रूपावली की संकल्पना पर प्रकाश डालिए।

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रूपावली की संकल्पना पर प्रकाश डालिए।

 

                    

रूपावली की संकल्पना : किसी भी विषय में विशेष रूप से विज्ञान विकासक्रम से चलने वाली प्रक्रिया है, वरन् यह यकायक घटित होती है। इस प्रकार का सुझाव सर्वप्रथम कुन शास्त्रिज्ञ (Kunn) ने दिया।



 अतः कुन की पुस्तकें वैज्ञानिक क्रांति की संरचना पर आधारित थीं। कुन ऐसे यकायक परिवर्तनों को 'प्रतिमान परिवर्तन" (paradigm shift) कहते हैं। इसके अनुसार विज्ञान और विस्तार के आधार पर सामाजिक विज्ञान तीन चरणों से होकर गुजरता है जो किं इस प्रकार है:

(i) पूर्ववैज्ञानिक चरण

 

(ii) सामान्य विज्ञान

 

(ii) प्रतिमान स्थानांतरण

 

प्रारंभिक चरण में व्याख्या सिद्धांत अधूरे हैं और एक दूसर के पूरक है। किसी एक बिंदु - पर कोई एक सिद्धांत सामान्य विज्ञान चरण में अपनी एक जगह बना लेता है। इस चरण में एकल सिद्धांत या सिद्धांतों का समुच्चय प्रबल नजर आता है, जिसे कुन ने रूपावली कहा।

 

 

 

जब रूपावली में बदलाव होता है तो वह स्थिति होती है, जहाँ पिछले सिद्धांत निरर्थक नजर आने लगते हैं।


 कुन के लिए यह प्राकृतिक प्रक्रिया है और निश्चित समयावधि के बाब यह स्वयं को दोहराती है क्योंकि नये एवं स्थापित सिद्धांत ज्ञान विस्तार के साथ अधूरे बन जाते है।



 इस बिंदु पर समाधान सिद्धांतों को संशोधन करने में निहित होता है या अन्य पद 24 सैद्धांतिक व्याख्याओं के लिए इन्हें अलग-थलग किया जाता है जो विज्ञान, सामाजिक विश् और समय रूप से विश छवि के लिए अधिक पर्ण और बेहतर व्याख्या पेश करते है।

 

जब किसी रूपावली में परिवनि घटित होता है तो उस स्थिति में पिछले सिद्धांत बैंक प्रतीत होने लगते है।


 कुन के अनुसार यह प्राकृतिक प्रक्रिया है तथा एक निश्चित अवधि बाद स्वयं इसकी पुनरावृति होती है। ऐसा इसलिए कि नए और पूर्व-स्थापित सिद्धांत विस्तार के साथ-साथ अधूरे पड़ते जाते हैं। इस स्तर पर सिद्धांतों में संशोधन होता है या प्रभावी सैद्धांतिक व्याख्या के लिए अलग कर दिया जाता है जो न केवल विज्ञान चरन विश्व छवि के लिए अधिक पूर्ण और अच्छी व्याख्या की प्रस्तुति करते हैं।



 रूपावली स्थानात र्षण के सिद्धांत की का अन्य उदाहरण नजर आया जब न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के। के सापेक्षिकता के सिद्धांत ने ले ली। जगह आइनस्ट

 

कुन के अनुसार प्रतिमान बदलाव से आराय है, यदि विज्ञान या सामाजिक विज्ञान के स्थापित सिद्धांतों को यदि परी तरह न भी बदला जाए तो भी ये आक्रामक होते है।



 संक्षेप। पिछले सिद्धांत अतुलनीय व बदलाव पूर्ण है। जिस तरीके से भाषा का प्रयोग किया जाता। उस तरीके से नई सकल्पनाओं शब्दों एवं अर्थों का विकास प्रतिमान स्थानांतरण का भाग। इसी प्रकार मानदंड और मूल्य भी।

 

इसे यदि अलग तरीके से रखें तो प्रतिमान स्थानांतरण का अर्थ विश्व, इसकी संकल परिप्रेक्ष्य एवं विश्व समुदाय की समग्र मनोवृतियों का नया नजरिया लेना है। 



वैश्वीकरण के में जो उत्तर आधुनिक प्रतिमान स्थानांतरण का साक्षी है और जिसमें स्थानीय संदर्भ अच् का मुख्य केंद्रबिंदु है और जहाँ सामान्य या वृहद् सिद्धांतों के विचार को विवेकपूर्ण व्यावहारिक नहीं समझा जाता।

 

इस तरह रूपावली, की संकल्पना में दो पहलू है। पहला है जो समग्र है और उप-समुच्चयों पर इसके विविध मार्गो को शामिल करता है। इसमें विज्ञान या सामाजि विज्ञान की तरह की कार्यविधि शामिल है।



 यह वैश्विक प्रतिमान है। दूसरे स्तर पर हम सिद्धांत एवं व्यवहारों को पाते हैं जो समाज के मौजूदा रूपावली को सहारा देते हैं।

 

यद्यपि समाजशास्त्र को विशिष्ट, स्वतंत्र और वैज्ञानिक विषय बनाने के लिए कुछ प्रद तो अवश्य किए गए हैं लेकिन संबद्ध विचारकों के निर्मित समाजशास्त्रीय सिद्धांतों को विति आधारों पर चुनौती भी दी गई है। 


यह पुनः समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति को उजा करती है और जहाँ प्रत्येक सिद्धांत की जाँच की जा सकती है और जो गलत पाए जाने नामंजूर भी किया जा सकता है। 



अतः समाजशास्त्रीय सिद्धांतों में अन्य विज्ञान विषयों की त कोई भी शाश्वत सार्वभौमिक सच्चाई नहीं होती जो कि सभी दशाओं एवं हर समय सच क रहती है। समाजशास्त्रीय सिद्धांतों को धार्मिक या इतर-भौतिक दावों जैसे विषयों के रूप नहीं देखा जा सकता।



 न ही समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की ऐसे दर्शनशास्त्री दिशा-निर्देशों से तुलना की जा सकती है जिनका अनुसरण किया जाना है।



 समाजशास्त्रीय सिद्धांत ऐसी समस्याओं से बाहर निकल आए है और आज उनके सम्मुख आने वाली चुनौतियाँ अन्य किस्म की है और इनमें से अधिकांश वैज्ञानिक किस्म की है ऐसी वैज्ञानिक प्रकृति की प्राप्ति के लिए काष्टे की रचनाओं के समय से लंबा रास्ता तय किया है जिसने इसे प्रत्यवादी विज्ञान के रूप में स्थापित किया।



 समाजशात्वीय सिद्धांतों को पहली चुनौती ऐसे पेर ओकडों से मिली है जिन्हे विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व भर में सृजित किया गया है।




 उदाहरण के तौर पर जनानिकी के क्षेत्र में जनित आँकड़ों से सैद्धांतिक स्तर पर बहुत से नवरीन कार्य हुए है। इसी तरह मानव विकास सूचकांक से संबंधित आँकड़ों ने पराराष्ट्रीय तुलनाओं को करने में सहायता की है।




 समाजशास्त्रीय सिद्धांतों को दूसरी चुनौती परिवर्तन की ऐसी प्रक्रियाओं से मिली है जो समाज के विविध स्तरों पर आकार धारण कर रही है। यदि इन्हें साधारण शब्दों में रखें तो कहा जा सकता है कि सामाजिक बदलाव की प्रक्रियाएँ समाज में विकसित होती रहती है। इस सत्य से परे एक समाजशास्त्री उसका अध्ययन करे या न करे किंतु वास्तविकता यह है कि समकालीन विश्व में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ न केवल प्रकृति में जटिल है बल्कि तीव्रतर गति से आकार धारण कर रही है।




 इसके परिणामस्वरूप बहुत बार समाजशास्त्री इन सभी का अध्ययन करने की स्थिति में नहीं होते ऐसी कई घटनाएँ है जिन्हें गंभीर समाजशास्त्रीय अध्ययन की आवश्यकता है जैसे एड्स के परिणामस्वरूप और उससे जुड़े आतंक के कारण इन क्षेत्रों में अभी काफी कुछ करना बाकी है।




 समाजशास्त्रीय सिद्धांतों को तीसरी चुनौती तब मिली जब कुल मिलाकर कुछ निश्चित समयावधि में समाज में बदलाव आए। ऐसे महत्त्वपूर्ण समय में शामिल घटनाएँ है द्वितीय विश्व युद्ध का अंत, विश्व में विविध स्थानों पर औपनिवेशिक शासन का अंत और विविध स्वतंत्र राष्ट्र-राज्यों का उद्भव। समाजशास्त्रीय सिद्धांतों को बहुत बार ऐसी घटनाओं से समझौता करना पड़ता है जब विश्व में ऐसे महत्त्वपूर्ण बदलाव अपनी एक रूपरेखा निर्मित करते हैं।




 समाजशास्त्रीय सिद्धांत को चौथी चुनौती ऐसी गलत धारणाओं से मिली है जो विषय के रूप में समाजशास्त्र से जुड़ी हुई हैं और जो कि मुख्यता समाज की मौजूदा समस्याओं को हल करने से जुड़ी हुई हैं। 




दरअसल, समाजशास्त्र समाज की समस्याओं को हल करने के योग्य है लेकिन अभी तक इसने स्वयं को सिर्फ इनके वैज्ञानिक अध्ययन तक ही सीमित रखा है। लेकिन ऐसी कुछ समस्याओं एवं आने वाली चुनौतियों की प्रतिक्रिया के रूप में समाजशास्त्रियों ने इनमें से कुछ को संबोधित करने का प्रयास किया है।




 समाजशास्त्रियों के प्रयासों के परिणामस्वरूप हमने तर्कसंगतता, उत्तर-आधुनिकतावाद, वैश्वीकरण, नागरिक समाज जैसी संकल्पनाओं के इर्द-गिर्द केंद्रित कुछ विशिष्ट सैद्धांतिक सूत्रों के उ‌द्भव को देखा है।



 समाजशास्त्रीय सिद्धांत के स्तर पर विषय से जुड़े बुद्धिजीवियों एवं शिक्षाविदों ने लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे विषयों पर अर्थपूर्ण ढंग से भी प्रतिक्रिया की है।





 कुछ सीमा तक समाजशास्त्रियों ने अपन रचनाओं के माध्यम से समाज के पुनर्निर्माण के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति को महसूस कराया है।

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