतः ऐसे विविध कार्य जो सदस्य करते हैं वे ऐसे सस्थान की ओर से जाते है जो इसके सदस्यों पर सामाजिक नियंत्रण कायम करता है।
जब ऐसा होता है तो हम कह सकते हैं कि संस्थान पहुँच चुके हैं या
निश्चित रूप धारण कर चुके हैं। अतः संस्थान जो एक समय शुरु में मनुष्य द्वारा निर्मित थे परंतु अपनी एक
सामाजिक विषयगत वास्तविकता को विकसित करते हैं।
बर्जर और लुकमान इस ओर इशारा करते हैं कि मनुष्य और उसके सामाजिक जगत के बीच संबंध द्वद्वात्मक है अर्थात् प्रत्येक परिघटनां एक-दूसरे के साथ अंत क्रिया करती है और उस पर प्रतिक्रिया करती है।
अतः मनुष्य और प्रकृति को अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि दोनों का एक दूसरे पर नकारात्मक या सकारात्मक प्रभाव हो सकता है। सामाजिक वास्तविकता के तीन अंत संबद्ध पहलू होते हैं।
ये ऐसे तथ्य है कि समाज मनुष्यों
द्वारा बनाया जाता है: इसके अलावा यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज एक विषयगत
वास्तविकता है और इन कारकों के परिणामस्वरूप मनुष्य स्वयं सामाजिक उत्पाद बन जाता
है।
अब
समाज को स्वीकृत किए जाने की जरूरत है अर्थात् अब इसे वैधता की जरूरत है जो कि नई
पीढ़ी के सदस्यों को अंत क्रिया के पहले से मौजूदा प्रतिमानित तरीकों में
समाजीकृत करके किया जाता है। यह कहा जा सकता है कि समाजीकरण समुचित ढंग से और निरंतरता से वर्धमान वर्षों के दौरान की जाती है और मरणोपरांत भी यह खत्म नहीं होती अर्थात् शाश्वत है अर्थात् संस्थान जन्म, जीवन और मृत्यु सभी विचारों को प्रदान करते हैं और बताते है कि किस प्रकार इन प्रक्रमी को अधिक कुशल बनाया जा सकता है।
हालोंकि रामाजीकरण अकेला कभी भी सभी सदस्यों को
नियंत्रण की रेखा में रखने के योग्य नहीं होता क्योंकि किसी भी समाज में
पथभ्रष्टों का भी कुछ प्रतिशत होता है।
आंतरिक नियंत्रण या मनोवृत्तियों का नियंत्रण है जो संस्थान को ऐसा शक्तिशाली बल का रूप देता है।
हालांकि सामाजिक सच्चाई, साझे अनुभव और सामान्य स्वीकृति अंदरुनी और बाहरी अनुभवों को जोड़ती है जो कि अवचेतन में घर कर जाते हैं और नियंत्रण कायम करते है और यही है जो समाजीकरण को तोस, समुचित एवं सतत् बनाते हैं।
यह परिवार जैसे संस्थानों के माध्यम से होता है कि हम मनुष्य बनना सीखते है और ऐसे व्यवहार को दर्शाते है जो कि सामाजिक रूप से लाभप्रद होता है।
हालांकि इसके बाद भी वैधता, समाजीकरण और समग्र व्यवहार के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता और समाजीकरण में ऐसी 'चूक' शामिल है जो कि दगे या अन्य हिंसात्मक गड़बड़ियों के रूप में सामाजिक बनावट में छेद कर सकती है
क्योंकि सस्थानों का
सामाजिक नियंत्रण उसका प्रयोग कभी-कभार ठप्प पड़ जाता है और ऐसी स्थिति सामाजिक
सामंजस्य के लिए खतरनाक भी हो सकती है।
इसके अलावा हम पाते हैं कि मनुष्यों को एक विशिष्ट रूप से सिखाए गए व्यवहार को दर्शाना पड़ता है जो कि समाज के तानेबाने की भलाई के लिए अनिवार्य है।
भूमिकाएँ पारस्परिक देयताएँ एवं आपसी कड़ियों को निर्धारित करती है। जब इन भूमिकाओं को दोहराया जाता है तो अक्सर एक सुस्पष्ट भूमिका संरचना विकसित होती है।
ऐसा इसलिए है चाहे भूमिका
अभिनय अपेक्षाकृत साधारण हो और ऐसा अधिकतर इसलिए कि भूमिका के विस्तृत निहितार्थ
और इससे भी बड़ा सामाजिक नियंत्रण है।
अतः भूमिका सामाजिक सच्चाई को परिभाषित करती है और सामाजिक वास्तविकता भूमिका को।
भूमिकाओं का उद्भव संस्थानों की भाँति पास्परिक प्ररूपण में निहित है। भूमिकाएँ
सामाजिक ढाँचे का सृजन करती हैं जो कि समय और स्थान से जुड़ा हुआ है और जिसे आगे
भूमिका सीमाओं के अनुकूल चलना है, इस
तरह समग्र रूप से सामाजिक जीवन और संस्थानों की यह रीढ़ की हड्डी बन जाती है।
0 टिप्पणियाँ