क्या है जातिगत जनगणना ? भारत मे क्यों जरूरत है जातिगत जनगणना की ? जिसका राहुल गांधी अपने भाषण मे बार बार जिक्र कर रहे हैं sociology

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क्या है जातिगत जनगणना ? भारत मे क्यों जरूरत है जातिगत जनगणना की ? जिसका राहुल गांधी अपने भाषण मे बार बार जिक्र कर रहे हैं sociology



sociology भारत मे कांग्रेस पार्टी जातिगत जनगणना के पक्ष में है. नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी भी बार बार अपने चुनावी भाषण में जातिगत जनगणना का जिक्र किया है राहुल गांधी ने कहा था कि अगर वे सत्ताे में आते हैं, तो जातिगत जनगणना जरूर कराएंगे. आज लोकसभा में भी राहुल गांधी ने इसका मुद्दा उठाया और कहा कि वे इसे हथियार बनाकर भाजपा से लड़ेंगे. आईए  जानते है...


 क्या है जातिगत जनगणना 


जातिगत जनगणना का अर्थ है की जनगणना के दौरान लोगों की जाति का डेटा एकत्र करना है. यह डेटा सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने और जातियों के बीच असमानताओं को खत्म करने में मदद कर सकता है..

हमारे देश में जनगणना संबंधी गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन किए जा रहे हैं. जिनके आधार पर राष्ट्रीय जनसंख्या नीति का निर्माण होता है। भारत में प्रथम जनगणना 971 में हुई थी तथा इससे पूर्व भारत की जनसंख्या के संबंध में कोई स्थिर ज्ञान नहीं था। जनगणना तथा पहचान की राजनीति किस प्रकार सरकार का गठन करने में सहयोग देती है। राजनीतिक घटनाओं ने जनगणना शांख्यिकी के उपयोग उसके प्रति जनता की प्रतिक्रिया को निर्धारित किया। इसी केटा के आधार पर विभिन्न समुदायों एवं धार्मिक समूहों के मध्य तुलना की गई।




हाउजर एवं डंकन के अनुसार 'जनगणना जनसंख्या के आकार क्षेत्रीय वितरण, गठन व एममें परिवर्तन तथा इन परिवर्तनों के घटक, जो कि जन्म मृत्यु क्षेत्रीय गमन एवं सामाजिक गतिशीलता के रूप में जाने जाते हैं, का अध्ययन करते है। जनसंख्या के विधिवत् अध्ययन एवं विश्लेषण के लिए जनगणना का आश्रय लिया जाता है। दोनों एक दूसरे के पूरक एवं अन्योयाक्ति है। एक के बिना दूसरे का अध्ययन व विश्लेषण अपूर्ण होता है। जनगणना एक राजनीतिक कार्य हैं, जिसमें राजनीतिक प्रभावों वाली संवेदनशील सूचना एकत्रित की जाती है। जाति संबंधी जनगणना डेटा में सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को समझने और विभिन्न समुदायों को विभाजनशील बनाने के लिए विश्लेषित करने की अत्यधिक संभावना होती है। 



इस इकाई में जाति की पहचान क जनगणना में जाति की अभिव्यक्ति का प्रभाव, समाजशास्त्र में जाति की अवधारणा पर जनगणना का प्रभाव आदि तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है। जनगणना में जाति और वर्ग के संबंध में नेद कितना कम था, इसको स्पष्ट किया गया है।

भारत में समाजशास्त्र 


जाति व्यवस्था में सामाजिक गतिशीलता पर जनगणना के प्रभाव की चर्चा 


 1871 से 1931 तक जाति, जनगणना की एक महत्त्वपूर्ण परिवर्ती रही है। जाति शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली शब्द कास्टास से हुई है और इसका आशय चार वर्ण वाले श्रेणियों और जातियों अथवा ऐसी विशिष्ट स्थानीय इकाइयों से है जिनसे लोग स्वयं को संबद्ध करके देखते थे। 17वीं और 18वीं शताब्दियों में जाति और वर्ण की लकीर महीन थी। आर्थिक भेद, प्रवास और परिस्थितिक अंतर संभी ने नई जातियों को बनाने अथवा जाति के विघटन और विलयन के माध्यम से लोगों को अपनी जाति की पहुंचान परिवर्तित करने में भूमिका निभाई। मुगल साम्राज्य के विघटन के बाद अस्थिर परिस्थितियों में अनेक आदिवासियों के मुखिया अथवा निम्न जाति वाले लोग अपने-अपने क्षेत्रों में राजा बन गए। 


उन्होंने राजपूत अथवा क्षत्रिय प्रस्थिति का दावा किया और स्वयं के लिए उपयुक्त वंशावलियों के निर्माण के लिए ब्राह्मण पुजारी नियुक्त किए। जातियों की कोई अखिल भारतीय स्थिति नहीं थी और यह स्थिति समय के साथ बदलती थी। उदाहरण के लिए डर्क्स ने यह तर्क दिया कि धर्म और राजनीति का पृथककरण और दक्षिण भारत में क्षत्रियों पर ब्राह्मणों का प्रथागत वर्चास्व उपनिवेशीय काल के कारण पैदा हुआ।

जाति संबंधी जनगणना आँकड़ों के संकलन से भारत में पहचान राज्य-व्यवस्थाओं का उद्भव और समेकन कैसे हुआ

 माइकल फोकॉल्ट का तर्क था कि जाति तथा धर्म जनगणनाओं ने जाति तथा

धार्मिक पहचानों को कठोर बना दिया। अपने आरंभिक और प्रभावी निबंध में, कॉन ने लिखा कि धर्म, भाषा, शिक्षा, जाति, व्यवसाय, आदि के बारे में प्रश्न पूछने से जनगणना संस्कृति को 'वस्तुकृत' करती हैं और उसे संदर्भ से बाहर लाकर भारतीयों को स्वयं के बारे में प्रश्न पूछने के लिए स्थान उपलब्ध कराती है और उनके द्वारा पूछे गए प्रश्न अथवा उनके द्वारा प्रयुक्त परिभाषाएँ वे थीं जिन्हें अंग्रेज शासन के लिए प्रयोग करते थे। अप्पादुरई यह तर्क करते हुए और आगे चले गए कि 'समुदाय की घातक राजनीति वर्तमान में मौजूद तीव्रता के साथ न जाकर आधुनिक देश की तकनीकों के साथ संबंध के लिए जलेगी, विशेषकर उनके लिए जिनका संबंध संख्या से है। पहचान से संबंधित सांख्यिकी महत्त्वपूर्ण बन गई जब समुदायों में संख्याओं के आधार पर सरकार से गारंटियों और लाभ की माँग की। प्रतिवेदन, जिसका अर्थ 'की ओर से' होता है और प्रतिनिधित्वता जिसका अर्थ 'किसी विशेष समुदाय से आने वाला' होता है में दुविधा पैदा हो गई। इसलिए उदाहरण के लिए यह विचार इस आधार पर सुदृढ़ हो गया कि राजपूत केवल किसी राजपूत उम्मीदवार को ही वोट करेंगे, हिंदू किसी हिंदू उम्मीदवार को आदि। यही परिप्रेक्ष्य आज भी राजनीतिक पार्टियों द्वारा टिकट बाँटने के तरीके को नियंत्रित करता है।

संपूर्ण जाति गतिशीलता का श्रेय केवल जनगणना को नहीं दिया जा सकता और जनगणना की गतिशीलता उन रूपों में से केवल एक रूप थी जो सार्वजनिक गतिविधि ने धारण किए। प्रायः जनगणना के आँकड़े, जाति गतिशीलता को पैदा करने वाले न होकर उसी का उत्पाद होते थे। उदाहरण के लिए, मैथिली भाषा आंदोलन के आधार पर, 1901. 1951 और 1961 के बीच मैथिली बोलने वालों की संख्या में काफी परिवर्तन हुआ। कॉनलोन ने नोट किया कि 1901 और 1931 के बीच चित्रपुर के सारस्वतों की शैक्षिक तथा व्यावसायिक प्रस्थिति में परिवर्तन खोजने का उसका प्रयास इस तथ्य पर लड़खड़ा गया
यह समय चित्रपुर के सारस्वतों तथा गौड सारस्वतों के बीच जाति एकीकरण आंदोलन का समय था। गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों के लिए भी आँकड़ों के प्रयोग से यह एक समस्या उत्पन्न हुई कि एकीकरण आंदोलन में भागीदारी स्वयं जाति के भीतर विवाद का विषय थी और इसलिए एकीकृत श्रेणी में सभी सारस्वत नहीं थे। हाल ही में, शर्य कुलकर्णी ने बताया है कि 1981 की जनगणना में जब जनजातियों से मिलते-जुलते नाम वाली अनेक गैर-जनजातियों ने स्वयं को जनजाति घोषित किया तो आरक्षण के संदर्भ में विश्वसनीयता को लेकर समस्या खड़ी हो गई। इसके कारण कुछ जनजातियों की परिवर्तित स्थिति की सही तस्वीर प्राप्त करना कठिन हो गया-जनसंख्या, शहरीकरण और शैक्षिक स्तर बढ़े हुए प्रतीत हुए जबकि वास्तव में, यह गलत घोषणाओं के कारण था।

केवल बड़ी संख्या होने के लाभ से संबंधित विचार ही नहीं बल्कि किसी विशिष्ट प्रस्थिति की घोषणा करने के लाभ संबंधी व्यक्तिगत विचार भी आँकड़ों को प्रभावित करते हैं। हालाँकि जनगणना के विवरण गोपनीय होते हैं और इनका किसी और कार्य के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता, जनगणना की परिस्थितियों और यह तथ्य कि गणनाकार प्रायः कोई स्थानीय शिक्षक या कोई ऐसा ही व्यक्ति होता है (प्रतिवादी को व्यक्तिगत रूप से यदि न भी जानता हो) प्रस्थिति के बारे में बात करने के लिए अवसर बना सकते हैं। यह स्पष्ट रूप से ऐसे आँकड़े होने के विरुद्ध तर्क नहीं हैं बल्कि ऐतिहासिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक ढाँचे में मात्रिक डेटा को सावधानीपूर्वक संदर्भगत करने की आवश्यकता के पक्ष में तर्क है।

जनगणना के उद्देश्यों में परिवर्तन के साथ गतिशीलता का उद्देश्य भी परिवर्तित हो गया। विस्तृत राजनीति घटनाओं ने जनगणना डेटा के उपयोग और उसके प्रति जनता की प्रतिक्रिया दोनों को निर्धारित किया। इसलिए सांप्रदायिक पुरस्कार और विभाजन की संभावना के कारण 1931 और 1941 की जनगणना में हिंदुओं और मुसलमानों के तुलनात्मक आँकड़े एक मुद्दा बन गए: 1951 की जनगणना के दौरान बहुभाषी तालुकों में विभिन्न भाषाओं के बोलने वालों के विघटन की आवश्यकता राज्यों के भाषा आधारित पुनर्गठन के लिए आधार के रूप में महत्त्वपूर्ण हो गई। अंत में 1921 के बाद से, आर्थिक मुद्दों का महत्त्व बढ़ गया। देश के विकास के साथ, जातियों के बीच भेद के संदर्भ में, राष्ट्रों के बीच तुलनात्मक सांख्यिकी महत्त्वपूर्ण हो गई जिसमें शिक्षा, व्यवसाय, शहरीकरण का स्तर आदि के सूचकों के साथ एक राष्ट्र की जनसंख्या के आँकड़ों को दूसरे राष्ट्र के आँकड़ों के विरुद्ध रखा गया। बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि 'राष्ट्र' किसी विशिष्ट समय पर स्वयं को किस प्रकार परिभाषित करता है और इसमें परिवर्तन के साथ पहचान और समृद्धि के सूचकांक भी परिवर्तित होते हैं।

मोटे तौर पर ऐसे तीन क्षेत्र थे जिनमें जनगणना में आरोपित पहचान के आसफस गतिशीलता ने उपनिवेशीकाल के दौरान स्वयं को व्यक्त किया थाः याचिकाओं में उच्च सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त करने की दृष्टि से बदले गए जातियों के नाम होने चाहिए, जाति संबंधित ब्यौरे की आवश्यकता पर प्रश्न सहित प्रश्नों के रूप में संबंध में शिकायतें और तीसरे गणनाकारों पूर्वाग्रहों के बारे में शिकायतें। जनगणना आयुक्तों की प्रतिक्रियाएँ प्रायः बाद वाले दो रूपों के प्रति नकारात्मक होती थी जबकि पहले वाले को उस नियंत्रण के प्रमाण के रूप३ स्वीकृत किया गया जो धर्म और जाति जैसी श्रेणियों का भारतीयों पर था।

उपनिवेशीय शासन के अधिक सुदृढ़ होने के साथ उपनिवेशीय प्रशासकों को निवासी जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए उन्हें जानने और समझने की आवश्यकता थी। 19वीं शताब्दी में प्रजातियों का वर्गीकरण करने के लिए किए गए अनेक अध्ययनों के साथ 'प्रजाति' एक वैज्ञानिक पूर्वाग्रह बन गई। शाही राजपत्रों की श्रृंखला सहित दशवार्षिक जनगणना, मानवजाति वर्णन सर्वेक्षणों, व्यवस्था रिकॉडौँ आदि ने जाति और प्रजाति के कुछ विचारों को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 'निवासी' व्यवहार को समझाने के लिए जाति और धर्म को महत्त्वपूर्ण माना जाता था।



इस देश में प्रशासन की अनेक शाखाओं को होने वाले उस लाभ पर विस्तार से बात करना अनावश्यक है जो विभिन्न जातियों और जनजातियों के घरेलू तथा सामाजिक संबंधों और प्रथाओं के सटीक तथा सुव्यवस्थित रिकॉर्ड से हुआ है। व्यक्तियो के निवासी आचार का संपूर्ण ढाँचा मुख्यतः उस समूह के नियमों द्वारा निर्धारित होता है जिसके वे सवस्य होते हैं। विधि प्रक्रिया, सूखा राहत, सफाई तथा महामारी रोगों से निपटान और लगभग प्रत्येक प्रकार की कार्यकारी गतिविधि और लोगों की प्रथाओं के रिकॉर्ड के विधिक उद्देश्यों के लिए भारत के मानव जाति वर्णन संबंधी सर्वेक्षण अच्छे प्रशासन के लिए उतना ही आवश्यक है जितना भूमि

पर भूकर सर्वेक्षण और उसके किराएदारों के अधिकारों का रिकॉर्ड।



अतः उपनिवेशीय शासकों ने उन्माद को समझाने जिसमें उच्च तथा आर्थिक रूप से अधिक अशीची कों से संबद्ध की भर्ती की मदद के लिए अथवा यह निर्धारित करने के लिए और अग्रसर थे (अपराधी जनजातियों की श्रेणी का निर्माण के नाव सामाजिक रूप से है। सेना में लड़ालू प्रजातियों कौन से समूह अपराध की लिए जाति का प्रयोग किया।




जनगणना में जाति का रिकॉर्ड करना सरल कार्य नहीं था। बाद के जनगणना आयुक्तों ने जाति सारणियों को जनगणना का सबसे कष्टकारी और खर्चीला अंग बताया और प्राप्त किए गए उत्तरों की निरर्थक और संदर्भगत प्रकृति की ओर इशारा किया। फिर भी 1931 तक इसे जनसांख्यिकीय रिकॉर्ड के एक आवश्यक अंश और प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण माना- गया। परिणामस्वरूप एक व्यवस्था प्राप्त हुई जिसने लोगों को वाकि प्रायः अपने अनुभवों के प्रति असत्यवान किंतु भिन्न, परस्पर विशिष्ट और इस प्रकार गणनीय श्रेणियों में बाँट दिया।

1881 में केवल मदास प्रेसीडेंसी में, निवासियों ने 3208 विभिन्न जातियाँ लौटाई जो वर्गीकरण के बाद 309 रह गई।

इस प्रक्रिया को रिसले द्वारा इस प्रकार बताया गयाः


यदि गणना किया गया व्यक्ति बहुप्रचलित जनजाति या जाति का नाम बताता है. सब ठीक है किंतु वह भारत के दूसरे सिरे की किसी अनजानी जाति का हो सकता है, यह किसी बहिरजातीय वर्ग के संप्रदाय या उपजाति का नाम दे सकता है. उसका व्यवसाय या जिस जनपद का यह रहने वाला है। ये विभिन्न विकल्प कमोवेश शिक्षित गणक के हाथों अनेक परिवर्तनों से गुजरते हैं जो इन्हें अपनी भाषा में लिखता है और केंदीय कार्यालय में वेता भाववाचक कार उन्हें अंग्रेजी में लिप्यंतरित करता है। यहाँ पर स्थानीय प्राधिकारियों के साथ छंटाई, संदर्भ और पत्राचार की मेहनतकश और कठिन प्रक्रिया होती है जिसके फलस्वरूप सारणी XIII बनता है जिसमें भारत के निवासियों का जाति, जनजाति, प्रजाति अथवा राष्ट्रीयता के आधार पर वर्गीकरण दिखाया जाता है।



हट्टन ने भी इस तथ्य पर टिप्पणी की है कि गणना की गई जातियों की संख्या 1881 से 1931 तक कम हुई है और यह कि अपनाई गई पद्धतियों यादृच्छिक हो सकती है किंतु उसमें वर्गीकरण की इस प्रणाली अपरिहार्यता को भी दर्ज किया जिसने व्यक्त्तियों से न केवल उनकी उपजाति पूछी गई बल्कि यह भी पूछा गया कि वे उपजातियों की कौन-सी सूची में आते है। पीटर रैडक्लिफ के अनुसार, अन्य बताने वाले विकल्पों के प्रावधान के साथ भी एक पूर्व कोडीकृत अभिगम उत्तरों को संचरित करता है और विकृतियों को उत्पन्न करता है।

इसके अतिरिक्त जनगणना की व्यवस्था में व्यक्ति को दो जातियों अथवा वो धर्म रखने

का अधिकार नहीं था। जहाँ चार्मिक समन्वय देखा गया, यहाँ उसकी 'अशिक्षित और असंस्कृत

लोगों के धर्म के प्राचीन चरित्र' का नाम देकर उपेक्षा कर दी गई। जहाँ 1911 की

जनगणना में हिंदू-मुस्लिम जैसे विभिन्न संप्रदाय दिखाई दिए. 1921 में सिंध के संजोगियों को छोड़कर उन्हें किसी एक संप्रदाय में दोबारा वर्गीकृत किया गया। उसी समय जब जनगणना प्राधिकारियों ने जाति का मानकीकरण किया और उनकी संख्या घटाई तो उन्होंने पूर्णतः वैज्ञानिक विखने के लिए और संपूर्ण सामाजिक क्षेत्र के बारे में बताने के लिए सभी प्रकार की उपजातियों को रिकॉर्ड करने पर भी बल दिया।





जनगणना में जाति के समावेश को लेकर किस प्रकार का विवाद होता है? 


 जनगणना के दौरान, अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों से संबंधित एकत्रित डेटा पर पहले से ही राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। सिंह ने लिखा है कि न्यायालयों विभिन्न समुदायों द्वारा आरक्षण प्राप्त करने के लिए अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का दर्जा लेने हेतु हजारों मामले विचाराधीन हैं। अन्य क्षेत्रों में, हालाँकि, वे उच्च प्रथागत प्रस्थिति का दावा करते हैं। 


कुछ समाजशास्त्रियों का यह भी तर्क है कि नामों की बहुलता तथा संदर्भगत तरीके से उनके प्रयोग के कारण जाति संबंधित डेटा एकत्रित करना कठिन होता है और प्रवास, आधुनिक रोजगार पद्धतियों, अंतर जातीय विवाहों आदि में होने वाले परिवर्तनों के कारण यह समस्या बिगड़ गई है।



आमतौर पर लागत, सामाजिक विवाद में वृद्धि तथा वैज्ञानिक दिखने वाले किंतु वास्तविक रूप से अविश्सनीय डेटा के संदर्भ में राष्ट्र को क्षति होगी। जातिगणना के समर्थक यह तर्क देते हैं कि जाति का माप लेने से मना करना उच्च जाति के हित का राष्ट्रीय या सार्वभौमिक हित के रूप में मौजूद होने का एक उत्तम उदाहरण है। सन् 1948 में भी, जब व्यापक जाति ब्यौरों को छोड़ दिया गया तो कुछ असंतोष फैला था।

जाति जनगणना की मुख्य माँग पिछड़े वर्ग आयोग से आई, जो अपने कार्य के लिए डेटा के अभाव से पीड़ित था। स्वतंत्रता के बाद, 'अन्य पिछड़े वर्ग' शब्द प्रचलित हो गया और इसका आशय उन समूहों से है जो अनुसूचित जाति या जनजाति के नहीं हैं किंतु अब भी उन्हें 'सामाजिक तथा शैक्षिक पिछड़ेपन से ग्रस्त देखा गया। हालाँकि संविधान में 'वर्ग' शब्द का प्रयोग हुआ है, इसका अर्थ सामान्यतः कुछ जातियों के लिए लिया जाता है।



नौकरी और शिक्षा संस्थानों तथा जनकल्याण योजनाओं, छात्रवृत्तियों आदि में आरक्षण को लागू करने के लिए पिछड़े वर्गों की सूचियों की उनके राज्यों के लिए पहचान करने हेतु पिछड़े वर्ग आयोग की आवश्यकता है। जनगणना डेटा के अभाव में, आयोगों ने 1931 की जनगणना से डेटा प्राप्त कर लिए। अनेक ने अपने प्रतिदर्श सर्वेक्षण भी किए हैं. शैक्षिक संस्थानों तथा सरकारी कार्यालयों से डेटा एकत्रित किया है और व्यक्तियों था समूहों से आवेदन माँगे हैं। 



जहाँ अधिकांश गौण डेटा की आवश्यकता पड़ती रहेगी, अद्यतन जनगणना डेटा के साथ कार्य आसान हो जाएगा। यह तर्क दिया जाता है कि नई जातियों को सूची में शामिल करने या पुरानी को सूची से बाहर निकालने के लिए, अन्य पिछड़े वर्गों की नई सूचियाँ तैयार करने में जनगणना डेटा उपयोगी हो सकता है। इस प्रक्रिया के दौरान नुकसान उठाने चाली अल्पसंख्यक जातियों को राजनीतिक समर्थन नहीं था।



जातिगणना के समर्थक इसके योजना में उपयोगी होने का भी दावा करते हैं। पिछड़े वर्गों को लक्ष्य बनाने के लिए व्यक्ति को खंड अथवा जिलास्तरीय डेटा की आवश्यकता होती है क्योंकि यह वह स्तर है जहाँ विद्यालय अथवा प्राथमिक चिकित्सा केंद्र बनाने के निर्णय लिए जाते हैं। हालाँकि इस प्रकार के डेटा और वास्तविक सेवाओं के बीच की कड़ी संदिग्ध है। 



जाई स्थानीय सरकारों की कार्यशैली पर कुछ अध्ययन हुए हैं, उपलब्ध अध्ययन यह बताते हैं कि विद्यालयों के स्थान का निर्धारण आवश्यकता से न होकर सशक्त स्थानीय समूहों द्वारा होता है। उदाहरण के लिए, पी. सैनत ने दर्शाया है कि किस प्रकार उच्च वर्ग यह सुनिश्चित करते है कि ग्राम विद्यालय उनके आवास क्षेत्र में हो क्योंकि वहीं मतदान पर उनके नियंत्रण को सुनिश्चित करता है। इसी प्रकार अनुसूचित जनजातियों पर डेटा उपलब्ध होने के बावजूद जनजातिय क्षेत्रों में सुविधाओं का अभाव यह दर्शाता है कि दोषारोपण डेटा के अभाव पर न होकर अन्य घटकों पर होना चाहिए।

दूसरी और जाति जनगणना डेटा कुछ समूहों के लिए सुविधाओं के व्यवस्थित अभाव के बारे में जब जागरूकता और भत पैदा करने में उपयोगी भूमिका निभा सकता है। जहाँ व्यक्ति को यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी को मूलभूत सेवाएँ मिले, नागरिक की जाति अथवा किसी गाँव की जाति संरचना जानने की आवश्यकता नहीं है वहीं ऐसी स्थिति में जब सरकार ने सार्वभौमिक प्रावधान करने का दावा किया है, यह डेटा उपयोगी हो सकता है। प्रत्येक गाँव में प्राथमिक विद्यालय के होने के बावजूद यदि जनगणना डेटा यह बताता है कि कुछ जातियों को शिक्षा नहीं मिल रही है तो यह चिंता और संभावित गतिशीलता का मुद्दा है।

जहाँ जातिगणना के विरोधी गतिशीलता बढ़ाने और पहचान को अधिक सुदृढ़ करने में इसकी भूमिका पर जोर देते हैं; जातिगणना के समर्थक इसे असमानता और अंततः जाति उन्मूलन को उजागर करके यथास्थिति को चुनौती देने के कदम के रूप में प्रस्तुत करते हैं। 


जहाँ एक ओर जातिगणना के विरोधी अप्रबंधनीय जनप्रतिक्रिया के साथ असमंजस्य दशति है वहीं इसके समर्थक सरकार की और उसके द्वारा डेटा के प्रयोग की भोली और अच्छी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। यदि जनगणना का उद्देश्य जाति उन्मूलन है तो यह प्रस्तुत डेटा के उपयोग से संघ द्वारा नहीं बल्कि जनगतिशीलता द्वारा हो पाएगा। 



केवल गतिशीलता से करने के बजाय व्यक्ति का ध्यान इसके द्वारा लिए गए रूप पर होना चाहिए।

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