Women Of India भारत की नारियां:- रानी लक्ष्मीबाई

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Women Of India भारत की नारियां:- रानी लक्ष्मीबाई

 


रानी लक्ष्मीबाई भारत की उन वीरांगनाओं में से थी जिनका नाम स्वाधीनता और अपनी आन-बान पर मिटने के कारण इतिहास में अमर रहेगा। सन् 1857 का गदर वास्तव में भारत का स्वतंत्रता युद्ध था। उस समय सारे देश में असंतोष की चिंगारियां उड़ रही थीं। इन चिंगारियों को एकत्र कर क्रांति के प्रबल अग्निपुंज का निर्माण करने का काम नाना साहब पेशवा ने किया।

 

 नाना साहब को बाजीराव पेशवा ने गोद लिया था। पर बाजीराव की मृत्यु के बाद गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने बाजीराव को पुश्त दर पुश्त दी गई आठ लाख रुपये की पेंशन नाना साहब को देने से इंकार कर दिया। नाना साहब ने अंग्रेज सरकार के पास अनेक प्रार्थना पत्र भेजे। पर इनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। अब नाना साहब ने अनुभव किया कि अंग्रेज प्रार्थना की भाषा नहीं समझते। वे केवल तलवार की भाषा ही समझते हैं। अतः उन्होंने सारे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संगठन आरंभ किया।



उन्होंने चारों ओर क्रांति के प्रचारक भेजे। ये प्रचारक साधु, भिखारी, यात्री, पंडित, फकीर आदि वेशों में गांव-गांव जाते और क्रांति के लिए लोगों को तैयार करते। साथ ही नाना साहब ने देश के राजाओं और नवाबों के पास पत्र भेजकर शीघ्र आरंभ होने वाली क्रांति में भाग लेने के लिए उन्हें आमंत्रित किया। अंग्रेजी सेना की छावनियों में क्रांति का प्रचार करने का साधन लाल कमल बनाया गया। जब प्रचारक लाल कमल के साथ छावनी पहुंचते तो सिपाहियों में धूम मच जाती। सभी सिपाही हाथ में लाल कमल लेकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का निश्चय प्रकट करते।


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सर्वसाधारण में प्रचार का साधन चपाती बनाई गई। एक गांव का चौकीदार चपाती लेकर दूसरे गांव जाता और वहां के चौकीदार को वह चपाती देता । गांव के लोग एकत्र होकर चपाती ग्रहण करते। चपाती ग्रहण करने का अर्थ थाभावी क्रांति का सैनिक बनना। इस प्रकार देश में क्रांति के लिए अनुकूल वातावरण बनाया गया। 10 मई, 1857 को मेरठ के सैनिकों ने चर्बी लगे कारतूसों का उपयोग करने से इंकार कर क्रांति का शंखनाद किया।



 शीघ्र ही देश के अनेक भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह होने लगे। कुंवरसिंह और अमरसिंह के नेतृत्व में बिहार, बेगम हजरत महल और मौलवी अहमदशाह के नेतृत्व में अवध, खान बहादुर खां और बस्तर खां के नेतृत्व में रुहेलखंड, नाना साहब पेशवा और तात्या टोपे के नेतृत्व में कानपुर, बहादुरशाह तथा जीनतमहल के नेतृत्व में दिल्ली आदि अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए तथा अंग्रेजी सत्ता को समाप्त कर यहां क्रांतिकारी शासन स्थापित किए गए।



झांसी में उस क्रांति का नेतृत्व रानी लक्ष्मीबाई ने जिस वीरता और साहस से किया, वह हमारे स्वातंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। सुभद्राकुमारी चौहान के शब्दों में- सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी। गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी, चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी।



 बुंदेलों हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। महारानी उस युद्ध की प्राण और प्रेरणा थी। शत्रु भी उसकी वीरता और गुणों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते थे। 



सर ह्यू रोज ने रानी की प्रशंसा में अपनी डायरी में लिखा है- 'महारानी का उच्च कुल, आश्रितों और सिपाहियों के प्रति उनकी असीम उदारता और कठिन समय में भी अडिग धीरज उनके इन गुणों ने रानी को हमारा एक अजेय प्रतिद्वंदी बना दिया था। वह शत्रु दल की सबसे बहादुर और सर्वश्रेष्ठ सेनानेत्री थीं।' अंग्रेजों ने तो इस विलक्षण बुद्धि वाली व्यवहार-कुशल चतुर नारी की योग्यता पर अविश्वास कर उससे राजकाज का कार्य अपने अधिकार में ले लिया था, 



पर बाद में इस वीरांगना ने अपनी सूझ-बूझ, कूटनीति और अद्भुत सेना संचालन से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। उनके विषय में लिखा गया है कि वह फ्रांस की जोन आफ आर्क के समान थी। पर उस समय उनके सहयोगियों ने उनकी कद्र न जानी। 



यदि राव साहब आदि उनके नेतृत्व को स्वीकार कर लेते तो आज सन् 57 का युद्ध गदर न कहलाता। वह नारी थी पर युद्ध-नीति में प्रवीण थी, सीने पर गोलियां झेल सकती थी, युद्ध क्षेत्र में सिंहनी की तरह गरजती थी। देश के लिए मरना उसने बचपन से ही सीखा था। कोमल और सुन्दर होते हुए भी उसने वीरों के दांत खट्टे कर दिए थे। अपने रण-कौशल से उन्हें आश्चर्य में डाल दिया था। वह एक पतिव्रता नारी और ममतामयी मां थी। पति के बाद उसने उनके कर्तव्य को प्राण रहते तक निभाया। अपने पुत्र दामोदर राव को युद्ध के मैदान में भी वह अपनी पीठ के पीछे बांधे रही।



वह एक धर्मपरायण नारी थी, पर संकीर्णता उसे छू तक नहीं गई थी। उसकी सेना के मुसलमान, पठान सभी जाति के सैनिक उसके विश्वासपात्र थे। उसके नेतृत्व में हिंदू-मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए। सर एडविन ने इस विषय में लिखा है कि रानी लक्ष्मीबाई हिंदू-मुसलमान सिपाहियों के लिए बहादुर रानी बोडीशिया (इंग्लैंड की लोकप्रिय रानी) थी। पूना में पेशवा का बोलबाला था। इनके यहां कृष्णराव तांबे नामक एक मराठी ब्राह्मण का लड़का बलवंत राव तांबे पेशवा की फौज में एक ऊंचे पद पर अफसर था। उसके पुत्र मोरोपंत के घर हमारी कहानी की नायिका लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।



जब अंग्रेजों ने बाजीराव पेशवा को गद्दी से उतार कर, उसके छोटे भाई चिमाजी को गद्दी पर बिठाकर मनमानी करनी चाही तो स्वाभिमानी चिमाजी मोरापंत को लेकर सपरिवार काशी आ गए। बनारस में ही 16 नवंबर, 1835 को लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। जन्म-कुंडली मिलाकर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि इस कन्या की कुंडली में राजयोग है। लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मनुबाई था। वह अभी चार वर्ष की थी कि उसकी माता भागीरथीबाई का देहांत हो गया। मोरोपंत कन्या को लेकर बाजीराव के पास बिठूर आ गए। मनुबाई बचपन से ही निडर, चंचल और देखने में अति सुंदर थी। दरवार में सबकी प्यारी थी। प्यार से सब उसे छबीली कहते थे। मनुबाई का बचपन पेशवा के दत्तक पुत्र नानासाहब के साथ खेल-कूद में बीता। तीर चलाने, घोड़ा दौड़ाने, तैरने, यहां तक कि पढ़ने-लिखने में भी वह नाना से किसी बात में पीछे न थी। छुटपन से ही वह बड़ी अभिमानी थी। कवि के शब्दों में -




लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार। नकली युद्ध व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे प्रिय खिलवार। मनुबाई दूज के चांद की तरह बढ़ने लगी। सात-आठ वर्ष की उम्र में ही उसकी कद-काठी अच्छी दिखने लगी। इन्हीं दिनों झांसी से दीक्षित नाम के राज ज्योतिषी दरबार में आए। मोरोपंत ने उनसे कन्या के लिए कोई वर बताने को कहा। 




दीक्षित जी मनु की कुंडली से प्रभावित हुए। झांसी लौट कर उन्होंने झांसी के महाराज गंगाधरराव से लड़की की प्रशंसा की। बस महाराज गंगाधरराव मनुबाई को ब्याह कर ले आए। ब्याह के बाद मनुबाई का नाम बदलकर लक्ष्मीबाई पड़ा।



इन दिनों भारत की हालत बड़ी खराब थी। कंपनी बहादुर का चारों ओर बोलबाला था। कुछ रियासतों को छोड़कर सारे हिंदुस्तान की बागडोर कंपनी के हाथ में थी। दिल्ली के बादशाह की हुकूमत कमजोर पड़ गई थी। पंजाब के सिख, बंगाल के नवाब और महाराष्ट्र के पेशवा सभी घुटने टेक चुके थे। कोई न कोई बहाना बनाकर या वारिस न होने पर कंपनी ने कई रियासतें अपनी हुकूमत में कर ली थीं। राज्यों के व्यक्तिगत मामलों, यहां तक कि मिलना-जुलना, शादी-ब्याह और गोद लेने के मामले में भी उन्हें कंपनी की रजामंदी लेनी पड़ती थी। गंगाधरराव भी कंपनी सरकार के हाथों कठपुतली बने हुए थे। उनके राज्य में कंपनी की सेना रहती थी, जिसका खर्च झांसी राज्य को देना पड़ता था।




 पर गंगाधरराव ने ऐसे कठिन समय में भी प्रजा के हित को नहीं भुलाया। राज्य को कर्जे से मुक्त कराया। प्रजा के सुख और सुविधा पर धन खर्च किया। राज्य में अच्छे कर्मचारियों को नियुक्त किया। उनके दरबार में विद्वानों का जमघट लगा रहता था। झांसी के आस-पास के राज्यों में भी महाराज गंगाधरराव की बड़ी प्रतिष्ठा थी।




कुछ निश्चित होकर महाराज लक्ष्मीबाई को लेकर तीर्थयात्रा को निकले। वहां से लौटने पर लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। राज्य भर में दीवाली मनाई गई। गंगाधरराव ने सोचा, अब मेरी झांसी डलहौजी के पंजे में जाने से बच गई, राज्य का वारिस पैदा हो गया। पर भगवान को कुछ और ही मंजूर था। तीन महीने भी पूरे न हो पाए थे, बच्चा चल बसा। अब तो महाराज को चारों ओर अंधेरा दीखने लगा था। वह इस सदमे को सह न सके। उन्होंने खटिया पकड़ ली। मरने से कुछ दिन पूर्व उन्होंने अपने कुल के आनंद राव नामक बालक को शास्त्रानुसार गोद ले लिया। उसका नाम दामोदर राव रखा गया। महाराज ने कंपनी सरकार से प्रार्थना की कि दामोदर राव को झांसी का वारिस स्वीकार किया जाए।



उनकी मृत्यु के बाद 1856 में गवर्नर जनरल का फरमान आया कि महाराज गंगाधरराव द्वारा दत्तक पुत्र लेने को कंपनी नामंजूर करती है और झांसी को लावारिस समझ कर अंग्रेजी राज्य में मिला देने का हुकुम देती है। रानी के लिए पांच हजार रुपये वेतन बांध देने और उसे किला छोड़कर शहर के महल में रहने का हुकुम हुआ। रानी मन ही मन कट कर रह गई। जिस शक्ति के आगे पेशवाओं ने सिर झुका दिया, दिल्ली के बादशाह कठपुतली बनकर रह गए, उसके आगे एक नारी भला क्या कर सकती थी? कंपनी सरकार के दमन चक्र के आगे राजा-प्रजा सभी कराह उठे। जिसने भी सिर उठाने की कोशिश की, उसे कुचल दिया गया। पर दर्द का हद से गुजर जाना दवा हो जाता है। 



सब्र से पीड़ा सहने की जब हद हो गई तो जनता में विस्फोट हुआ। सन् 1857 का स्वाधीनता संग्राम इसी विस्फोट का परिणाम था। यह केवल सिपाही विद्रोह ही नहीं था इसमें राजा, रंक सभी शामिल थे। नाना साहब, तात्या टोपे, बहादुरशाह और रानी लक्ष्मीबाई उस विद्रोह के प्राण थे। मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, बनारस, पटना और बुंदेलखंड इसकी हलचल के केंद्र बने हुए थे। रानी लक्ष्मीबाई वैसे अपना अधिकांश समय पूजा-पाठ में बिताती थी। पर उसने यह निश्चय कर लिया था कि वह अपना शेष जीवन अनाथ विधवा की तरह न बिताकर एक देशभक्त नारी की तरह बिताएगी। इसीलिए वह तलवार चलाने और घुड़सवारी का बराबर अभ्यास करती रही।




4 जून, 1857 को हवलदार गुरबख्शसिंह ने झांसी में विद्रोह का झंडा ऊंचा किया। झांसी की हुकूमत रानी लक्ष्मीबाई को सौंपकर वीरों का यह दल कंपनी सरकार से अधिकार छीन लेने के लिए विद्रोह की चिंगारी फैलाता हुआ आगे बढ़ गया। विद्रोहियों ने उत्तेजित होकर झांसी में हत्याकांड भी किया। पर इसमें रानी का हाथ नहीं था। 




स्वयं मार्टिन नाम के अंग्रेज ने, जो विद्रोहियों से बचकर निकल गया था, रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को लिखा था, 'आपकी माता के साथ बड़ी क्रूरता और अन्याय का बरताव हुआ। उनके संबंध में सच्चा हाल जैसा मैं जानता हूं, वैसा कोई नहीं जानता। 1857 के जून महीने में झांसी में यूरोपियनों का जो वध हुआ, उसमें उन बेचारी का कोई हाथ नहीं था।'



लक्ष्मीबाई उन साहसी महिलाओं में से थी जो हर परिस्थिति में कार्य करने में कुशल होती हैं। उसने बहुत उतार-चढ़ाव देखे थे। एक गरीब ब्राह्मण घर में जन्म लेकर राजरानी बनी। पर किस्मत ने फिर पलटा खाया, पुत्र मर गया, पति भी स्वर्ग सिधार गए। कंपनी सरकार ने सिंहासन अपने अधिकार में कर लिया, पर रानी ने आशा नहीं छोड़ी। वह जागरूक रही। आने वाली परिस्थितियों के अनुकूल अपने को बनाने के लिए प्रयत्नशील रही। जब राज्य की बागडोर संभाली तो सबसे पहले प्रजा के सुख और आराम की ओर ध्यान दिया।




 राज्य की सुरक्षा के लिए सेना का संगठन और बारूद व तोपखाने की सुव्यस्था की गई। वह बड़ी शान और योग्यता के साथ शासन करती थी। एक अंग्रेज टेलर ने इस विषय में लिखा है, 'रानी अपने पद के योग्य धैर्य और निश्चय बुद्धि से काम करती थी।'




उसके भव्य और आकर्षक व्यक्तित्व और वेशभूषा के विषय में गिलीन नामक लेखक ने अपनी पुस्तक में लिखा है, 'रानी की कंचुकी पर सुनहरी जरीदार कमर-पट्टी बंधी रहती थी। उसमें दमिश्क की बनी नक्काशीदार, चांदी मढ़ी पिस्तौल लटकती रहती थी। उसी के पास जहर बुझा पेशकब्ज भी रहता था। साड़ी के बदले वह ढीला पायजामा पहनती थी। इस सुंदर रानी को इस पोशाक में देखकर लोगों को किसी युवक का भ्रम होता था।



रानी को गद्दी पर बैठे अभी केवल कुछ ही दिन हुए थे कि सदाशिव नारायण ने अपने को गद्दी का हकदार बताकर करेरा नामक स्थान पर स्वयं को झांसी का राजा घोषित कर दिया। इस विद्रोह को कुचल कर रानी अभी सांस भी न ले पाई थी कि ओरछा के दीवान नत्थे खां ने बीस हजार सिपाहियों को लेकर झांसी पर हमला कर दिया। पर रानी ने संगठन के बल पर विजय प्राप्त की।




अब तक तो कंपनी सरकार उत्तर भारत में गदर दबाने में लगी हुई थी, उधर से निबटकर जनरल ह्यू रोज आदि सेनापतियों ने सोचा कि जब तक झांसी की रानी को निकाल बाहर न कर दिया जाएगा, मध्य भारत में बलवाइयों को कुचला नहीं जा सकता। कई अंग्रेज अफसरों की तो यह राय थी कि स्वाधीनता संग्राम का गढ़ झांसी है। अतएव सर ह्यू रोज की मातहती में एक बड़ी सेना ने झांसी को आ घेरा।



 अंग्रेजी सेना के कूच का समाचार जान कर अपनी राजधानी की रक्षा करने के लिए रानी ने भी तैयारी शुरू कर दी। झांसी के आस-पास का सारा हिस्सा इसलिए वीरान करवा दिया कि अंग्रेजों की फौज को दाना, पानी और चारा न मिल पाए। पर रानी का उद्देश्य पूरा न हो सका, क्योंकि टीकमगढ़ के राजा और सिंधिया ने कंपनी सरकार की सेना के लिए सभी सुविधाएं जुटा दीं।




इस लड़ाई में रानी ने अपनी फौज की कमान संभाली। किले पर कुल 51 तोपें थीं। उनमें कड़क बिजली, घन गर्जन और भवानी शंकर नाम की तोपों का नाम विशेष उल्लेखनीय है। रानी का विश्वासी तोपची गुलाम गौस खां बहुत बहादुर और दिलेर सिपाही था। सेना में वीर बुंदेले और लड़ाकू अफगानी बहादुर भी थे। रानी रात-रात जागकर चारों ओर की व्यवस्था की देखभाल स्वयं करती थी।




 जब-जब मोर्चे टूटे, रानी ने उन्हें खुद संभाला। खूब घमासान लड़ाई हुई। किले के प्रवेश-द्वार का रक्षक खुदाबख्श और तोपची गौस खां मारे गए। बारूद-घर में एक गोला आ पड़ा तो भयंकर धमाका हुआ। सैंकड़ों बहादुर सिपाही रुई की तरह उड़ गए।




शहर में दुश्मनों की फौज ने मार-काट मचा रखी थी। प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी। रानी ने तात्या टोपे को सहायता के लिए बुलवा तो लिया था, पर अंग्रेजों ने ऐसी कड़ी नाकाबंदी की कि बाहरी सहायता पहुंचनी असंभव हो गई। रानी दोनों हाथ में तलवार लेकर मुंह में रास पकड़ रणचंडी की तरह युद्ध क्षेत्र में कूद पड़ी। बारह दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ। साधन घट जाने पर सरदारों ने रानी को समझाया कि अब लड़ाई रखना असंभव है।





झांसी शत्रुओं के हाथ में छोड़कर जाना होगा, इस विचार से ही रानी को मर्मांतक पीड़ा हुई। उसने विकल होकर अपने सिपाहियों से कहा, "आप लोग अपनी रक्षा के लिए यहां से जा सकते हैं, मैं तो गोला-बारूद के ढेर पर बैठ कर आग लगा लूंगी, पर जीते-जी अपनी झांसी छोड़कर नहीं जाऊंगी।"





अनुभवी सरदारों ने बार-बार समझाया कि स्वाधीनता युद्ध को चालू रखने के लिए रानी का जीवित रहना जरूरी है। रानी ने सोचा अब भविष्य में केवल झांसी के लिए नहीं, पूरे भारत की स्वाधीनता के लिए युद्ध करूंगी। यह निश्चय कर उसने अपने वफादार सैनिकों से विदा ली। दत्तक पुत्र को पीठ से बांधकर, घोड़े पर सवार हो, कुछ विश्वासी रक्षकों के साथ रानी गुप्त मार्ग से किले के बाहर निकल गई। दूसरे दिन बचे हुए सिपाहियों ने वीरता से लड़ते हुए प्राण दे दिए।


अंधेरी रात में भागते-छिपते रानी ने झांसी से 21 मील दूर भांडरे गांव में आकर विश्राम किया। सर ह्यू रोज को जैसे ही यह खबर मिली कि रानी निकल भागी है, उसने कुछ चुने हुए सिपाही उसका पीछा करने के लिए भेजे। जब यह दल भांडरे पहुंचा, रानी उस समय भोजन कर रही थी। ज्यों ही उसकी नजर दूर से आते हुए अंग्रेज घुड़सवारों पर पड़ी, वह खाना-पीना छोड़, बच्चे को पीठ पर बांधकर तुरंत घोड़े पर सवार हो गई। पर भाग निकलने का समय कम था।




 लेफ्टिनेंट वाकर ने रानी का रास्ता रोक लिया। रानी ने तलवार का एक वार उस पर किया । वाकर जमीन पर औंधा आ गिरा। मौका देखकर रानी ने घोड़े को सरपट दौड़ाया। सौ मील घोड़े को सरपट दौड़ाती हुई वह रात के एक बजे कालपी के किले के एक फाटक पर जा पहुंची।



उस समय नानासाहब के भाई राव साहब किले में थे। उन्होंने रानी का स्वागत किया। कालपी का किला सुदृढ़ था। यहां सेना और युद्ध की सामग्री भी काफी थी। कमी केवल इस बात की थी कि वहां कोई संगठनकर्त्ता नहीं था। ऐसी आशा जागी कि रानी के आ जाने से यह कमी भी पूरी हो जाएगी और सबको बड़ी खुशी हुई। फिर तो वहां बांदा के नवाब और बानपुर के राजा भी अपनी-अपनी सेना लेकर सहयोग देने के लिए आ पहुंचे।



रानी संगठन, मोर्चाबंदी और व्यवस्थापूर्ण ढंग से काम करने का महत्व समझती थी। पर राव साहब आदि सहयोगियों ने संस्कारवश एक स्त्री की अधीनता में रहकर काम करना अपनी शान के विरुद्ध समझा। इसका नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों की सेना के साथ कालपी से कुछ दूर जब कोंच नामक स्थान पर सेना की मुठभेड़ हुई तो सही नेतृत्व के अभाव में कालपी की सेना हार कर पीछे हटी। रानी की सलाह फिर अनसुनी कर दी गई। अन्यथा कालपी में ही इस विप्लव का फैसला हो जाता। अगर उस समय तात्या टोपे वहां होते तो वे दोनों मिलकर अंग्रेजों की सेना को ऐसी हार देते कि फिर कभी रानी का मुकाबला करने की हिम्मत शत्रु की न होती।




असहयोग होने पर भी रानी अपने कर्त्तव्य से पीछे नहीं हटी। वह 250 घुड़सवारों को लेकर यमुना की तरफ से रक्षा का भार संभाले रही। पर राव साहब की असंगठित सेना पर जब पीछे से शत्रु सेना ने हमला बोल दिया तो उसके छक्के छूट गए। भगदड़ मच गई । मैदान हाथ से जाता देखकर रानी ने एकदम बिजली की तरह टूट कर तोपखाने पर हमला कर दिया। शत्रु के तोपची घबरा कर भागने लगे। पर नई सेना के आ जाने से शत्रु फिर डट गए। यह देखकर पेशवा की सेना भाग खड़ी हुई।




कालपी छोड़कर राव साहब के साथियों ने ग्वालियर से 46 मील दूर गोपालपुर में आकर आश्रय लिया। तब तक तात्या टोपे भी इस दल में आकर मिल गए। यहां सब मिलकर भी कुछ तय नहीं कर पा रहे थे कि आगे क्या किया जाए, पर बहादुर रानी यहां भी बाजी मार ले गई। उसने कहा, "कालपी का ही भरोसा था, वह हाथ से निकल गई। जब तक युद्ध के लिए सामग्री, सुदृढ़ किलेबंदी की व्यवस्था नहीं हो जाती, अंग्रेजों का मुकाबला करना असंभव है। इस समय हमारे सामने बस एक ही रास्ता है कि ग्वालियर पर कब्जा कर लिया जाए। यद्यपि महाराज जियाजीराव और उसके मंत्री अंग्रेजों के भक्त हैं, पर सेना उनसे विमुख है।"




सबने एकमत होकर ग्वालियर की ओर कूच कर दिया। राव साहब इसी ख्याल में रहे कि पेशवा के अधीन राजा होने के कारण सिंधिया उनका स्वागत करेगा। इसी ख्याल में वे लोग बेखबर थे कि सिंधिया ने अचानक उन पर हमला कर दिया। सेना में भगदड़ मच गई। रानी भला अपनी योजना कैसे विफल होने देती ? वह सिंहनी की तरह तड़प उठी। अपने ढाई सौ सैनिक लेकर उसने सिंधिया के तोपखाने पर हमला बोल दिया। रानी की हिम्मत देखकर युवक जियाजीराव भी तिलमिला उठा।




 दोनों ओर से जमकर लड़ाई हुई। रानी देश की स्वतंत्रता और आन पर मिटने के लिए लड़ रही थी, जबकि जियाजीराव अंग्रेज सरकार से वाहवाही लूटने के लिए। रानी ने दुर्गा का रूप धारण किया, शत्रु की सेना में भगदड़ मच गई और ठीक समय पर दूसरी ओर से तात्या टोपे ने भी हमला कर दिया। सिंधिया दो पाटों के बीच में आकर धौलपुर की ओर भागा और आगे आगरा पहुंच कर अंग्रेजों की सुरक्षा में जाकर उसकी जान में जान आई।




ग्वालियर का किला हाथ में आ गया। नानासाहब को पेशवा घोषित किया गया। सारा किला, सेना तथा खजाने पाकर और अधिकार से मदमत्त होकर सब बेफिक्र हो गए। उत्सव तथा राग-रंग में वे आने वाले खतरे को भूल गए। विजय के रंग में चूर मुखिया यही सोच बैठे कि पूर्ण स्वराज्य मिल गया। रानी यह सब देखती और अफसोस करती रही। उसे दुख था तो इस बात का कि तात्या टोपे जैसे वीर ने भी इन जलसों को नहीं रोका। रानी ने इन सब बातों का विरोध किया, पर घुंघरुओं की छमाछम और सारंगी की तान में इस वीरांगना की शिक्षा, चेतावनी और सलाह नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह अनसुनी रह गई।




इन पंद्रह दिनों में ही अंग्रेजों ने अपनी तैयारी कर ली। सर ह्यू रोज और कर्नल नेपियर के नेतृत्व में अंग्रेजों की सेना ने मुरार पर कब्जा कर लिया। राव साहब के आदमी अभी जलसों की थकावट ही दूर कर रहे थे कि शत्रु सेना ने बेखबर सेना पर हमला बोल दिया। अब सबकी आंखें खुली, पर क्या हो सकता था? जीती हुई बाजी हाथ से निकल चुकी थी। दुर्भाग्य ने चारों ओर से घेर लिया। रानी अपने अरमान और मनसूबों को इस प्रकार मिटते देखकर कलप कर रह गई। तात्या टोपे रानी के पास आकर बोला, "रानी जी, आपका ही भरोसा है। आपकी सूझ-बूझ से मोर्चा-बंदी हो सकेगी।"




रानी बोली, " आप लोग मौका निकल जाने पर जागे हैं। अब तो सांप निकल जाने पर लकीर पीटने वाली बात है। फिर भी आप लोग अपना कर्त्तव्य निभाएं। मैं भी फर्ज अदा करने से पीछे नहीं रहूंगी।" पर मानो दुर्भाग्य हंस रहा था। रस्सी जल गई, पर ऐंठन अभी भी बनी हुई थी। राव साहब को इस बात का बड़ा घमंड था कि वह नाना के वंशज हैं। भला एक स्त्री को सेना के संचालन का भार वह क्यों सौंपने लगे? रानी ने अपनी ओर से पूरी सावधानी बरती। ग्वालियर की ओर आने वाले सभी मार्गों पर सेना की टुकड़ियां तैनात कर दीं। पूर्व की ओर का रक्षा-भार उसने खुद संभाला। मदों का बाना धारण कर सैनिक वेश में वह एक सधे हुए तेज घोड़े पर सवार हुई। अपने विश्वासी अंगरंक्षकों और मंदारा तथा काशी नाम की युद्ध प्रवीण सखियों को साथ लेकर युद्ध-क्षेत्र में उतरी।




17 जून, 1858 को पौ फटते ही आजादी का युद्ध शुरू हुआ। दोनों ओर से रणबांकुरों की तलवारें झनझना उठीं। गोलों की आवाज, मारो-काटो के स्वर, घोड़ों की हिनहिनाहट और रणभेरी से युद्ध क्षेत्र गूंज उठा। प्यासी धरती खून से सिंच गई। महारानी के व्यूह को भेद कर आगे बढ़ना सेनापति सर ह्यू रोज के लिए असंभव हो गया। रानी को वफादार पठान सिपाहियों ने अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए। पर शत्रु की सेना का संचालन बहुत अच्छा था। सहायक सेना के तुरंत पहुंचने से शत्रु नए जोश से आगे बढ़ते । रानी ने जब अपनी सेना को पीछे हटते देखा तो तड़प उठी। हुंकार भर कर खुद आगे बढ़ी। कमजोर पड़े सिपाहियों की हिम्मत बंध गई और उन्होंने जोर से हमला किया। ब्रिगेडियर स्मिथ को दूसरी ओर मुड़ता देखकर रानी ने उसका मार्ग रोक लिया। सूर्यास्त होने को था। रानी को अजेय समझ अंग्रेज पीछे हटे और उस दिन विजय का सेहरा रानी के सिर पर बंधा। पर रानी का प्यारा घोड़ा इस युद्ध में बुरी तरह घायल हो गया।




दूसरे दिन भी घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर के काफी जवान मारे गए। तीसरे दिन सर ह्यू रोज ने जोरदार तैयारी करके हमला किया। रानी की टुकड़ी को छोड़ कर उसने राव साहब की टुकड़ी पर जोरदार चोट की। राव साहब के एक के बाद एक दोनों मोर्चे तोड़ दिए गए। सेना संचालन ढीला होने के कारण सेना-संगठन टूट गया। पेशवा की फौज के पांव उखड़ गए। हिम्मत करके रानी आगे बढ़ी पर अंग्रेजों की फौज ने उसे घेर लिया। दोनों हाथों में तलवार लेकर वह शत्रुओं के बीच रणचंडी की तरह दिखाई पड़ी। उसकी लपलपाती तलवार के आगे जो भी शत्रु आया, उसे यमलोक सिधारते देर नहीं लगी। शत्रु कुछ देर के लिए चकित रह गए। मौका देखकर रानी अपने दस-बारह साथियों के साथ शत्रु के घेरे से बाहर निकल गई। जब कर्नल स्मिथ को पता चला कि रानी घेरे से बाहर निकल गई है तो उसने चुने हुए सवारों की टुकड़ी को उसका पीछा करने के लिए दौड़ाया। 




रानी घोड़े पर भागी जा रही थी। उसके संग उसकी दोनों सहेलियां भी थीं। दोनों ओर से गोलियां दागी जा रही थीं। एक गोली रानी के पांव में भी लगी पर उस वीरांगना ने हिम्मत नहीं छोड़ी। तलवार थामे घोड़ा दौड़ाती ही गई। घोड़े पर पीछे बालक दामोदर राव भी था। इतने पर भी रानी ने शत्रु को पास फटकने नहीं दिया। रानी ने अपने बचाव के लिए एक सिपाही पर प्रहार किया ही था कि उसे अपनी प्रिय सखी की चीख सुनाई पड़ी। रानी ने घूमकर उस अंग्रेज हमलावर का सिर भुट्टे की तरह उड़ा दिया।



 रानी ने फिर घोड़ा आगे दौड़ाया पर शत्रु- पीछा करते चले आ रहे थे। सामने एक नाला था। रानी का सधा हुआ घोड़ा पहले ही दिन युद्ध में घायल हो गया था। यह नया घोड़ा था, अतएव नाले को देखकर अड़ गया। रानी के कुल 5-6 साथी बचे थे। मोर्चा बनाकर वे कुछ देर लड़े। पर पीछे से अंग्रेज सवार ने रानी के सिर पर तलवार से एक वार किया और दूसरा सीने पर। मरते-मरते भी रानी ने उस अंग्रेज सवार को खत्म कर ही दिया। जब दूसरे लोग शत्रुओं को उलझाए रहे, रानी के विश्वासी अंगरक्षक रामचंद्र राव ने रानी का शव पास की कुटिया में रखकर चिता में आग लगा दी।



सुभद्राकुमारी के शब्दों में---

रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी, मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी। अभी उम्र कुल तेईस की थी, नहीं मनुज, अवतारी थी, हमको जीवित करने आई, बन स्वतंत्रता नारी थी, दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी। बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।

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