वास्तव में संरचना की तुलना एक से की गई है तथा जीव से इसकी समानता को दर्शाया गया है, इसलिए इसे जैविक सादृश्यता कहा गया है। जीव की प्रधान इकाई कोशिका है. जो अपने सादृश्य अन्य कोशिकाओं के साथ मिलकर शरीर के तंतु का निर्माण करती है।
अवयव या अग विभिन्न तंतुओं का समूह है तथा अवयवों के समूह से जीव की रचना होती है। इस प्रकार, शरीर रचना विखडित होकर अव्यय बन जाती है और इसी प्रकार अव्यय टूटकर तन्तु में परिवर्तित हो जाता है और इसी प्रकार अवयव विखडित होकर कोशिका में बदल जाता है।
इन्हीं कोशिकाओं में से एक कोशिका का अध्ययन किया जा सकता है। इसी तरह समाज की आधारिक इकाई एक सभ्य व्यक्ति है। एक ऐसा व्यक्ति जिसमें मानवीय आ दर्सो और मानवीय मूल्यों का समावेश हो और जिसने सार्थक सामाजिक व्यवहार को अपनाया हो ।
विभिन्न व्यक्तियों का एकत्रीकरण समूह कहलाता है और इनमें अनेक समूह एक साध मिलकर समुदाय का गठन करते हैं। अनेक समुदाय मिलकर समाज का निर्माण करते है।
जैसा शरीर रचना में होता है। ठीक इसी प्रकार समाज जब विघटित होता है, तब समुदाय बनता है और बाद में जब समूह भी टूटता है तो शेष बचता है व्यक्ति विशेष।
जैविक सादृस्य प्रारंभिक बिंदु के रूप में बहुत उपयोगी है, किंतु इसको ही अतिम नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि यह अनेक स्तरों पर खंडित होता है।
जैसे, एकल कोशिका जीवित रह सकती है. एकल कोशिकाओं से शरीर रचना होती है। किंतु व्यक्ति विशेष अकेले जीवित नहीं रह सकता। मानवीय समाज की सर्वाधिक मौलिक इकाई युग्म है. अर्थात् यो व्यक्तियों का समूह है। बहुत पहले अरस्तू ने भी कहा था कि जो अकेला रहता है, वह या तो जानवर है या फिर कोई देवता।
जैविक सादृश्य हमें समाज की अवधारणा एवं उसकी संरचना को समझने में हमारी सहायता करते हैं, किंतु समाज की विशिष्टता के प्रति हमें आँख नहीं मूंदनी चाहिए। यह प्राकृतिक एवं जीव विज्ञान जगत की अन्य पद्धतियों में नहीं मिलता।
द ऑक्सफोर्ड एडवांरड लर्नर्स डिक्शनरी (1999) में स्ट्रक्चर शब्द के तीन अर्थ दिए गए हैं (1) वह रोति जिसमें कोई वस्तु आयोजित की जाती है. निर्मित की जाती है अथवा साथ-साथ रखी जाती है (अर्थात मानव शरीर की बनावट), (2) एक विशेष पद्धति, नमूना, प्रक्रिया अथवा संस्थान (अर्थात् वर्ग संरचना, वेतन संरचना) तथा (3) किसी विशेष रीति द्वारा
विभिन्न अवयवों को एक साथ रखकर किसी वस्तु का निर्माण (अर्थात एकल भाग की संरचना)।
प्रत्येक वस्तु की संरचना होती है और जब तक संरचना मौजूद नहीं है तब तक तत्त्व कोई कार्य नहीं कर सकता और जैसे ही इसकी संरचना खंडित हो जाती है या खतरे में पड़ती है. यह काम करना बंद कर देती है।
यह गतिविहीन हो जाती है जिसके कारण यह अन्य दूसरे भागों के क्रियाकलापों को प्रभावित कर देती है क्योंकि ये आपस में एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हुए है।
ये अवयव आपस में एक-दूसरे से एक विशेष क्रम में इसलिए जुड़े हैं क्योंकि इनके मध्य एक तर्कसंगत व विवेकपूर्ण संबध स्थापित है। उनके लिए जो संरचना को एक महत्त्वपूर्ण विश्लेषणात्मक अवधारणा मानते हैं, विश्व एक व्यवस्थित सत्ता है, जो ऐसे अवयवों से निर्मित है। जो आपस में एक-दूसरे से आबद्ध है और जिसके हर एक अवयव को दूसरे अवयव से सम्बद्धता में अध्ययन करना आवश्यक है।
सारांश यह है कि संरचना से आशय उस विधि से है जिसके अंतर्गत किसी तत्त्व के अवयव एक-दूसरे से इस तरह से जुड़े हुए हैं ताकि वह तत्त्व समग्र रूप से प्रकट हो और विश्लेषण के उद्देश्य से एकल टुकड़ों में विभाजित हो सके।
समाजशास्त्र में इस विषय में कोई मतभेद नहीं है कि संरचना से आशय किसी वस्तु के अवयवों का आपस में एक-दूसरे से जुड़ा हुआ होना है।
किंतु इसका अस्तित्व इन अवयवों की पहचान से है, चाहे ये अवयव एकल हों या समूह में अथवा भूमिका में या फिर संस्थान के रूप में अथवा संदेश के रूप में हों। दूसरे शब्दों में, प्रश्न यह है कि इन अवयवों में से किस पर प्राथमिक रूप से ध्यान दिया जाए।
दूसरा, यह मतभेद पैदा होता है कि क्या संरचना आनुभविक तत्त्व है, ऐसा आनुभविक तत्त्व जो दिखाई दे सके और जिसका निरीक्षण संभव हो या यह मात्र कल्पना है जो मानव संव्यवहार की नियमितता एवं सामजस्यता से घटित होता है।
इन दोनों विचारधाराओं के इर्द-गिर्द सामाजिक संरचना के विभिन्न सिद्धांत प्रतिपादित हुए है। रॉबर्ट मेस्टन (1975) ने सत्य ही कहा है कि सामाजिक संरचना की धारणा 'बहुओतोद्भवी" एवं "बहुरूपी' है अर्थात् इसके अनेक अर्थ व अनेक मत है।
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