सन् 1857 की आजादी की लड़ाई हमारे देश के इतिहास की अमर गाथा है। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन के खिलाफ भारतीय जनता का यह देशव्यापी युद्ध था। अंग्रेज और उनके चाटुकार इतिहासकारों ने इस युद्ध को म्युटिनी अर्थात गदर का नाम दिया। गदर का मतलब होता है, राजा के खिलाफ बगावत। भारतीय जनता ने शस्त्र उठाए थे विदेशी इजारेदारों के विरुद्ध, न कि भारतीय नरेशों के विरुद्ध ।
आजादी की इस लड़ाई में राजा-महाराजा, जमींदार और जनता सब एक हो गए थे। दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह ने साफ कहा था कि अंग्रेजों को देश से निकाल देने के बाद जनता जिसे चाहे अपना शासक बनाए। यह घोषणा भी साफ बताती है कि 1857 का संघर्ष गदर नहीं, बल्कि राष्ट्र की मुक्ति के लिए जनता का सशस्त्र स्वातंत्र्य युद्ध था।
इस मुक्ति-युद्ध के अमर सेनानी थे-नानासाहब, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह और अन्य अनेक राजा-महाराजा तथा जनता। यूं तो सारे देश में ही इस युद्ध की आग भड़क उठी थी, किंतु इसकी लपटें सबसे ऊंची उठीं- उत्तर भारत के अवध सूबे में। कानपुर और लखनऊ के मोर्चे इस युद्ध की सबसे रोमांचकारी घटनाएं हैं। लखनऊ और इसके आस-पास के क्षेत्र में मुक्ति-युद्ध का संचालन करने वालों में दो व्यक्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें एक थे-मौलवी और दूसरी थी बेगम।
मौलवी अहमदशाह कौन थे? कहां से आए? उनके बारे में अनेक कथाएं बताई जाती हैं। हम केवल इतना ही जानते हैं कि वे फैजाबाद के मौलवी के नाम से मशहूर थे और लखनऊ आकर उन्होंने इस युद्ध की बागडोर संभाली थी। बेगम थी- हजरत महल, अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बीवी ।
आरंभ में अवध, मुगल शासन का एक सूबा था। बाद में जब मुगल शासन कमजोर पड़ गया तो अवध एक स्वतंत्र राज्य बन गया। इस राज्य की राजधानी लखनऊ थी। अवध का अंतिम नवाब वाजिद अली शाह 1847 में लखनऊ की गद्दी पर बैठा था। कहते हैं कि वाजिद अली शाह बहुत मनमौजी था। उसे संगीत और कविता का शौक था।
शौक यदि यहीं तक सीमित रहता तो ठीक था, लेकिन वह अपना सारा समय भांडों और नाचने वाली औरतों के संग बिताता था। उसके मंत्री उससे सप्ताह या दो सप्ताह के बाद मिल पाते थे और वह भी केवल चंद मिनटों के लिए। लखनऊ का अंग्रेज रेजिडेंट स्लीमैन 1849 में लिखता है- 'अवध अब असल में बिना सरकार के है। राजा गाने-बजाने वालों और हिजड़ों के अलावा और किसी से नहीं मिलता। शासन के कार्यों की वह तनिक भी परवाह नहीं करता।'
माना कि वाजिद अली विलासपूर्ण जीवन बिता रहा था। उसे शासन की फिक्र नहीं थी। लेकिन शासन के असली सूत्र थे किसके हाथ में? अंग्रेजों के हाथ में। वाजिद अली के एक पूर्वज नवाब सादत अली ने 1801 में अंग्रेजों के साथ एक संधि की थी। संधि क्या थी, कंपनी के हाथ अवध को बेच देना ही था। तब से कंपनी अवध शासन के लिए जिम्मेदार थी।
सैनिक व्यवस्था भी उन्हीं के हाथ में थी। ऐसी परिस्थिति में अवध के नवाब भोग-विलास में अपना गम गलत करने लग जाएं, तो इसमें क्या आश्चर्य? भारत की संपति धीरे-धीरे इंग्लैंड पहुंचने लगी और देश गरीब होने लगा।
सन् 1857 का मुक्ति युद्ध यकायक शुरू नहीं हुआ था। अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय जनता का विद्रोह बहुत पहले से भीतर ही भीतर उबल रहा था। 1857 के 33 साल पहले भारत के गवर्नर जनरल लार्ड मैटकाफ ने लिखा था, 'पूरा भारत हर घड़ी यही मनाया करता है कि हमारा तख्त उलट जाए। हमारे विनाश पर लोग हर जगह खुशियां मनाएंगे और ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो उस घड़ी को नजदीक लाने में अपनी पूरी शक्ति लगा देगें।' अंग्रेजी साम्राज्यवादी इतिहासकार विंसेंट स्मिथ ने भी लिखा है कि 'विद्रोह यद्यपि शुरू में बंगाल की सेना की फौजी बगावत थी, जो चर्बीदार कारतूस से फौरन भड़क उठी थी, मगर वह फौज तक ही सीमित नहीं रही।
असंतोष और बेचैनी आम जनता में व्यापक रूप में फैली और कई जगह आम जनता ने उस स्थान के सिपाहियों से पहले विद्रोह किया।' इन उल्लेखों से साफ जाहिर होता है कि 1857 का मुक्ति-युद्ध हिंदुस्तान की आम जनता का युद्ध था।
जिस साल वाजिद अली शाह अवध की गद्दी पर बैठा, उसी साल (1847) डलहौजी को हार्डिंग के स्थान पर भारत का गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया। अंग्रेजी शासक भारतीय रियासतों को पहले ही काफी कमजोर बना चुके थे। अब डलहौजी ने इन रियासतों को एक के बाद एक करके हड़पना शरू कर दिया। बिठूर में पेशवा बाजीराव का देहांत हो जाने पर उनके गोद लिए बेटे नाना साहब को पेंशन देना, डलहौजी ने स्वीकार नहीं किया। निजाम से विदर्भ ले लिया गया।
झांसी के राजा के मरने के बाद उसके गोद लिए बेटे को गद्दी का हकदार नहीं माना गया। राजाओं के निस्संतान मर जाने पर उनकी रियासतें जब्त कर लेने की डलहौजी ने आम नीति बना ली थी।
अब अवध की बारी थी। अवध को जब्त करने के लिए कारण निकाला गया-वाजिद अली शाह का अयोग्य शासक होना। 1854 में स्लीमैन के स्थान पर आउटरम लखनऊ का रेजिडेंट बनकर आया था। डलहौजी ने वाजिद अली से एक नई संधि कर लेने की योजना बनाई। इस संधि के अनुसार अवध का सारा शासन कंपनी के हाथ में चला जाता। वाजिद अली ने इस संधि पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। परिणाम यह हुआ कि 1856 में अंग्रेजों ने वाजिद अली को कलकत्ता ले जाकर नजरबंद रखा गया। इसी साल फरवरी महीने में डलहौजी के स्थान पर लार्ड केनिंग की नियुक्ति हुई।
सन् 1857 के मार्च महीने में बैरकपुर (कलकत्ता) की अंग्रेज फौज के एक सिपाही मंगल पांडे ने अपने साथियों को धर्मयुद्ध के लिए ललकारा और तीन अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। मंगल पांडे को बाद में फांसी दी गई। मई महीने में मेरठ की पलटन के सिपाहियों ने बलवा कर दिया। मेरठ की मुक्ति-सेना दिल्ली पहुंची। बहादुरशाह और जीनतमहल ने उनका साथ दिया और स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।
इधर अवध और रुहेलखंड में भी विप्लव की आग सुलगी। कानपुर में अंग्रेजों ने किले में शरण ली और नाना ने उन्हें घेर लिया। अंग्रेजों को सिखों की मदद मिलने के कारण इलाहाबाद और बनारस के किले नहीं लिए जा सके। अब लखनऊ की बारी थी। उस समय लखनऊ का चीफ कमिश्नर था-हेनरी लारेंस। कानपुर और अन्य शहरों की वारदातें सुनने पर उसने रेजीडेंसी में सारे अंग्रेज परिवारों का जमाव किया। पहले हम बता चुके हैं कि अवध में स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले सेनानियों में मौलवी अहमदशाह का विशेष योग था। मौलवी को अंग्रेजों ने फांसी की सजा सुनाकर फैजाबाद जेल में बंद कर रखा था। विद्रोहियों ने उसे जेल से मुक्त कराया और अपना नेता बनाया। मौलवी लखनऊ आया और उसने मुक्ति-सेना की बागडोर संभाली।
लखनऊ में जमा होकर विद्रोहियों ने एक और काम किया। उन्हें अवध के लिए एक शासक की जरूरत थी। वाजिद अली को अंग्रेजों ने कलकत्ता में कैद कर लिया था। इसलिए जनता ने वाजिद अली के बेटे बिरजिस कादिर को अपना 'वाली' यानी राजा बनाया और उसे लखनऊ में अवध के तख्त पर बिठाया। बिरजिस कादिर तब केवल ग्यारह साल का था, इसलिए उसकी मां बेगम हजरत महल ने अवध के शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। 7 जुलाई, 1857 से अवध पर बेगम हजरत महल का शासन हुआ।
बेगम हजरत महल कौन थी? हम सिर्फ इतना जानते हैं कि वह वाजिद अली शाह की एक बेगम थी। वह किस कुल की थी, उनका जन्म कहां और कब हुआ था, इसके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिलती। मौलवी अहमदशाह की तरह बेगम हजरत महल का आरंभिक जीवन भी अज्ञात है। एक समकालीन अंग्रेज ने लिखा है, "बेगम हजरत महल पहले एक नर्तकी थी। जो भी हो, बेगम हजरत महल एक नेक और ईमानदार नारी थी। दिल्ली का बादशाह बहादुरशाह जब बूढ़ा हो गया था, तो शासन संभाला था उसकी बेगम हजरत महल ने।
उसी प्रकार वाजिद अली शाह के कलकत्ता में कैद हो जाने पर अपने बेटे के नाम पर अवध का शासन संभाला, बेगम हजरत महल ने। उसने अमीर-उमराव के पद बिना किसी भेदभाव के हिंदू और मुसलमानों में बांट दिए और शासन के मुख्य सूत्र अपने हाथों में रखे। उसने मुक्ति-सेना के लिए अपना खजाना ही नहीं खोला, बल्कि अपने सिपाहियों का संगठन देखने और उनका हौसला बढ़ाने के लिए वह युद्ध के मैदान में भी चली जाती थी।
मुक्ति-सेना ने लखनऊ की रेजीडेंसी को घेर लिया। मौलवी अहमदशाह, बेगम हजरत महल आदि नेता सेना का संचालन कर रहे थे। एक बार तो बेगम हाथी पर चढ़कर रेजिडेंसी को घेरने वाली सेना का संचालन करने आई। हेनरी लारेंस ने रेजिडेंसी के भीतर सभी तैयारियां पहले से ही कर रखी थीं। लखनऊ और आस-पास के सभी अंग्रेज रेजिडेंसी के भीतर चले आए थे। खाद्य-सामग्री और गोला-बारूद भी पर्याप्त मात्रा में जमा था लेकिन तब किसे पता था कि रेजिडेंसी का घेरा पांच महीने तक पड़ा रहेगा।
4 जुलाई को गोली लगने से लारेंस की मृत्यु हुई। उसका उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ-ब्रिगेडियर-जनरल इंग्लिस । रेजिडेंसी के अंग्रेजों ने कमाल के साहस का परिचय दिया। क्रांतिकारियों को सफलता न मिलने का मुख्य कारण, उनमें नियम तथा संचालन की एक-सूत्रता का अभाव था। वरना, एक तोप के गोले से रेजिडेंसी की दीवार में इतना बड़ा छेद पड़ गया था कि सारी सेना भीतर जा सकती थी, किंतु इस अवसर का लाभ नहीं उठाया गया।
अंत में 25 सितंबर को, जनरल आउटरम और हैवलौक की फौजों ने रेजिडेंसी का उद्धार किया, किंतु लखनऊ शहर अभी क्रांतिकारियों के हाथ में ही था। बेगम हजरत महल अभी लखनऊ की अपनी बेगमकोठी में ही थी। रेजिडेंसी कब्जे में नहीं आई तो क्या, अभी बेगम ने हौसला नहीं छोड़ा था। उसने क्रांतिकारियों को इलाहाबाद पर कब्जा करने का आदेश दिया। अगले दिन 25 नवंबर को उसने फौज को जौनपुर और आजमगढ़ पर धावा बोलने का हुकुम दिया।
अंत में जब उसने देखा कि मुक्ति-सेना के कई सरदारों में कुछ शिथिलता आ गई है, तो 22 दिसंबर, 1857 को उनकी एक सभा बुलाई और कहा, "शक्तिशाली दिल्ली से हमें बहुत बड़ी आशाएं थीं। उस नगर से प्राप्त समाचारों से मेरे दिल में खुशी की उमंगे दौड़ती थीं। लेकिन अब बादशाह का तख्ता उलट गया है और उसकी फौज तितर-बितर हो गई है। अंग्रेजों ने सिखों और राजाओं को खरीद लिया है और यातायात के संबंध टूट गए हैं। नाना की पराजय हो गई है, लखनऊ खतरे में है। अब क्या किया जाए? हमारी सारी फौज लखनऊ में है। परंतु सिपाहियों के हौसले पस्त हो गए हैं। वे आलमबाग पर धावा क्यों नहीं बोल देते ? क्या वे अंग्रेजों के मजबूत बनने की और लखनऊ के घेरे जाने की राह देख रहे हैं? निकम्मा बैठने के लिए मैं और कितने दिन तक सिपाहियों को तनख्वाह देती रहूंगी? मुझे अभी जवाब दो। यदि तुम लोग लड़ना नहीं चाहते, तो मैं अपनी जान बचाने के लिए अंग्रेजों के साथ सुलह कर लूंगी।"
सरदारों का जवाब था, "आप घबराइए नहीं। हम लड़ेंगे अवश्य, यदि लड़ेंगे नहीं तो हमें एक-एक करके फांसी पर लटका दिया जाएगा। यह बात हम अच्छी तरह जानते हैं।" मार्च 1858 में कालिन कैंपबेल और आउटरम की सेनाएं, नई भर्ती के साथ पुनः लखनऊ आ पहुंची। 6 से 15 मार्च तक लखनऊ में भयानक युद्ध हुआ। अंत में बेगमकोठी का भी पतन हुआ। 21 मार्च को अंग्रेजों ने लखनऊ पर पूरा अधिकार जमा लिया। बेगम हजरत महल और मौलवी अहमदशाह पहले ही लखनऊ के घेरे के बाहर निकल आए थे। अब उन्होंने बाहर युद्ध जारी रखा। लखनऊ के पतन के बाद नानासाहब, बेगम हजरत महल और अहमदशाह ने अपने साथियों के नाम आदेश निकाला, "खुले मैदान में दुश्मन का सामना मत करो, नदियों के घाटों पर पहरा रखो, दुश्मन की डाक काटो, रसद रोको और चौकियां तोड़ दो। फिरंगी को चैन न लेने दो।"
लखनऊ के पतन के बाद भी बेगम के साथ छह हजार सिपाहियों की फौज थी। उसका बेटा बिरजिस कादिर भी उसके साथ था। इसी बीच मौलवी ने फिर से शाहजहांपुर पर कब्जा कर लिया। कैंपबेल ने उसे घेर लिया तो नानासाहब और बेगम हजरत महल उसको वहां से छुड़ा लाए। बाद में जून के महीने में अवध के एक गद्दार जमींदार ने अहमदशाह को फंसाकर उसकी हत्या कर दी और उसका सिर अंग्रेजों के पास पहुंचा दिया।
एक नवंबर, 1858 को इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणा जारी की और ईस्ट इंडिया कंपनी का अंत करके हिंदुस्तान का शासन अपने हाथ में ले लिया। इस घोषणा में कहा गया था कि कंपनी ने भारत के शासकों के साथ जो संधियां की हैं, उनका आगे भी अक्षरशः पालन किया जाएगा। इस घोषणा में इसी प्रकार की अनेक लुभावनी बातें थीं। हिंदुस्तान के कई राजाओं ने इस घोषणा का स्वागत किया। चाहती तो, अवध की बेगम हजरत महल भी अंग्रेजों के साथ सुलह कर सकती थी। किंतु उसने न केवल इस घोषणा को ठुकरा दिया, बल्कि इस घोषणा की धोखेबाजी से जनता को सावधान करने के लिए ऐलान भी निकाला।
रानी की घोषणा में कहा गया था कि कंपनी ने देशी राजाओं के साथ जो संधियां की हैं, वे रानी विक्टोरिया को मान्य होंगी। किंतु जनता को उसके दावे को समझ लेना चाहिए कि कंपनी ने सारे हिंदुस्तान पर कब्जा कर लिया है। तब रानी की घोषणा में नया क्या है? आगे बेगम ने कहा कि एक-एक करके कंपनी ने भारत के सारे शासकों को पंगु बना दिया है। ऐसी परिस्थिति में कंपनी की करतूतों को मानना ही रानी की घोषणा का अर्थ है, तो पहले की और अब की परिस्थिति में फर्क क्या रहा?
उत्तर प्रदेश का मैदान गुरिल्ला युद्ध के लिए उपयुक्त नहीं था। पीछे से अंग्रेजों की सेना नानासाहब और बेगम हजरत महल को उत्तर की ओर खदेड़ रही थी। उधर अंग्रेजों का दोस्त नेपाल का शासक जंगबहादुर उन्हें नेपाल में घुसने नहीं दे रहा था। 1859 के अप्रैल महीने तक यही स्थिति रही। अंत में, बेगम और उसके बेटे को जंग बहादुर ने नेपाल में आश्रय दिया। वहीं उनका निधन हुआ। आज भी काठमांडू नगर की मुख्य सड़क के किनारे उनकी कब्र है जो उस महान नारी के बलिदान और देशभक्ति की अमरगाथा कह रही है।
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