women of india भारत की नारियां:- ताराबाई

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women of india भारत की नारियां:- ताराबाई



ताराबाई मराठों की एक मशहूर रानी थी। महाराष्ट्र में स्वराज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी के बारे में सभी को थोड़ी-बहुत जानकारी होगी। शिवाजी की मृत्यु 1680 ईसवी में हुई। उनके दो पुत्र थे बड़ा संभाजी और छोटा राजाराम। संभाजी नालायक निकला। शिवाजी ने उसे सुधारने की बहुत कोशिश की थी। संभाजी से राजाराम अधिक बुद्धिमान था। किंतु परंपरा के अनुसार शिवाजी की गद्दी का संभाजी ही हकदार बना

 

 बाद में औरंगज़ेब ने संभाजी को पकड़कर बंदी बना लिया और खूब यातनाएं देकर मार डाला। संभाजी का एकमात्र पुत्र शाहू गद्दी का हकदार बना, किंतु वह भी एक लंबे अर्से तक औरगंजेब की कैद में रहा। इस बीच शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम ने शाहू का प्रतिनिधि बनकर शासन की बागडोर संभाली। ताराबाई इसी राजाराम की पत्नी अर्थात शिवाजी की पुत्रवधू थी।



शिवाजी की मृत्यु के समय ताराबाई मुश्किल से पांच साल की बालिका रही होगी। ताराबाई ने खूब लंबी आयु पाई। वह 86 साल तक जीवित रही। लगभग 75 साल तक ताराबाई मराठों के शासन में सक्रिय भाग लेती रही। यह भी कहा जा सकता है कि इस काल का मराठों का सारा इतिहास ताराबाई के इर्द-गिर्द घूमता रहा। 


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इस दीर्घकाल में कभी उसने सीधे शासन किया, तो कभी दूसरों को नाममात्र के लिए गद्दी पर बिठा कर शासन के सूत्र स्वयं अपने हाथ में रखे। अतः ताराबाई का परिचय प्राप्त करने का अर्थ है---मराठों का लगभग सत्तर-अस्सी साल का इतिहास जानना।



हंसाजी मोहिते को शिवाजी ने 1674 ईसवी में अपना सेनापति नियुक्त किया और उन्हें सम्मानपूर्वक हम्बीर राव की पदवी प्रदान की। हम्बीर राव सतारा जिले के तलबिद गांव के निवासी थे। ताराबाई इन्हीं सेनापति हम्बीर राव की पुत्री थी। ताराबाई का जन्म 1675 ईसवी में हुआ और उनके जन्म का नाम सीताबाई था।



राजाराम का पहला ब्याह शिवाजी अपने हाथों ही कर चुके थे। शिवाजी की मृत्यु के बाद ज्येष्ठ पुत्र संभाजी ने अपने छोटे भाई राजाराम और उसकी मां सोयराबाई को रायगढ़ के किले में कैदी बना कर रखा था। कुछ दिनों बाद राजाराम की पहली पत्नी मर गई और सोयराबाई को संभाजी ने मरवा डाला। इसके बाद संभाजी ने सेनापति हम्बीर राव मोहिते की पुत्री सीताबाई का राजाराम के साथ ब्याह रचा दिया। 



महाराष्ट्र में विवाह के बाद लड़की को एक नया नाम देने की परंपरा है। ससुराल में सीताबाई को नया नाम ताराबाई मिला। ब्याह के समय ताराबाई की उम्र मुश्किल से सात साल की रही होगी और राजाराम की तेरह साल की। राजाराम के साथ ताराबाई का ब्याह रायगढ़ के कारावास में हुआ था। व्याह के बाद ताराबाई भी बंदी बन गई। कल्पना की जा सकती है कि सात साल की बालिका पर इस परिस्थिति का क्या प्रभाव पड़ा होगा।



संभाजी को बंदी बनाने के बाद औरंगज़ेब ने उसे 1689 ईसवी में मरवा डाला। संभाजी की पत्नी येसुबाई और पुत्र शाहू औरगंजेब की कैद में रह गए। अब गद्दी कौन संभालता ? गद्दी के लिए निकट का हकदार संभाजी का छोटा भाई राजाराम था। लेकिन असली हकदार शाहू अभी जीवित था, इसलिए राजाराम ने शाहू के प्रतिनिधि के रूप में शासन संभाला। किंतु राजाराम के लिए शासन का कार्यभार फूलों की सेज नहीं था। औरंगजेब दक्षिण में था और मराठों को मिटा देने की कसम खा चुका था। 




1689 में औरगंजेब की सेना ने रायगढ़ को घेर लिया, तो राजाराम को अपने परिवार सहित प्रतापगढ़ के किले में शरण लेनी पड़ी। वह प्रतापगढ़ से पन्हाला आया। अंत में राजाराम अपने परिवार को पीछे महाराष्ट्र में छोड़कर अपने कुछ चुने हुए साथियों के साथ जिंजी (मद्रास से साठ मील दूर) चला गया। वहां उसने दरबार स्थापित किया और वहीं से महाराष्ट्र का शासन संभालना शुरू किया।




ताराबाई के अलावा राजाराम की दो और रानियां थीं। दूसरी रानी का नाम था राजसबाई और तीसरी का अबिंकाबाई। इनके अलावा राजाराम की सगुणाबाई नाम की एक रखैल भी थी, जिससे उसे कर्ण नाम का एक खूबसूरत बेटा पैदा हुआ था। राजाराम का कर्ण से बहुत प्रेम था, परंतु एक रखैल का बेटा गद्दी का हकदार नहीं बन सकता था। 



तीनों रानियों में से किसी को भी अभी राजाराम से पुत्र नहीं हुआ था। जिसके भी पहले पुत्र होता, वही राजाराम का वारिस होता। इसलिए तीनों रानियों का पुत्र-प्राप्ति के लिए लालायित होना स्वाभाविक बात थी। लेकिन राजाराम उधर जिंजी में था और उसकी तीनों रानियां इधर विशालगढ़ के किले में।




अंत में 1694 में बड़ी कठिनाइयों से राजा की इन रानियों को जिंजी पहुंचाया गया। जिंजी पहुंचने के दो साल बाद ताराबाई को राजाराम से एक पुत्र पैदा हुआ। राजाराम के इस पहले पुत्र का नाम रखा गया-शिवाजी। इसके दो साल बाद ताराबाई की सौत-राजसबाई को भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम रखा गाया संभाजी। तीसरी पत्नी अंबिकाबाई को पुत्री हुई थी, जो बचपन में ही मर गई।




ताराबाई के बारे में बताया जाता है कि वह बहुत खूबसूरत थी। उसकी खूबसूरती के कारण उसे तारा नाम दिया गया। किंतु ताराबाई का स्वाभाव और व्यवहार पुरुषोचित्त था। पति के पास जिंजी पहुंचने पर ताराबाई ने धीरे-धीरे राजकाज में दखल देना शुरू कर दिया। राजाराम भी उससे भय खाता था। एक मुसलमान इतिहासकार ने ताराबाई के बारे में लिखा है, 'ताराबाई एक चतुर एवं बुद्धिमान स्त्री थी। 



पति के जीवन काल में ही उसने शासन तथा सैन्य व्यवस्था के बारे में अपने ज्ञान का परिचय देकर ख्याति अर्जित कर ली थी।' उसी समय का एक मराठी उल्लेख है 'राजाराम जब तंजाबूर में लड़ रहे थे तो ताराबाई ने महाराष्ट्र पर एक रानी की तरह हुकूमत चलाई। पति के जीवित रहते ही इसने रामचंद्र पंत (जिन्हें राजाराम ने महाराष्ट्र पर शासन करने के सारे अधिकार सौंपे थे) जैसे व्यक्ति पर अपना रोब जमा लिया। वह शिवाजी की सच्ची पुत्रवधू है।'




मुगल सेना ने जिंजी पर अक्रमण किया तो राजाराम को भाग कर सतारा में शरण लेनी पड़ी। ताराबाई और उसकी सौतें मुगल सेना के हाथ पड़ गई थीं, परन्तु बाद में उन्हें छोड़ दिया गया और वे भी सतारा पहुंच गईं। लेकिन राजाराम अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहे। केवल तीस साल की अल्पायु में 1700 ईसवी में राजाराम की सिंहगढ़ में मृत्यु हुई। इस समय ताराबाई पच्चीस साल की थी।




उस समय सती होने की प्रथा थी। ताराबाई राजाराम के ज्येष्ठ पुत्र की मां थी। राजसबाई भी एक पुत्र की मां थी। राजाराम की ये दोनों रानियां अपने-अपने पुत्र के हित के लिए जीवित रहना चाहती थीं। तीसरी पत्नी अंबिकाबाई राजाराम के साथ सती हुई।



राजाराम की मृत्यु के बाद अब मराठों के इतिहास में ताराबाई की असली भूमिका आरंभ होती है। गद्दी का असली हकदार शाहू, औरगंजेब की कैद में था। राजाराम ने राजा की हैसियत से नहीं, बल्कि शाहू के प्रतिनिधि के तौर पर शासन किया था। किंतु अब राजाराम की मृत्यु के बाद, नया शासक चुनने की समस्या बहुत पेचीदी थी। ताराबाई को शासन का चस्का लग चुका था। मराठा सरदारों को उसने अपनी तरफ खींच लिया था। 



रामचंद्र पंत पर भी उसने अपना प्रभाव जमा लिया। ताराबाई चाहती थी कि उसका पुत्र शिवाजी, जो केवल चार साल का अबोध बालक था, गद्दी का हकदार बने और वह स्वयं अपने पुत्र की ओर से शासन करे।




शाहू मुगलों की कैद में विलासी जीवन बिता रहा है, वह मुगलों का पिट्टू बन गया है, आदि-आदि बातों को उभारकर ताराबाई ने साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाते हुए अपने पुत्र को राजगद्दी पर बिठाया। शिवाजी का बाकायदा राज्याभिषेक हुआ और शासन की बागडोर ताराबाई ने अपने हाथ में ले ली। मराठा सरदार अपनी शपथ पर कायम रहते थे। ताराबाई ने प्रमुख मराठा सरदारों को वफादारी के लिए दूध-भात की सबसे कड़ी शपथ लेने के लिए मजबूर किया।



इसके बाद लगातार सात साल तक ताराबाई ने महाराष्ट्र पर शासन किया। उसने औरंगजेब के छक्के छुड़ा दिए और मुगलों के सामने कभी सिर नहीं झुकाया। ताराबाई के जीवन के ये सात साल वास्तव में स्वर्णाक्षरों में लिखने लायक हैं लेकिन उसके बाद के कारनामों ने उसके इस सुकार्य को धूमिल बना दिया है। ताराबाई को शासन का लोभ न होता और वह शाहू को शासन सौंप देती तो निस्संदेह मराठों के इतिहास में वह बहुत गौरवशाली स्थान पाती।



एक इतिहासकार ने ताराबाई के इस काल के बारे में सच ही लिखा है कि, 'एक बाघिनी की तरह-मराठों की वह रानी एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव, एक किले से दूसरे किले तक दौड़ती, सैनिकों की कठिनाइयों की सहभागिनी बनती हुई, चिलचिलाती धूप को सहती, जमीन पर सोती । ताराबाई का व्यक्तित्व इतना बहुमुखी था कि वह हर स्थान और हर मौके पर हाजिर दिखाई देती थी, अपने अफसरों का जोश बढ़ाती, विस्तृत सीमा में आक्रमण करने की योजनाएं बनाती। 



उसकी दृष्टि इतनी पैनी और निर्णय इतने अचूक होते थे कि युद्धक्षेत्र तथा दरबार, दोनों जगहों पर कुशल योद्धा तथा अनुभवी राजनितिज्ञ उसका स्वागत करते थे। अल्पकाल में ही मराठों के आक्रमण ने, जो शुरू में कमजोर और निरुपयोगी साबित हुआ, इतना अधिक जोर पकड़ा कि इससे मुगल साम्राज्य का दिल धड़कने लगा।



1707 ईसवी में ही औरगंजेब की मृत्यु हुई। इसके बाद औरगंजेब के दूसरे पुत्र आज़म ने शाहू को मुक्त कर दिया। शाहू 18 साल मुगलों की कैद में था। असल में शाहू ही गद्दी का असली हकदार था। अब जब उसे मुगलों की कैद से छुट्टी मिली तो उसका अपने हक के लिए लड़ना स्वाभाविक बात थी। शाहू ने मुगलों के साथ सुलह करके और उनकी अधीनता स्वीकार करके मुक्ति पाई थी।



 इधर पिछले सात साल से ताराबाई मुगल सेना के साथ लड़ती रही थी और अब वह अपने पुत्र को गद्दी पर बिठा चुकी थी। शाहू अपना हक वापिस चाहता था। वह धीरे-धीरे सतारा की ओर बढ़ रहा था और मराठा सरदारों को अपनी ओर खींच रहा था। उसने ताराबाई को संदेश भेजा "मैं गद्दी का सच्चा हकदार हूं। राज्य संभालने के लिए मैं अब उधर आ रहा हूं।"



ताराबाई ने जवाब लिख भेजा, "संकट के समय हमने मराठाशाही को सुरक्षित रखा, तब तुम मुगल दरबार के राजविलास में फंसे हुए थे। अब भी तुमने मुगलों का फंदा अपने गले में बांध रखा है। इसलिए तुम्हारा गद्दी पर कोई हक नहीं है। इतने पर भी तुम कुछ सुनाना चाहते हो, तो हम उसे लड़ाई के मैदान में सुनेंगे।"



ताराबाई के उग्र स्वभाव के कारण उसके बहुत-से सहयोगी शाहू से जा मिले। अंत में 1707 के अक्तूबर महीने में ताराबाई की सेना का शाहू की सेना के साथ युद्ध हुआ। ताराबाई का योग्य सेनापति धनाजी जाधव शाहू के पक्ष में हो गया और ताराबाई की हार हो गई। शाहू ने सतारा पर अधिकार कर लिया। ताराबाई ने सतारा छोड़कर पन्हाला में शरण ली। इसके बाद 1708 के जनवरी महीने में शाहू का राज्याभिषेक हुआ।



शाहू अयोग्य शासक नहीं था। परंतु अपने हक को साबित करने के लिए उसे लोभी मराठा सरदारों की मुंह मांगी मुरादें पूरी करनी पड़ीं। ताराबाई चुपचाप बैठने वाली नारी नहीं थी। अपने पक्ष को मजबूत बनाने के लिए शाहू और ताराबाई में होड़-सी लगी हुई थी। 



शाहू के शासन काल में ही पेशवा पद उभर आया। पेशवा बालाजी विश्वनाथ ऐसा चतुर व्यक्ति था कि उसने राजा को साम-मात्र का शासक बनाकर छोड़ दिया। इसके बाद मराठों के इतिहास में असली शासक पेशवा ही हो गए।



ताराबाई को टूटना स्वीकार था, झुकना नहीं। जहां तक मराठा शासन के हित की बात है, ताराबाई के लिए यही उचित था कि वह गद्दी के असली हकदार शाहू को राजा कबूल करती। बुजुर्ग होने के नाते ताराबाई का सभी सम्मान करते थे। शाहू भी अपनी चाची का आदर करना चाहते थे।



 शाहू के साथ ताराबाई सुलह कर लेती, तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि उसे पूरा सम्मान मिलता। परंतु ताराबाई काफी जिद्दी स्वभाव की थी। 1727 ईसवी में अपने एक-मात्र पुत्र शिवाजी की मृत्यु हो जाने पर भी उसने शांत बैठना जरूरी नहीं समझा।




अब मराठा शासन दो भागों में बंटा हुआ था। सतारा पर छत्रपति शाहू शासन कर रहे थे, तो कोल्हापुर पर ताराबाई की सौत राजसबाई का पुत्र शंभूजी। इस बीच शाहू ने ताराबाई को एक प्रकार से बंदी बनाकर रखा था। 1749 ईसवी में दिसंबर महीने में शाहू की मृत्यु हो गई, तो एक नया संकट उपस्थित हुआ । शाहू और अन्य मराठा सरदारों की राय थी कि शिवाजी के वंश के किसी निकट के बालक को गोद लिया जाए।



परंतु अचानक ताराबाई ने एक चमत्कार पैदा कर दिया। ताराबाई ने किस्सा गढ़ा कि उसके पुत्र शिवाजी की मृत्यु के पहले एक और पुत्र हुआ था। राजसबाई के डर से उसने उस बच्चे को दूर भेजकर छिपा रखा है। चूंकि यही बच्चा अधिक निकट का रिश्तेदार है इसलिए शाहू महाराज को उसे ही गोद लेना चाहिए।



ताराबाई का वह मनगढ़ंत पोता अब 23 साल का था। उसका असली नाम था-राजाराम, परंतु उसे दूसरा नाम दिया गया-रामराज। रामराज को अपना पोता सिद्ध करने के लिए ताराबाई ने जमीन-आसमान एक कर दिया। उसके साथ बैठकर एक थाली में खाना भी खाया। अंत में रामराज को गोद लेना तय हुआ । ताराबाई की असली मंशा यही थी कि रामराज को नाम-मात्र के लिए गद्दी पर बिठा कर, शासन वह स्वयं करेगी।



शाहू की मृत्यु के बाद रामराज का राज्याभिषेक हुआ। ताराबाई ने सोचा था कि रामराज उसके हाथ की कठपुतली बनेगा। किंतु कुछ दिनों बाद दोनों में अनबन हो गई, तो ताराबाई ने खुल्लम-खुल्ला कहना शुरू किया कि रामराज उसका पोता नहीं है। ऐसी परिस्थिति में मराठा सरदारों के सामने एक बहुत बड़ी समस्या पैदा हो गई। अब वे क्या करते? 



परिणाम यह हुआ कि पेशवा ने धीरे-धीरे शासन के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिए और रामराज तथा ताराबाई को नाम-मात्र का शासक बने रहने दिया। ताराबाई ने रामराज को सतारा के किले में बंदी बना रखा था।



ताराबाई शासन को अपने कब्जे में रखने के लिए जीवन के अंतिम दिनों तक संघर्ष करती रही। किंतु पेशवा बालाजी बाजीराव ऐसा कूटनीतिज्ञ था कि ताराबाई के पंजे में नहीं फंस सका। ताराबाई ने अंतिम समय तक रामराज को अपने पास बंदी बनाए रखा। रामराज के नाम पर वही राज्यादेश जारी करती थी। शासन का असली सूत्रधार पेशवा था। 



अंत में ताराबाई की मृत्यु के कुछ दिन पहले बालाजी बाजीराव की मृत्यु हुई। बालाजी बाजीराव की मृत्यु के बाद उसके दूसरे पुत्र प्रथम माधव राव को ताराबाई ने ही पेशवा नियुक्त किया था। अंत में 86 साल की परिपक्व आयु में 9 दिसंबर, 1761 ईसवी की ताराबाई की मृत्यु हुई ।




ताराबाई ने अपने दीर्घ जीवन में अनेकों के दिल दुखाए थे। किंतु उसके हाथों सबसे अधिक दुख पाया था-उसके नकली पोते रामराज ने। लेकिन रामराज के हाथों ही ताराबाई का अंतिम संस्कार संपन्न हुआ।आज जब हम ताराबाई के कार्यों पर विचार करते हैं, तो हमें उसके चरित्र में अनेक त्रुटियां नजर आती हैं। 



काश शाहू के मुगल कैद से छूटने के बाद ताराबाई शासन-संचालन से संन्यास ले लेती, तब हम आज बड़े गौरव के साथ कह सकते थे कि ताराबाई ने मराठा राज्य की पताका को उस समय फहराते हुए ऊंचा रखा, जब शिवाजी महाराज के बाद मराठा राज्य पर दूसरा बड़ा संकट आया था। 



जो भी हो, ताराबाई जब तक जीवित रही, शिवाजी के राजवंश में जान रही। ताराबाई के बाद मराठों के असली शासक पेशवा हो गए और राजा नाम-मात्र के शासक रह गए। इस दृष्टि से हम ताराबाई को शिवाजी के वंश का अंतिम दैदीप्यमान तारा मान सकते हैं।

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