प्रकार्यवाद की समीक्षा व आलोचना किन आधारों पर की जाती हैं?

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प्रकार्यवाद की समीक्षा व आलोचना किन आधारों पर की जाती हैं?

 




प्रकार्य वाद  का उद्भव  1930 में हुआ। सामाजिक  मानव विज्ञान और  समाजशास्त्र के  इतिहास में सबसे ज्यादा रुचि उत्साह और प्रतिक्रिया इसी सिद्धात ने उत्पन्न की।


1960-70 के दशक में इस सिद्धांत की आलोचना हुई। इन समालोचनाओं में सर्वाधिक कि  प्रमुख यह है कि इसमें पर्याप्त रूप  से इतिहास को शामिल नहीं किया गया है।



 दूसरे शब्दों में यह स्वभाव से ऐतिहासिक है लेकिन इतिहास विरोधी नहीं है। यह विगत एवं इतिहास लेखा – जोखा प्रस्तुत नहीं करता है। 1930 के दशक में सामाजिक मानव विज्ञान में प्रकार्यवाद 19 वीं शताब्दी के कूट तिक्हासिक' और 'मीमांसात्मक उत्पतिवाद और  प्रसारवाद  की प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ।




एडवर्ड टेलन ने बेझिझक  'समकालीन आदिमों ' को 'सामाजिक अवशेष और भूतकाल के उत्तरजीवन (अवशेष) की रूप  में प्रस्तुत किया और माना कि इनका अध्यन पूर्व –एतिहाशिक समय  के समाजों की सास्कृतिक विशेषताओं को समझने में हमारा मार्गदर्शन करेगा। इससे हमें  मानव के इतिहास की पुनः रचना करने में सहायता मिलेगी।



 

यह निष्ठता से संबंधित प्रकार्यवाद की दूसरी समालोचना है। यह सामाजिक परिवर्तन की समकालीन प्रक्रियाओं को प्रभावपूर्ण ढंग से चित्रित नहीं करता है।




 इस प्रकार, यह न तो  समाजों के भूतकाल का अध्ययन करने में संक्षम है और न ही यह समकालीन परिवर्तन प्रक्रिया का अध्ययन कर पाती है। प्रकार्यवादियों द्वारा प्रस्तुत समाज की तस्वीर एक "स्थिर नदी के समान होती है जो अपने उतार और प्रवाह के बारे में कुछ भी नहीं बताती।



 

इस मुद्दे पर दो मत है। पहला, ऐसा समझा जाता है कि समस्या प्रकार्यवाद के सिद्धांत से जुड़ी है। दूसरा मत यह है कि प्रकार्यवाद में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इसको इतिहास और परिवर्तन के मुद्दों पर काम करने से रोकता है।




 प्रकार्यवाद की समस्या को इसके सिद्धांत या इसके प्रयोगकर्ताओं से कुछ सरोकार था या नहीं, वास्तविकता यह है कि संरचनात्मक प्रकार्यवादियों का प्रमुख योगदान स्थिर सामाजिक संरचनाओं के अध्ययन में था, न कि बदलती हुई सामाजिक संरचना के अध्ययन में।



 

प्रकार्यवाद की दूसरी समालोचना यह है कि यह प्रभावपूर्ण ढंग से संघर्ष से निपटने में समर्थ नहीं है। प्रकार्यवादियों ने सौहार्द्रपूर्ण संबंधों पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया है।



 उन्होंने आम-सहमति, स्थिरता, संतुलन और एकीकरण पर बढ़ चढ़ कर ध्यान दिया, संघर्ष और अव्यवस्था की शक्तियों तथा उनसे उत्पन्न परिवर्तनों पर ध्यान नहीं दिया। उनके लिए संघर्ष बावश्यक रूप से विनाशकारी है जो समाज के ढाँचे के बाहर घटित होता है।




प्रकार्यवाद की एक महत्त्वपूर्ण समालोचना यह है कि यह स्वयं में सोद्देश्यवादी है अर्थात् इसमें व्याख्याएँ 'उद्देश्य" अथवा "लक्ष्यों" के रूप में दी गई है। 




वास्तव में, 'सामाजिक सिद्धांत  को समाज और इसके घटक अंगों के बीच में सोद्देश्यवाद' पर विचार करना चाहिए। समस्या तब उत्पन्न होती है जब सोद्देश्यवाद को अस्वीकार्य सीमा तक खींचा जाता है और जब यह तिर विश्वास किया जाता है कि केवल समाज का एक दिया गया और विनिर्दिष्ट भाग ही चालत आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है।




 सोद्देश्यवाद तब अवैध हो जाता है जब यह इस मत पर विचार करने में असमर्थ होता है कि वैकल्पिक संरचनाओं की विविधता एक आवश्यकता की पूर्ति कर सकते हैं।


 

अनेक समालोचकों ने इंगित किया है कि प्रकार्यवाद गोलीय अथवा चक्रीय तर्क-बोध ग्रस्त होता है। 



मौजूदा संस्थानों के आधार पर आवश्यकताओं को अभिगृहीत किया जाता इसके बदले में जिनका प्रयोग अपने अस्तित्व को व्यक्त करने में किया जाता है। 



उदाहरणा लिए, 'सामाजिक वास्तविकता' के रूप में समाज श्रम विभाजन की व्याख्या करता है इसके बदले में श्रम विभाजन समाज में एकात्मता को बनाए रखने में अपना योगदान देता हैं ।


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