Women Of India भारत की नारियां:- रानी भवानी

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Women Of India भारत की नारियां:- रानी भवानी



 Women Of India: औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा और साम्राज्य के कई भाग अलग-अलग नवाबों के अधीन स्वतंत्र हो गए। बंगाल में 1740 तक अलीवर्दी खां ने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था। अलीवर्दी खां तुर्कवासी था। वह भारत आ गया और 1726 में उसने बंगाल में राजसेवा स्वीकार की। वह युद्ध और कूटनीति में कुशल था, अतः शीघ्र ही वह बंगाल में सेनानायक माना जाने लगा। उसने बिहार राज्य पर भी विजय का झंडा फहराया । 



उसने मुगल सरकार की कमजोरी का फायदा उठा कर पटना से मुर्शिदाबाद पर धावा बोल दिया। 1740 में युद्ध हुआ जिसमें उसकी विजय हुई। इस प्रकार वह बंगाल का नवाब बना। बंगाल की राजधानी से धन एकत्रित कर दो करोड़ रुपये मुगल सम्राट को पेश कर, उसने अपना पद स्थाई करवा लिया।



इसी नवाब अलीवर्दी खां के जमाने में रानी भवानी का जीवन आरंभ हुआ। इनका जन्म बंगाल के राजशाही जिले के छातिल नामक ग्राम में एक दरिद्र ब्राह्मण आत्माराम चौधरी के घर 1733 ईसवी में हुआ था। तब राजशाही नवाब के अधीन होते हुए भी एक बड़ी और स्वतंत्र जमींदारी थी। वहां के राजा उदय नारायण थे। 



गरीब पिता की पुत्री का भावी जीवन कैसे बीतने वाला है, इसका पता उस ब्राह्मण को कैसे लगता? फिर भी भविष्य की बातें जानकर ही उसने अपनी पुत्री का नाम भवानी रख दिया और वस्तुतः पुत्री ने भी इस नाम को अपने जीवन में सार्थक कर दिखाया।

 

 नवाब के अधीन तत्कालीन बंगाल में छोटी-बड़ी बहुत-सी जमींदारियां थीं, जहां के शासकों को राजा या महाराजा की उपाधि मिली हुई थी। राजशाही की भांति ही बंगाल में नाटौर की जमींदारी भी उस समय अत्यंत प्रसिद्ध थी। इसकी वार्षिक आय डेढ़ करोड़ रुपये थी, इसी के हिसाब से प्रतिवर्ष नवाब अलीवर्दी खां को राज्य-कर चुकाया जाता था।



 नाटौर राजवंश के संस्थापक राजा रामजीवन तथा रघुनंदन थे। राजा रामजीवन के दत्तक पुत्र रामकांत थे। इन्हीं के साथ भवानी का विवाह बाल्यकाल में संपन्न हुआ। इस प्रकार दरिद्र ब्राह्मण कन्या ने राजवधू बन कर नाटौर के राजमहल में प्रवेश किया।




जब तक राजा रामजीवन राय जीवित रहे, नाटीर राज्य की उत्तरोत्तर उन्नति होती रही। इसका सबसे बड़ा कारण था कि सौभाग्य से राजवंश को 'रायरायां दयाराम' जैसे निपुण और राजभक्त दीवान मिले थे जो अपनी प्रजा के साथ ही नहीं, राजा-रानी के भी अत्यंत शुभचिंतक थे। 1745 ईसवी में राजा रामजीवन की मृत्यु हुई। तब 18 वर्ष के कुमार रामकांत का उनकी पत्नी भवानी को लेकर राज्याभिषेक हुआ। तभी से भवानी, रानी भवानी कहलाई।  Women Of India




बाल्यकाल से ही रानी भवानी सुगुणा तथा धर्मपरायणा थी और उनका यह स्वभाव उनकी उम्र के साथ-साथ विकसित होने लगा। वे नाटौर की राजराजेश्वरी होने पर भी अपनी गरीब प्रजा के दुख को अपना ही दुख मान कर, उनके कल्याण और हित के प्रति सदा उन्मुख रहती थी। उनके इस परम गुण के कारण ही रायरायां दयाराम तथा नवाब अलीवर्दी खां उनकी बहुत कद्र करते थे। प्रजा तो उनके इस परदुखकातर स्वभाव के कारण उन्हें हमेशा सिर-आंखों पर बिठाती थी।



जब रामकांत नाटौर की राजगद्दी पर आरूढ़ हुए, उनकी उम्र और बुद्धि कच्ची ही थी। यही सुंदर अवसर समझ कर दुष्ट एवं स्वार्थी यार-दोस्तों ने आकर इस अल्पबुद्धि राजा के इर्द-गिर्द जमा होना शुरू कर दिया। तभी से रामकांत का आमोद-प्रमोद और कुत्सित व्याभिचार का जीवन आरंभ हो गया। दोस्तों ने दोनों हाथों से रामकांत को लूटना और चापलूसी करके उनसे अपना काम निकालना, अपना प्रथम कर्तव्य समझा। इतने विशाल प्रसाद में रामकांत के सचमुच के हितैषी केवल दो ही व्यक्ति थे, उनकी पत्नी भवानी तथा प्रवीण दीवान रायरायां दयाराम ।



 वृद्ध दयाराम अपने इस नाटौर-जमींदारी को नाटौरेश्वर तथा दुश्मनों से सुरक्षित रखने के अनेक प्रयत्न कर रहे थे, पर उनकी एक भी नहीं चल पा रही थी। रामकांत तो अपना एकमात्र हितैषी अपने चाटुकार दोस्तों को मानते थे। दोस्तों की चाटुकारिता ने उनकी आंखों पर हित-अहित देखने के लिए जगह ही नहीं छोड़ी थी।  Women Of India



पतिपरायण रानी भवानी निरुपाय हो गई और पति रामकांत के मंगल तथा सद्बुद्धि के लिए रात-दिन जयकाली के मंदिर में देवी दुर्गा से प्रार्थना करने लगी। दान-दक्षिणा तथा पूजा-अनुष्ठान बराबर करती रही। नाटौर मामूली जमींदारी तो थी नहीं। राजशाही की जमींदारी के शासक राजा उदय नायारण के मरने पर उसकी गद्दी के उत्तराधिकारी भी नाटौर के शासक ही हुए और जमींदारी उन्हें ही मिल गई। तत्कालीन डेढ़ करोड़ रुपये वार्षिक आय की जमींदारी क्या मामूली हो सकती थी? किंतु रामकांत को इस सबकी चिंता नहीं थी। चिंता थी तो केवल रानी भवानी और दीवान दयाराम को।




एक बार नाटौर का वार्षिक खजाना नवाब अलीवर्दी खां के पास भेजा गया, किंतु डाकुओं ने उसे रास्ते में ही लूट लिया। एक भी पैसा राजधानी मुर्शिदाबाद से महिमापुर नहीं पहुंचा। ऐसे कठिन समय में स्थिति की रक्षा करने के लिए रानी भवानी ने कहा- "नाटौर के राजकोष में धन न रहने पर मैं अपने सारे जेवरों की बिक्री कर नवाब को नाटौर का इस वर्ष का खजाना पेश करूंगी।"  Women Of India




दयाराम को नाटौर की राजलक्ष्मी मां भवानी का यह उद्गार सुनकर बड़ा विस्मय हुआ। चतुर दीवान ने किसी न किसी प्रकार से खजाना जुटाकर नवाब को पेश कर दिया। नाटौर राज्य में दयाराम की उपस्थिति अनेक स्वार्थी लोगों को खटकती थी, क्योंकि दयाराम के कारण उनके स्वार्थ की पूर्ति खुलेआम नहीं हो सकती थी। फलतः इन सबने दयाराम के खिलाफ जाल रचना शुरू कर दिया। 



षड्यंत्र के लिए कोई न कोई कारण चाहिए था। चूंकि रामकांत नाटौर के पहले राजा रामजीवन के दत्तक पुत्र थे, रामजीवन के छोटे भाई विष्णुराम का अयोग्य पुत्र देवकी प्रसाद नाटौर की गद्दी का वास्तविक हकदार बनकर सामने आया। षड्यंत्र में उसने अपनी राह के कांटे दयाराम को ही पहले दूर करना चाहा।




रामकांत तो अभी तक आंखों पर पर्दा डाले दुनिया से बेखबर मौज कर रहे थे। उन्होंने दुष्टों के चंगुल में फंस कर अपने राजभक्त दीवान को नाटौर राज्य से बहिष्कृत कर दिया। इस समाचार से अत्यंत उत्तेजित होकर रानी भवानी ने अपने स्वामी से बहुत अनुनय-विनय की कि दयाराम को वापिस नाटौर बुलाया जाए, किंतु इस बात की ओर रामकांत ने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। अपने श्वसुर के समय के विश्वासी और वृद्ध दीवान का इस प्रकार निष्कासित होना नाटौर राज्य के लिए बुरे दिन का संकेत था, इससे रानी भवानी आशंकित हो गई।  Women Of India




षड्यंत्रकारियों को इतने से ही संतुष्टि नहीं मिली। नाटौर के डेढ़ करोड़ रुपये वार्षिक आय के हिसाब से नवाब को इतने दिनों तक राजस्व दिया जाता रहा। किसी बदमाश ने नवाब को बता दिया कि नाटौर की वास्तविक वार्षिक आय साढ़े चार करोड़ रुपये है। अतः नवाब क्रुद्ध हो गया, नाटौर की राजगद्दी से रामकांत को गद्दीच्युत करने की बात मुर्शिदाबाद स्थित नवाबी महल में सोची जाने लगी। लेकिन इधर रामकांत अपने आमोद-प्रमोद में और अधिक व्यस्त रहने लगे।



नाटौर राजवंश के हितैषी के नाते रायरायां दयाराम ने किसी प्रकार मुर्शिदाबाद पहुंचकर नवाब अलीवर्दी खां को वर्तमान स्थिति से अवगत कराया। नाराज होकर नवाब ने रामकांत को गद्दीच्युत करने के लिए अपनी सेना को नाटौर जाने का हुकुम दिया। हुकुम पाते ही सेना ने नाटौर को घेर लिया। अचानक सेना को देखकर रामकांत की उच्छृंखलता गायब हो गई। उन्होंने स्वयं को नितांत असहाय समझा। 



इस संकटपूर्ण अवस्था में अपना हितैषी कहने के लिए वहां कोई नहीं था। दयाराम जैसे विश्वासी सेवक को खो देने से स्थिति कहां पहुंच गई, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण अब राजा और रानी के सामने था। बाध्य होकर रामकांत ने रानी से परामर्श लेकर राजधानी छोड़कर चले जाना ही उचित समझा।  Women Of India



जिस दिन राज्य का त्याग कर रानी भवानी अंतःपुर से बाहर निकलने वाली थी, उस दिन देवीपक्ष का त्यौहार था। वह दिन उनके लिए अत्यंत महत्व का था। प्रतिवर्ष वे इसी देवीपक्ष में नाटौर की समस्त सधवा स्त्रियों को लाल रगं की साड़ी और बंगाली महिलाओं का सौभाग्य चिन्ह-शंख की चूड़ियां दान करती थीं। अन्य कुमारियों को भी अलंकार वितरण करती थीं। नाटौर की महिलाओं और कुमारियों के साथ ही प्रजा के लिए भी रानी भवानी अन्नपूर्णा मां भवानी थीं।



लेकिन इस वर्ष रानी भवानी इस पारंपरिक उत्सव के दिन ही महल को त्याग कर वन की ओर प्रस्थान कर रही थीं। चलते समय उन्होंने अपनी अंतरंग आत्मीया से कहा, "आज मुझे कोई दुख नहीं, केवल एक बात सोचकर दुख होता है। प्रतिवर्ष देवीपक्ष से आरंभ करके मां दुर्गा की महापूजा के दिन तक मैं सधवाओं को लाल साड़ी और शंख की चूड़ियों से सजा देती थी। ब्राह्मणों से लेकर शूद्रों तक को धन, अन्न, वस्त्र वितरण करती थी। मेरी दुखी प्रजा सारे वर्ष इस उत्सव की बाट जोहती थी। 



आज देवीपक्ष का वही शुभ दिन आया है, किंतु उन सबको उनकी दान-दक्षिणा से वंचित कर हमें जाना पड़ रहा है।" इस प्रकार नाटौर की राजराजेश्वरी, अनाथों की स्नेहमयी, करुणामयी 'मां भवानी' आज स्वयं अति सामान्य प्रजा की भांति नाटौर छोड़कर स्वामी के साथ जाने लगी।  Women Of India

 


खाली गद्दी का दावेदार अब देवकी प्रसाद बन गया। राजा और रानी के राजमहल से निकलते समय देवकी प्रसाद ने आकर रामकांत की नालायकी की निंदा की। पतिपरायण नारी के लिए पति निंदा सुनना धर्म के खिलाफ था। पति चाहे कैसा ही अयोग्य क्यों न हो, भारतीय हिंदू नारी के लिए पति परमेश्वर से बढ़कर है। रानी भवानी भी चलते-चलते क्रुद्ध होकर देवर पर बरस पड़ी, "सारे बंगाल में एक मात्र रामकांत को ही नाटौर के सिंहासन के उपयुक्त व्यक्ति समझकर राजा रामजीवन ने ब्राह्मणों को साक्षी रखकर, सामंत और भू-स्वामियों एवं प्रजामंडली को साक्षी रखकर वरण किया था, और इस नाटौर राजप्रसाद में उन्हें प्रतिष्ठित किया था।"



राजच्युत राजा रामकांत और रानी भवानी अभी जंगलों में ही भटक रहे थे। तब उनकी संन्यासी पलटन के कुछ ब्रह्मचारियों से भेंट हुई। ये संन्यासी कौन थे? तब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था। कलकत्ता में अंग्रेजों ने कंपनी के अधीन राजधानी बना ली थी। वारेन हेस्टिंग्ज तब गवर्नर-जनरल था। बंगाल में नवाबों को इसी ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुशासन में रहना पड़ रहा था। 



बंग देश, प्रचीन हिंदू देश पर मुगलों का शासन ही हिंदुओं के लिए भारी पड़ रहा था और उस पर इन फिरंगियों ने अपना जाल बिछाना शुरू कर दिया था। फलतः संन्यासी, ब्रह्मचारियों ने बंगाल की शस्य श्यामला धरती से मुगल और फिरंगियों को खदेड़ने के लिए नवाब और कंपनी के खिलाफ मोर्चा बांध लिया था। इस संन्यासी फौज से कंपनी सरकार भी परेशान थी।  Women Of India



ये संन्यासी फौजी आज के गोरिल्लाओं की तरह दुश्मनों पर टूट पड़ते थे। जब नाटौर राजा के पदच्युत किए जाने की खबर उन्हें मिली तो वे नवाब को मजा चखाने की ताक में थे। अतः जब रानी भवानी और राजा रामकांत की जंगल में इनके नेताओं से भेंट हुई तो इन संन्यासियों ने नाटौर राजा की सहायता करने की इच्छा प्रकट की।



 सेनापति संन्यासी नाटौर में नवाबी फौज पर आक्रमण करने के लिए आज्ञा मांगने लगा तो रानी भवानी ने ऐसा करना उचित नहीं समझा। रानी भवानी जब अड़ गई तो उन्हें संन्यासी सेनापति ने कुल की मर्यादा की रक्षा करने की चेतावनी दी। तब रानी भवानी बाघिनी की तरह गरजते हुए बोली, "अर्धबंग की अधीश्वरी रानी भवानी को अपनी मर्यादा की किस प्रकार रक्षा करनी चाहिए, यह वह जानती है।"



अपने प्रयास पर पानी फेर दिए जाने पर संन्यासी फौज ने क्रुद्ध होकर रानी भवानी और रामकांत को बंदी बनाना चाहा। लेकिन रानी भवानी संन्यासियों को ललकारते हुए बोली- "आओ संन्यासी, अपने समस्त साथियों को लेकर आगे बढ़ो। यदि मैं बंगेश्वरी रानी भवानी हूं, यदि अर्धबंग की क्षुधित प्रजा नित्य आकुल कंठ से मुझे 'जननी भवानी' कहती है, यदि उनका यह आह्वान सत्य है, यदि नाटौर की जाग्रत विग्रह माता जयकाली के पुण्य आशीर्वाद से सत्य फल मिलता है, तो तुम आगे बढ़ो। मैं रमणी हूं, अबला हूं, अस्त्रहीना हूं, फिर भी देखूंगी-तुम्हारे शौर्य को, तुम्हारे पराक्रम को, आओ आगे बढ़ो।"  Women Of India



नाटौर की रानी आज साक्षात भवानी के रूप में संन्यासी फौज के सामने खड़ी थी। संन्यासी सेनापति ने कितना समझाया कि 'रानी भवानी उसकी सहायता से नाटौर राजप्रसाद में पुनः प्रवेश कर सकती हैं। इतनी गरिमामयी राज्यांतःपुरिका असूर्यम्पश्या महारानी को यों भिखारिणी की तरह जंगल-जंगल भटकना नहीं चाहिए।' लेकिन रानी भवानी को उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं था। वह खून-खराबा नहीं चाहती थीं बल्कि संन्यासियों को अस्त्र-धारण करने के लिए धिक्कारते हुए वे बोली- "हिंदू अपना शास्त्र भूल गए हैं। 



उन्होंने अपने आचार धर्म, दर्शन, सबको विसर्जित कर दिया है। हिंदुओं के वेद मंत्र आज नीरव हैं, हिंदुओं के यज्ञस्थल की होमाग्नि आज ठंडी पड़ी हैं। मुमुर्पू हिंदू को बचाना होगा-ज्ञान में, विज्ञान में, स्वधर्म में उसे फिर प्रतिष्ठित करना होगा। हिंदू पथभ्रष्ट और मर्यादाच्युत हो गए हैं, उन्हें सही मार्ग पर लाना होगा। जो संन्यासी इस धर्माचरण को विसर्जित कर क्रोध रूपी चांडाल के बहकावे में अस्त्र-धारण करता है, मैं उसकी सहायता से नाटौर तो क्या, विश्व का साम्राज्य भी यदि मिलने वाला हो तो नहीं चाहती।"



रानी भवानी अपने पति के साथ वन-प्रांत से गुजरते हुए पैदल ही आगे बढ़ रही थीं। पतिव्रता रानी भवानी, जो कभी राजप्रसाद के प्रांगण से एक कदम भी बाहर नहीं निकली थी, जिनकी सेवा के लिए सैंकड़ों परिचारिकाएं उनके अतःपुर में मौजूद रहती थीं, आज जंगल तथा बीहड़ पथ से होकर पति के पीछे-पीछे चल रही थी। यह देख रामकांत पत्नी के प्रति करुणामय हो उठे,



 "इस पखवाड़े में तुम मेरे साथ वन-वनांतर भ्रमण करती रही हो, कभी अर्घाशन में और कभी अनशन में सहस्र जनता के महोत्सव से मुखर राजधानी में एक दिन मंगल-ध्वनियों से तुम्हारा राजलक्ष्मी के रूप में वरण किया था और आज वन के कांटे तुम्हारे पावों में बिंध गए हैं। एक दिन जो नाटौर की अधीश्वरी थी, वह आज दीनहीना भिखारिणी के वेश में....."



भवानी को पति के इस स्नेह वचन से भारत की प्राचीन गौरव-गाथा स्मरण हो आई और वह बोल पड़ीं, "जिस देश में रघुकुल लक्ष्मी वैदेही ने एक दिन भगवान श्रीरामचंद्र के साथ राज्य त्यागकर वनवास को ही स्वर्ग के राज्य के समान स्वीकार किया था, मैं भी तो उसी देश की कन्या हूं, उसी देश की वधू हूं। स्वामी के पार्श्व में वनवास के ये दिन मेरे सर्वोपरि गौरवपूर्ण अध्याय होंगे।"  Women Of India

 


इस बीच (9 अप्रैल, 1756 ईसवी) में नवाब अलीवर्दी खां की मृत्यु हो चुकी थी। उसका 24 वर्षीय पोता सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बनकर मुर्शिदाबाद की राजगद्दी पर विराजमान हुआ और प्लासी युद्ध के नौ दिन बाद 2 जुलाई, 1757 ईसवी को मारा गया। अब मीर जाफर बंगाल का नवाब बना। नाटौर के दीवान दयाराम भी इस समय मुर्शिदाबाद में ही थे। 



इधर उन्हें नाटौर का समाचार मिला कि नाटौर राज्य पर बड़ी मुसीबत टूट पड़ी है, नाटौर के नवीन शासक देवकीप्रसाद के षड्यंत्र से नाटौरेश्वर रामकांत और रानी भवानी ने देश त्याग दिया है। देवकीप्रसाद के निर्मम अत्याचार से नाटौर की प्रजा संत्रस्त है। नाटौर की इस मुसीबत के लिए नवाब मीर जाफर ही उत्तरदायी है।



 मुर्शिदाबाद की नवाबी फौज देवकीप्रसाद को सिंहासन पर बिठाने के लिए नाटौर गई थी, लेकिन नवाबी फौज को उसके लिए किसी प्रकार का युद्ध विग्रह करने की जरूरत नहीं पड़ी। राजा रामकांत और रानी भवानी बिना रक्तपात के ही सिंहासन त्यागकर चले गए।




 यहां तक कि आनंदमठ की विद्रोही संन्यासी सेनाओं ने रामकांत की सहायता करनी चाही, किंतु रानी भवानी और राजा रामकांत देवकीप्रसाद को निःशब्द सिंहासन देकर और संन्यासियों को निरस्त्र कर चले गए। देवकीप्रसाद ने नवाब के सामने जाली दस्तावेज पेश कर नवाब को अपनी तरफ कर लिया।  Women Of India



यह सुनकर दयाराम के मन को बड़ी चोट लगी। अपने परिश्रम और बुद्धिबल से शत्रुओं के समस्त षड्यंत्रों को खत्म कर दयाराम नाटौर का भार लेकर राजा और रानी को खोजने लगे। उन्हें पता नहीं था कि राजा और रानी मुर्शिदाबाद में ही दरबार के जगतसेठ महताबराय के आश्रम में आ पहुंचे हैं।



 अंत में अनेक कष्ट सहकर दयाराम ने रामकांत को नाटौर राज्य वापिस दिलवा दिया। इस बार रामकांत ने राज्य संचालक का भार रानी भवानी और दीवान दयाराम के ऊपर छोड़ दिया और स्वयं निश्चित मन से सदाचार वृत्ति में दिन बिताने लगे।



अब बंगाल में मीर जाफर खां की नवाबी चल रही थी। उसी समय मराठा सैनिकों ने बंगाल पर हमला किया, नाटौर भी इसका शिकार हुआ। मराठों की गोली से आहत हो रामकांत की 1766 में ही अकाल मृत्यु हो गई। रामकांत की एक-मात्र कन्या तारा सुंदरी थी । खाजुरा के जमींदार, रघुनंदन लाहिड़ी के साथ तारा सुंदरी का विवाह हुआ, किंतु विधि का विधान-असमय ही तारा सुंदरी के पति की भी मृत्यु हो गई। रानी भवानी की सब आशाएं खत्म हो गईं। अब वह अपनी बुद्धि और कौशल से राजकार्य चलाने लगी। 




किंतु नवाबों की शक्ति से टक्कर लेने के लिए तथा नाटौर की गद्दी के लिए एक उत्तराधिकारी की जरूरत थी। बाध्य होकर रानी ने एक चरित्रवान युवक रामकृष्ण को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया। उसे राज्य का समस्त भार सौंप कर स्वयं काशीवास करने चली गई।  Women Of India


पति की मृत्यु के बाद तीन वर्ष तक वह काशी में गंगा तट पर ही रहीं। वहां उन्होंने अन्नपूर्णा मंदिर, दुर्गाबाड़ी, गोपाल मंदिर और तारा मंदिर का निर्माण कराया। घाट तथा पथ का निर्माण भी कराया। पथ के दोनों ओर पथिकों के सूर्यताप से बचने के लिए पेड़ लगवाए। किंतु रानी भवानी के बिना नाटौर सूना था, प्रजा दुखी थी। मजबूर होकर वह फिर अपने राजमहल में लौट आईं। नारी जाति की संपूर्ण श्रेष्ठता को लेकर वह जीवन व्यतीत करने लगीं।



उन्होंने बंगाल में नवाब मीर कासिम के जमाने को भी देखा। भीतर ही भीतर नवाबी हुकूमत के असंतुष्ट रहने पर भी रानी भवानी की कार्य-कुशलता और गरिमामय व्यक्तित्व के सामने नवाब भी दंग रह जाते थे। उनके जीवन काल में फिर नाटौर में किसी प्रकार की कोई विपत्ति नहीं आई। 1810 ईसवी में 79 वर्ष की परिपक्व आयु में इस पुण्यवती रानी भवानी का देहावसान हुआ।  Women Of India


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