Women Of India भारत की नारियां:- वीर रानी चेन्नम्मा

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Women Of India भारत की नारियां:- वीर रानी चेन्नम्मा



भारत में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध पहली बड़ी लड़ाई सन् 1857 में हुई। अंग्रेज लोग उसे केवल सिपाही विद्रोह बताते थे। लेकिन भारत के लोग 1857 की लड़ाई को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में याद करते हैं। अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति के नेताओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम सबसे पहले लिया जाता है। वास्तव में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाकर रानी लक्ष्मीबाई ने भारत की वीर नारियों की परंपरा निभाई थी। अब भी बच्चे बड़ी उमंग से गाते हैं- "खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।"

 

 इसी तरह की मर्दानी रानी थी चेन्नम्मा। रानी लक्ष्मीबाई से भी पहले हमारे स्वतंत्रता संग्राम का एक रोमांचक अध्याय लिखा था कित्तूर की वीर रानी चेन्नम्मा ने। उन्नीसवीं शताब्दी में ही अंग्रेजों को नाकों चने चबवाने वाली सर्वप्रथम भारतीय वीरांगना चेन्नम्मा ही थी। भारत की वह सबसे पहली रानी थी जिसने फिरंगियों को मार भगाने के लिए कमर कसी और कित्तूर की रक्षा के लिए अनेक देशभक्तों की सेना को विदेशी अंग्रेजी सरकार के खिलाफ मजबूती से खड़ा किया।



रानी चेन्नम्मा का जन्म सन् 1778 में कित्तूर (कन्नड़) के काकतीय राजवंश में हुआ था। उसके पिता घुलप्पा देसाई और माता पद्मावती ऐसी सुंदर कन्या को पाकर हर्ष से फूले न समाए । चेन्नम्मा शब्द का अर्थ ही है सुंदर कन्या। चेन्नम्मा की पढ़ाई-लिखाई भी राजाओं जैसी ही हुई। वुड़सवारी, शस्त्रास्त्रों का अभ्यास, आखेट आदि युद्ध-कलाएं उसने सीखी थीं। कन्नड़, उर्दू, मराठी और संस्कृत भाषाएं चेन्नम्मा ने पढ़ी थीं ।



चेन्नम्मा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज से हुआ था। पूना से बंगलौर जाने वाली सड़क पर कित्तूर बेलगांव से 5 मील की दूरी पर स्थित है। कित्तूर राज्य में 72 दुर्ग और 358 गांव थे। उन दिनों कित्तूर का यह राज्य एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र भी था। हीरे, जवाहरात के बाजार लगते थे और दूर-दूर से व्यापारी यहां आते थे। 



सुख-समृद्धि से भरपूर कित्तूर उन दिनों शांति की सांस ले रहा था। वहां के राजा अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे और सबके साथ न्याय करते थे। प्रजा आज्ञाकारिणी तथा स्वामिभक्त थी। मल्लसर्ज कित्तूर राज्य के ग्यारहवें शासक थे। वह धीर, गंभीर, साहसी, स्वाभिमानी और कला-प्रेमी राजा थे। उनकी इच्छा कित्तूर को एक अति समृद्ध और संपन्न राज्य बनाने की थी। किंतु पूना के पटवर्धन ने चालाकी और मक्कारी से उन्हें बंदी बना लिया। अंत में बंदी के रूप में ही उनकी मृत्यु हो गई। 



राजा की बड़ी रानी थी-रुद्रम्मा और छोटी थी --- चेन्नम्मा। दोनों रानियों में चेन्नम्मा अत्यंत रूपवती और गुणवती थी। उसने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन उसकी अकाल मृत्यु हो गई। राजा मल्लसर्ज की मृत्यु के बाद चेन्नम्मा ने रुद्रम्मा के पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज को अपना पुत्र माना और उसे अन्य राजकुमारों की तरह राजकाज चलाना सिखाया।



उस समय तक भारत में अंग्रेजी राज्य की जड़ें दूर-दूर तक फैल चुकी थी। जहां-जहां उनका राज्य पहुंचा था, वहां-वहां अंग्रेजों का पूरा आतंक था। कंपनी सरकार के अंग्रेज कर्मचारी भारत में सब जगह अपने राज्य को बढ़ाने की उधेड़-बुन में लगे रहते थे। अतः धारवाड़ के पास के इलाके में कित्तूर के छोटे-से राज्य का स्वतंत्र रहना, उन्हें पसंद नहीं आया। अंग्रेजों की लालची निगाहें कित्तूर राज्य के खजाने और राज्य की धन-दौलत पर लगी हुई थीं।



 अंग्रेज उन दिनों ऐसी रियासतों और राज्यों को हथिया लेने की ताक में रहते थे, जिनका कोई जन्मजात उत्तराधिकारी नहीं होता था। गोद लिए हुए पुत्र को वह सही उत्तराधिकारी नहीं मानते थे। तत्कालीन गवर्नर डलहौजी की यही नीति थी। इसी तरह धीरे-धीरे अंग्रेज लोग भारतीय रियासतों को एक-एक कर निगलते जा रहे थे।



अतः शिवलिंग रुद्रसर्ज की मृत्यु होते ही धारवाड़ के कलेक्टर और राजनीतिक एजेंट थैकरे ने, गोद लिए हुए पुत्र गुरुलिंग मल्लसर्ज को कित्तूर राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और उसी बहाने से कित्तूर के स्वतंत्र राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की भरसक कोशिश करने लगा।



थैकरे ने रानी चेन्नम्मा को भांति-भाति के संदेश भेजे और लालच दिया। मगर अपनी स्वतंत्रता का सौदा करने पर वह राजी नहीं हुई। इसी बीच एक बात और हुई जिससे शीघ्र ही थैकरे को अपना स्वप्न पूरा करने का अवसर मिल गया। वह यह कि कित्तूर के यल्लप शेट्टी और वेंकटराव नामक दो देशद्रोही उनसे मिल गए। 



थैकरे ने उन्हें कित्तूर राज्य का आधा राज्य सौंप देने का लालच दिया। बदले में वे कित्तूर के सभी भेद खोलने और भरसक सहायता देने को तैयार हो गए। यल्लप शेट्टी ने थैकरे को बताया कि जब तक रानी चेन्नम्मा मौजूद है, कंपनी सरकार की दाल नहीं गल सकती।



उधर रानी चेन्नम्मा अंग्रेजों के दांव-पेचों और कूटनीति का सामना करने के उपाय सोचने लगी। उसे निराशा का कोई कारण दिखाई नहीं देता था, क्योंकि यदि कित्तूर में यल्लप शेट्टी और वेंकटराव जैसे देशद्रोही भी निकल आए थे, तो वहां गुरु सिद्दप्पा जैसे कुशल दीवान और बालण्णा, रायण्णा, गजवीर और चेन्नवासप्पा जैसे वीर योद्धा भी थे जिनके रहते कित्तूर के लिए तुरंत कोई खतरा न था।



 रानी ने अपने दीवान से सलाह करके थैकरे को यह सूचना भिजवाई कि 'कित्तूर राज्य एक स्वतंत्र राज्य है और स्वतंत्र ही रहेगा। इसके लिए आवश्यक हुआ तो हम युद्ध भी करेंगे, वरना हमें शांति पसंद है। जिएंगे तो हम आजाद रहकर। गुलाम होने से मौत अच्छी।' यही नारा था, उस देशभक्त रानी का ।




राज्य की जनता के नाम चेन्नम्मा ने यह संदेश दिया कि कंपनी सरकार हमसे कित्तूर राज्य लेना चाहती है, लेकिन जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूंद है, कित्तूर किसी के सामने सिर नहीं झुकाएगा। पराधीन होने से मर जाना अच्छा है, इसलिए राज्य को दासता की जंजीरों से बचाने के लिए मैं अंग्रेजों से युद्ध करूंगी।



कित्तूर की जनता अंग्रेजों की चाल से भली-भांति परिचित थी और तन-मन-धन से अपनी रानी चेन्नम्मा के साथ थी। अवसर देखकर अंग्रेजों ने कित्तूर राज्य के क्षेत्र में अपने सिपाही घुसा दिए। बैंकरे स्वयं बड़ी सेना लेकर कित्तूर जा पहुंचा। ऐसा लगता था कि छोटा-सा राज्य कित्तूर तुरन्त अपनी आजादी खो बैठेगा। किन्तु रानी हिम्मत न हारी। 



उसके राज्य में पहले से ही युद्ध की तैयारियां होने लगी थीं। रानी ने बड़े रण-कौशल के साथ अंग्रेजों से जूझने की योजना बना रखी थी। उसने सेना की कमान बालण्णा, रायण्णा, गजवीर और चेन्नवासप्पा आदि योद्धाओं के हाथों में सौंप दी।




कित्तूर के दुर्ग में बैठी वीरांगना चेन्नम्मा अपने जासूसों से अंग्रेजी सेना की वरावरखोज-खबर लेती रहती। अपने खास जासूस से रानी ने पूछा- "कंपनी की फौज कब तक किले के पास पहुंच रही है?" "वह किसी भी क्षण पहुंच सकती है। थैकरे ने कप्तान ब्लांक और लेफ्टिनेंट डिक्कन को 500 सिपाहियों के साथ कित्तूर के किले का घेरा डालने की आज्ञा दे दी है।"




"यह तो बड़ा शुभ समाचार है" कहकर रानी ने अपने दीवान गुरु सिद्दप्पा को आदेश दिया कि सारी जनता को किले में लेकर फाटक बंद कर दो और आग उगलने के लिए तोपें बुरजों पर तैयार रखो।"




वीर सैनिकों को युद्ध युद्ध के लिए ललकारते हुए रानी चेन्नम्मा ने कहा "कन्नड़ माता के सपूतों ! अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी हम अपनी जन्मभूमि की रक्षा करेंगे।"




भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक खास दिन है-23 सितंबर, 1824। उस दिन कित्तूर के किले पर अंग्रेजों का घेरा पड़ गया और थैकरे ने किले के बाहर से गर्जना की "बीस मिनट में आत्मसमर्पण कर दिया जाए, नहीं तो किला तहस-नहस कर दिया जाएगा।"




इस चेतावनी का किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल चारों तरफ सन्नाटा छा गया। लेकिन तभी अचानक किले का फाटक खुला और मर्दाने वेश में रानी चेन्नम्मा शेरनी की भांति अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ी। उसके पीछे दो हजार देशभक्तों की मजबूत फौज थी। भयानक युद्ध हुआ। कित्तूर के सैनिक अपने प्राण हथेली पर रखकर आए थे। रानी की प्रेरणा ने उनमें गजब की शक्ति भर दी। उनके हमले को अंग्रेज सेना सह न सकी। 




चेन्नम्मा की तलवार ने अंग्रेज सैनिकों को काट-काट कर धरती को लाशों से पाट दिया। थैकरे इसी युद्ध में मारा गया और अंग्रेजी सेना अपने टोप संभालते हुए भाग खड़ी हुई। देशद्रोही यल्लप शेट्टी और वेंकटराव का भी काम तमाम कर दिया। घनघोर युद्ध में अनगिनत अंग्रेज सैनिक मारे गए। बहुत-से सैनिक और गोरे अफसर बंदी बना लिए गए। 




चेन्नम्मा ने अंग्रेज अफसरोंके साथ उदारता का व्यवहार किया और मांफी मांगने पर उन्हें कैद से मुक्त कर दिया। थोड़े दिन में स्वतंत्रता की यह लपट भालप्रभा और कित्तूर के पास के सभी इलाकों में फैल गई और मद्रास तथा मुंबई से अंग्रेजों को बहुत बड़ी कुमुक मंगानी पड़ी। कित्तूर के किले पर अंग्रेजों का दूसरा बड़ा घेरा 3 दिसंबर, 1824 को पड़ा।




 इस बार अंग्रेजी सेना की कमान डीकन के हाथ में थी। अंग्रेजों के पास सेना भी अधिक थी और हथियार भी अधिक थे। लेकिन कित्तूर के देशभक्तों के मनोबल के सम्मुख उसे दुबारा हार माननी पड़ी।




दिसंबर में अंग्रेजों ने पुनः सारी ताकत लगाकर घेरा डाला। कित्तूर की बची-खुची सारी शक्ति इकट्ठी करके रानी चेन्नम्मा ने एक बार फिर अंग्रेजों के आक्रमण का सामना किया और कित्तूर के रणबांकुरों ने अपनी जान की बाजी लगाकर किले की रक्षा की। परंतु अंग्रेजों की सुसज्जित सेना और भारी तोपखाने का मुट्ठी भर स्वाभिमानी देशभक्त भला कब तक सामना करते? यही नहीं, देशद्रोहियों के काले कारनामों ने कित्तूर की रही-सही कमर भी तोड़ दी। रणचंडी रानी चेन्नम्मा बंदी बना ली गई।




 मगर उसने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं की। देश की आजादी के लिए, भारत की आन-बान और सम्मान को ऊंचा रखने के लिए उस वीरांगना ने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। रानी चेन्नम्मा की जीवन ज्योति सदा के लिए बुझ गई। इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम का एक रक्तरंजित अध्याय समाप्त हुआ।



बाद में जब हमारे देशवासियों ने अंग्रेजों के राज्य को हटाने के लिए वर्षों लंबी लड़ाई लड़ी, तब सदैव उन्हें वीर रानी चेन्नम्मा की कुर्बानी देशभक्ति की प्रेरणा देती रही। कर्नाटक में आज भी कित्तूर की रानी चेन्नम्मा की वीर गाथा घर-घर में सुनाई जाती है।

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