इकाई की रूपरेखा
3.0 उद्देश्य
3.5 नाथ साहित्य
3.1 प्रस्तावना
3.6 जैन साहित्य
3.2 सिद्धों का परिचय
3.7 जैन साहित्य के प्रकार
3.3 सिद्ध साहित्य
3.7.1 पौराणिक और चरित काव्य
3.3.1 सिद्ध साहित्य के प्रणय के प्रसंग
3.7.2 मुक्तक काव्य
3.3.2 रूढ़िवादी मानसिकता का खंडन
3.7.3 जैन रचनाकारों के व्याकरणिक ग्रंथ और साहित्य
3.3.3 सिद्धों का विद्रोह और हिन्दी भाषा का विकास
3.8 सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का परवतीं हिन्दी के विकास में योगदान
3.3.4 सिद्धों के साहित्य में अभिव्यंजना
3.4 नाथ परम्परा
3.4.1 सिद्ध और नाथ में अंतर
3.4.2 नाथ पंथ की सांकृतिक विशेषता
3.9 सारांश
उद्देश्य
इस इकाई में सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य के विषय में बतलाया जायेगा। सिद्ध, नाथ और जैन रचनाकारों की धार्मिक अनुभूतियों से भिन्न उनकी साहित्यिक अनुभूतियां कैसी थी, इस पर प्रकाश डाला जायेगा । हिन्दी साहित्य के इतिहास में विवादग्रस्त सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य के धार्मिक घोषित तथ्यों पर प्रकाश डाला जायेगा। सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य की प्रासंगिकता को हिन्दी साहित्य के इतिहास के आलोक में रखा जायेगा ।
प्रस्तावना
वास्तव में भारतीय समाज में रूढ़िवादी विचार परम्परा के विरुद्ध समय-समय पर व्यापक लोक-जीवन विद्रोह करता रहा है और नए विचारों को प्रस्तावित करता रहा है। जहाँ तक सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का हिन्दी साहित्य में अपना प्रमुख स्थान होने का प्रश्न है, वह यह है कि सिद्धों, नाथों और जैनों का विद्रोही स्वर केवल धार्मिक स्तर पर नहीं था, अपितु वह तो जीवन और समाज के अन्य क्षेत्रों में भी रहा।
इससे साहित्य भी प्रभावित हुआ। इस प्रकार उन्होंने साहित्य में जनभाषा की प्रतिष्ठा के लिए बड़े पैमाने पर संघर्ष किया। यों तो उनका कर्म कवि कर्म नहीं था, अपितु उनका कर्म तो सामाजिक विडम्बनाओं पर कुठाराघात ही करना रहा। इसके लिए वे अनुभव को ही आधार बनाए हुए अपनी ओजस्वी वाणी को प्रस्तुत करने में कोई संकोच नहीं कर रहे थे। इन सभी तथ्यों पर हम इस इकाई में प्रकाश डालेंगे ।
सिद्धों का परिचय
परवर्ती बौद्धों की जो शाखाएं हुईं, उनमें से एक शाखा वजपानी शाखा के नाम से लोक प्रचालित हुई। परवर्ती बौद्ध वास्तव में तांत्रिक साधक थे। इन बौद्ध तांत्रिकों के बीच वामाचार अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था। ये बिहार से लेकर आसाम तक फैले हुए थे। यह इसलिए कि शंकराचार्य के प्रभाव के फलस्वरूप इन बौद्ध तांत्रिकों की साधना का केन्द्र भी श्री पर्वत से दूर होकर बंगाल और असम की और चला गया था। 'चौरासी सिद्ध' इन्हीं सिद्धों में से थे। इन बौद्ध तांत्रिकों की यह बहुत बड़ी विशेषता थी कि लोग इन्हें अलौकिक शक्ति से सम्पन्न समझते थे। यह इसलिए कि ये शक्ति के बहुत अधिक उपासक थे। इसके साथ ही वे तंत्रों-मंत्रों द्वारा सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते थे । इनसे वे जनता को चमत्कृत किया करते थे ।
सिद्ध साहित्य
सयरो पहले महापण्ठित राहुल सांकृत्यायन ने अपने शोध ग्रन्थ 'पुरानी हिन्दी काव्यधारा' के अन्तर्गत इन सिखों के साहित्यको प्रकाि किया। उसने बोनस ने ओवी रचनाओं का एक संग्रह सबसे पहले महामहोपाध्यायसमा आका अवरों में योजनानी जिलों की परम्परा को प्रस्तुत किया। उसी में सबसे पुराने सरह, जिन्हें सरहपाद, सरोजयाज, राहुल भाग आदि कार्य जागते से जाना जातानीता के नाम से प्रकाशित करवाया।
विचिकन संवत् 690 निश्चित किया है। इसी आधार पर काशीदाकारा आदि अनेक विद्वानों ने सरकार विजयी भावना है। इनके द्वारा लिखित 32 ग्रन्थों का पता चलता है। 'योहकोश' इनका सर्वाधिक प्रसिद्ध अन्य है। इनके सर्वप्रमुख शिष्य सहरपा की केवल पाँच ही रचनाएं अब तक उपलब्ध हुई है।
सिद्धों की रचनाओं के अध्ययन-मनन करने के उपरांत यह कहा जा सकता है कि इनकी रचनाओं की सर्वप्रथम विशेषता है-रहस्यवाद। इनकी रचनाओं में लौकिक शन्यावती के साथ-साथ प्रतीकात्मक शब्दावली प्रचुर मात्रा में है। इस प्रकार की शब्दावलियों से रचित सिद्ध साहित्य मुख्य रूप से धार्मिक साहित्य है। इस साहित्य में प्राचीन तांत्रिक पद्धति का निगूढ़ वर्णन है। अतएव इनका कलात्मक महत्त्व तो नहीं है, लेकिन इनका ऐतिहासिक महत्त्व निस्सन्देह है। इनकी रचनाओं में गुरु-महिमा, समाज-सुधार, जीवन-दर्शन, लोक-चेतना और विभिन्न प्रकार के पारखणते और आडम्बरों के विरोधी तत्त्व भी पाए जाते है। इस प्रकार इनकी रचनाएं जीव-जगत्, माया-मुक्ति, हठयोग, गुरु-महिमा आदि के स्पष्ट विचारों से परिपूर्ण है।
सिद्ध साहित्य में प्रणय प्रसंग
सिद्धों ने बौद्ध परम्परा से चली आती हुई निर्वाण भावना की उपेक्षा कर महासुख की अनुभूति को प्रधानता दी। बौद्ध धर्म में निर्वाण के तीन आधार बतलाए गए है शून्य, विज्ञान और महासुख। वज्रयान में महासुख का प्रवर्त्तन हुआ। वज्रयान में निर्वाण सुख का स्वरूप ही सहवास सुख के समान बतलाया गया है। यही कारण कि साहित्य में प्रणय के प्रसंग अधिक हैं। यह हो सकता है कि सिद्धों के इस प्रणय का गहन आध्यात्मिक अर्थ अवश्य ही कोई न कोई हो, लेकिन उन्होंने जिस लौकिक शब्दावली के द्वारा इसे व्यक्त किया है, वह भी साहित्य के लिए के बहुत बड़ी उपलब्धि है। सिद्धों में सरहपा, गुण्डरीपा, कण्हपा, तुइया, पिलपा, कुक्कुरिपा आदि प्रसिद्ध हैं। सिद्धों की रचना के कुछ उदाहरण निम्नलिखित है-
योगिनी । मैं तेरे बिना क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकता। मैं तो तेरे चुम्बन द्वारा कमल रस का पान किया करता हूँ।।
'जिम लोण विलिज्जइ पाणिएहि, निम परिणि लइचित्त ।
समरस जाइ तक्खणे, जइ पुणु ते सम णित्त ।।'
- कण्हपा
जिस प्रकार पानी में नमक घुल जाता है, उसी तरह धरिणी से प्रेम में लीन हो जाने से तत्काल समरस की अवस्था उत्पन्न हो जाती है, यदि वह हमेशा स्थिर रहे ।।
सिद्ध धर्म की आड़ में वासना तृप्ति करते थे। वे मद्यपान तथा स्त्री-संभोग को साधना का अंग मानते थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, 'ऊँचे-नीच कई वर्ग की रित्रयों को लेकर मद्यपान के साथ अनेक वीभत्स विधान वज्रयानियों की साधना के प्रधान अंग थे। सिद्धि प्राप्त करने के लिए किसी स्त्री का योग या सेवन आवश्यक था । 3.3.2. रूढ़िवादी मानसिकता का खंडन सिद्धों के साहित्य में दूसरी प्रवृत्ति खंडन की प्रवृत्ति है। अंतःसाधना पर जोर और पंडितों को फटकारते हुए सरहपा ने कहा है-
पंडिअ सअल सत्ता बक्खाणइ । देहहि बुद्ध वसंत न जाणइ ।। विखंडिअ । तोवि पिलज्ज भणइ हउँ पंडिअ ।।
अभणागमण ण तेन मन पवन न संचरइ, रवि ससि नाहि पवेस ।
जह ताहि घट चित्त विसाम करु, सरहे कहिय उवेस ।।
सिद्धों ने माया-मोह का विरोय करके सहज जीवन पर बल दिया है। इसी को महासुख की प्राप्ति का सहज मार्ग बतलाया है। सिद्ध सरहपा का इस सन्दर्भ में कहना है
- हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे समतुला
पुकड़ए तेरे कपासु फुटिला ।
तइला बाहिर पासेर जोणा बाड़ी ताएला
फिटेलि अंधारि रे आकाश फुलिआ ।।
सिद्धों ने रहस्यवाद पर बल दिया है। सिख लुइपा की रहस्यवादी भावनामयी कविता का एक उदाहरण देखिए-
काया तरुवर पंच विडाल, पंचल चोर पइटोकाल ।
दिट करिअ महासुह परिमाण , तुइ भरमइ गुरु पूछि अजाण ।।
सिद्धों का विद्रोह और हिन्दी भाषा की विकास
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है- "इस प्रकार अपभ्रंश प्राकृताभास हिन्दी में रचना होने का पता हमें विक्रम की सातवी शताब्दी में मिलता है। उस काल की रचना के के बीच मिलते हैं।" नमुने बोद्धों की वज्रपान शाखा के सिद्धों की कृतियों वास्तव में सिखों का विदोही स्वर (तेवर) ही समाज में जहाँ पाण्डित्य परम्परा पर चोट करता है। वही भाषा में भी पाडिण परम्परा पर प्रहार करता है। दक्षिण मार्ग को छोड़कर वाम मार्ग का उपदेश देते हुए सरहपा का कहना है-
नाद न विन्दु न रवि न शशि मंडल।
चिअराअ सहावे मूकल ।
उनुरे उजु छाड़ि मा सेहु रेवंक।
निअहि बोहिमा जातु रे लंक ।।
सिद्धों की भाषा अर्द्धमागधी अपभ्रंश भाषा से प्रभावित ओजपूर्ण भाषा है। अतएव हिन्दी भाषा के विकास की दृष्टि से सिद्ध साहित्य का विशेष महत्त्व है। यह इसलिए भी कि सिखों की भाषा ने हिन्दी भाषा के विकास-सूत्र को स्थापित करने में अधिक सहायता प्रदान की है। साहित्यिक समीक्षा की भाषा में इसको 'संध्या भाषा' कहा जाता है। इस प्रकार प्रख्यात आलोचक डॉ० रामकुमार वर्मा ने इसको अपभ्रंश के संध्याकाल की भाषा कहकर इसके नामकरण के औचित्य को सिद्ध किया है। कुछ विद्वान् 'संध्या' भाषा के नाम की सार्थकता को कई भाषाओं के निश्रित रूप वाली भाषा में देखते हैं। वास्तव में यह भाषा दोहरे अर्थ वाली भाषा है, क्योंकि इसमें लौकिक अर्थ के साथ-साथ गुड़ा-साधनापरक प्रतीकार्य भी है। इस तरह 'संध्या भाषा' का पही अर्थ सामान्य रूप से मान्य और स्वीकृत है।
सिद्धों के साहित्य में अभिव्यंजना
सिद्धों ने अपनी दार्शनिक अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए प्रतीकात्मक भाषा के प्रयोग किए। इसे पंडित महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने संधा भाषा कहा है। इस भाषा की शैली धूप-छांव की शैली है। इस भाषा में शब्द के बाहरी अर्थ और आंतरिक अर्थ अलग-अलग हैं। इस साहित्य में सद्गुरु कृपा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। डोम्भिया का एक पद इस सम्बन्ध में इस प्रकार है-
गंगा जउना माझेरे बहर नाइ ।
तांहि बुड़िली मातंगि पोइआली ले पार करई ।
बाहतु डोम्बी बाह लो डोम्बो वाटत भइल उठारा ।
सद्गुरु पाउ पए जाइव पुणु जिणउरा ।।
रहस्यमार्गियों की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार सिद्ध लोग अपनी बानी को ऐसी पहेली के रूप में भी रखते थे, जिसे कोई विरला ही बूझ सकता है। सिद्ध तांतिया की अटपटी बानी इसके लिए निम्नलिखित है
बैंग संसार बाड़ेहिअ जाअ । दुहिल दूध कि बेटे समाअं ।।
बलद विआएल गाविआ बाँझे। पिटा दुहिए एतिना साँझे ।।
सिद्ध-साहित्य के सम्पूर्ण अध्ययन से यह तथ्य सुरपष्ट हो जाता है कि इस साहित्य में विभिन्न प्रकार के छन्दों के प्रयोग हुए हैं। ये छंद मुख्य रूप से मात्रिक छंद हैं। इन्हीं प्रभाव से हिन्दी में मात्रिक छन्दों के प्रयोग धड़ाधड़ होने लगे थे। इस साहित्य के प्रमुख मात्रिक छन्दों में चौपाई, दोहा, छप्पय, सोरठा आदि है। इस साहित्य की मुख्य शैलियाँ भावात्मक, चित्रात्मक, गवेषणात्मक आदि हैं। सिद्ध साहित्य की प्रवृत्तियों का प्रभाव भक्तिकाल तक रहा।
रूढ़ियों के विरोध का अक्खड़पन, जो कबीर आदि की कविताओं में मिलला है, इन सिद्ध कवियों की ही देन है। इस प्रकार सामाजिक जीवन के जो चित्र इन्होंने उभारे, वे भक्ति कालीन काव्य के लिए सामाजिक चेतना की पीठिका बन गए। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि सिद्ध साहित्य की परवर्ती साहित्य के लिए .5 नाथ साहित्य वजयाय की सहज साधना नाथ सम्प्रदाय के रूप में पल्लवित हुई है। जीवन को कर्मकांड के जाल से मुक्त कर सहज रूप की जोर जाने का श्रेय नागों को ही जाता है। इस प्रकार नाथ सम्प्रदाय ने सिद्धों की विचारधारा को लेकर इस सम्प्रदाय, उसमें नवीन विबारों की प्र प्रतिच्चा की।
उन्होंने निरीश्वरवादी शून्य को ईश्वरवादी शून्य बना दिया। नाथ सम्प्रदाय वज्रयान की परम्परा में शैव मत की आड़ में पता। 14वीं शती तक इस सम्प्रदाय को साहित्य ने साहित्य और धर्म पर शासन किया। इस प्रकार नाथ युग, सिद्ध युग और सन्तों के बीच की काही पाना जा सकता है। सिद्धों ने जिस पथ की ओर संकेत किया था, सन्तों ने उसे राजमार्ग बनाया। पुरानी विचारधारा में नवीन विचार सनि का समावेश किया। बौद्ध धर्म महायान से वजयान, वज्रयान से सहजयान और सहजयान से नाथ सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुआ ।
* आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार नाच परम्परा में मत्स्येन्द्र नाथ के गुरु जलंधर नाथ माने जाते हैं। जर्लयर ने ही सिद्धों से अपने परम्परा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। जलंधर के शिष्य मछंदर या मत्स्येन्द्रनाथ थे और मछंदर के शिष्य गोरखनाथ थे। गौरखनाद सम्प्रदाय के विशेष प्रवर्तक थे। राहुल सांकृत्यायन ने इनका समय दसवी शताब्दी माना है, जबकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बारहवीं शता माना है। यही समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी माना है। जिस प्रकार सिद्धों की संख्या चौरासी कही जाती है, उसी प्रकार नाचों की संख्या भी बतायी जाती है। इनमें नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गौरखनाथ, चर्पट, जलंधर और मलपार्जुन के नाम निए जाते हैं।
सिद्ध और नाग में अंतर
सिद्ध और नाथ साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने के उपरांत यह कहा जा सकता है कि इनमें परस्पर समानता है, तो विषमताएं भी है। तांत्रिक साथना सिद्धों में है, तो नाथों में भी है। लेकिन नाथों ने अपनी साधना में योग क्रिया को ही प्रमुख आधार लिया। वाममार्गी सिद्धों की प्रमुख साधना थी। इसका विरोध नाथों ने किया। यह लक्षितव्य है कि वाममार्गी साधना लोकाचार के विरुद्ध थी। उसमें लोकत्तीवन की पवित्रता, अहिंसा और आचरण की शुद्धता न होकर उसके विरुद्ध मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन को ही साधना का आधार बनाया गया था।
इत्तके स्थान पर नाथों ने श्रेष्ठ मानवीय मनोभावों को प्रमुखता देकर अपने पंथ को आगे बढ़ाया। समानता के तौर पर सिद्धों के समान नाथों ने भी इड़ा, पिंगला और सुषम्ना, नाद बिन्दु की साधना, षट्चक्र शून्य-भेदन, शून्य चक्र में कुंडलिनी का प्रवेश आदि अंतरसाधनात्मक अनुभूतियों को योग के लिए आवश्यक माना ।
नाथ पंथ की सांस्कृतिक विशेषता
नाथ पंथ की दार्शनिकता सैद्धान्तिक रूप से शैव मत के अन्तर्गत है और व्यावहारिकता की दृष्टि से हठयोग से सम्बन्ध रखती है। नाथ की ईश्वर सम्बन्धी भावना शून्यवाद में है और यह वज्रयान से ली गयी है। कवीर ने इसी शून्यः को सहज, सुन्न, सहस्रदल, कमल आदि नामों से पुकारा है। यह शून्य मतानुसार अलख निरंजन होकर नाथ सम्प्रदाय में आया। नाचों ने निवृत्ति मार्ग पर विशेष बल दिया। इनके अनुसार वैराग्य से शब्द, स्पर्श आदि से मुक्ति सम्भव है। वैराग्य गुरु द्वारा सम्भव है। अतः इनमें गुरु मंत्र या दीक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये लोग शिष्य की कठोर परीक्षा लिया करते थे। अतः इनका सम्प्रदाय व्यापक रूप न ले सका। इसमें प्रचार की अपेक्षा मर्यादा रक्षण पर विशेष बल दिया गया। इस सम्प्रदाय ने इन्द्रिय निग्रह पर विशेष बल दिया। इन्द्रियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण नारी है। अतः नारी से दूर रहने की भरसक शिक्षा दी गयी है।
'गोरख' ने अपने शिष्यों को सदा नारी से दूर रहने का आदेश दिया । इन्द्रिय निग्रह के बाद, प्राण-साधना तथा उसके पश्चात् मनःसाधना पर अधिक बल दिया। मनः साधना से तात्पर्य है मन को संसार से खींचकर अन्तःकरण की ओर उन्मुख कर देना। मन की जो स्वाभाविक गति बाह्य जगत् की और है, उसे पलटकर अन्तर जगत् की ओर करना ही मन की साधना की कसौटी है। यही उलटने की क्रिया उलटबांसियों का आधार है। इनमें अनेक क्रियाओं का भी उल्लेख है, जैसे-नाड़ी साधना, कुंडलिनी, इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, आदि का वर्णन। ब्रह्म, रन्ध्र, षट्चक्र, सुरतयोग और अनहद नाद आदि का भी इनके यहाँ उल्लेख है। शिव और शक्ति को आदि तत्त्व स्वीकार किया है तथा पाखण्ड का खण्डन किया है-
हिन्दू मुसलमान खुदाई के बन्दे,
हम जोगी न कोई किसी के छन्दो"
नाथ पंथ वालों ने अपने सिद्धान्तों की मीमांसा जन भाषा के आश्रय से साखियों और पदों में की। नीति, आचार, संयम और योगादि, इनके साहित्य के प्रधान विषय हैं। चौरासी सिद्धों के समान नवनाथ भी प्रसिद्ध हैं, जिनके शिव ही आदिनाथ हैं और मत्स्येन्द्र नाथ (महेन्द्र), जालन्धर नाथ, गोरखनाथ मुख्य है।
नाथ साहित्य
गोरखनाथ ने नाथ सम्प्रदाय को जिस आन्दोलन का रूप दिया, वह भारतीय मनोवृत्ति के सर्वथा अनुकूल सिद्ध हुआ है। उसमें जहाँ एक और ईश्वरवाद की निश्चित धारणा उपस्थित की गयी वहाँ, दूसरी और विकृत करने वाली समस्त परम्परागत सड़ियों पर भी आघात किया गया आधात किया गया है। जीवन को अधिक-से-अधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रखकर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए सहज मार्ग की व्याला करने का शक्तिशाली प्रयोग गोरख ने किया।
-डॉ० रामकुमार वर्मा
इसमें परवती सन्तों के लिए श्रद्धाचरण, प्रधान धर्म की पृष्ठभूमि तैयार कर दी, जिन सन्त-साधयों की रचनाओं से हिन्दी साहित्य गौरवान्वित है, उनमें बहुत कुछ बनी बनाई भूमि मिली थी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उसकी एपी बड़ी कमजोरी उसका सखापन और गृहस्थ वके प्रति अनादर भाव है।
नाथ सम्प्रदाम का विकास बौद्धों की वज्रयान-सहजयान शाखा से ही हुआ है। सिद्धों की परम्परा से हटकर गोरखनाथ ने स्वतन्त्र नाय पंच का प्रचार किया। नाथ पंथ शैव मत का पोषक है। ये लोग सिखों के मार्ग पर नहीं चले। ये हठयोग से प्रभावित थे। इनके सम्प्रदाান में मूर्तिपूला और बहुदेववाद के लिए स्थान नहीं था। इन्होंने हठयोग के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाया। राजस्थान और पंजाच में असंख्य लोग नाथ पंथ के अनुयायी बने। नागार्जुन, जड़भरत, सत्यनाथ, श्रीनाथ, गोरखनाव आदि अपने समय में बहुत प्रसिद्ध थे। इन्होंने जनता को यह उपदेश दिया कि ईश्वर को हृदय में ही खोजना चाहिए। गोरखनाथ की कुछ पंक्तियों दृष्टव्य है-
'हंसिबा, खेलिवा रंग । काम क्रोच न करिवबा संग ।।
हंसिवा, खेलिबा गइवा गीत। दिट करि करि राखो अपना चीता ।।'
(हंसी, खेलो, मरत रहो, किन्तु काम-कोथ का संग कभी न करो। हँसी, खेली, गीत गाओ, किन्तु अपना चित्त दृढ़ रखी ।।
जैन साहित्य
महात्मा बुद्ध के समान महावीर स्वामी ने भी अपने धर्म का प्रचार लोक-भाषा के माध्यम से किया। इस प्रकार जैन धर्म के अनुयायियों को अपने धार्मिक सिद्धान्त का ज्ञान अपभ्रंश में प्राप्त हुआ। वैसे तो जैन उत्तर भारत में जहाँ-तहीं फैले रहे, किन्तु ४वीं से 13वीं शताब्दी तक काठियावाड़ गुजरात में इनकी प्रधानता रही। वहीं के चालुक्य, राष्ट्रकूट और सौलंकी राजाओं पर इनका पर्याप्त प्रभाव रहा ।
महावीर स्वामी का जैन धर्म, हिन्दू धर्म के अधिक समीप है। जैनों के यहीं परमात्मा तो है, पर वह सृष्टि का नियामक न होकर वित्त और आनन्द का स्रोत है, उसका संसार से कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रत्येक मनुष्य अपनी साधना और पौरुष से परमात्मा बन सकता है। उन्होंने जीवन के प्रति श्रद्धा जगाई और उसमें आचार की सुदृढ़ भक्ति की स्थापना की। अहिंसा, करुणा, दया और त्याग का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान बताया। त्याग इन्द्रियों के अनुशासन में नहीं, कष्ट सहने में है। उन्होंने उपवास तथा व्रतादि कृच्छ साधना पर अधिक बल दिया है और कर्मकांड की जटिलता को हटाकर ब्राह्मण तथा शूद्र को मुक्ति का समान भागी ठहराया ।
जैन साहित्य के प्रकार
जैन आचायों ने बौद्धाचार्यों की तरह ही अपने मत का प्रचार करने के लिए जनभाषा को आधार बनाया। जैनाचार्यों ने इसी भाषा में अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। यह जनभाषा अपभ्रंश ही थी। जेनाचार्यों की इस भाषा में रची हुए रखनाओं के तीन प्रकार हैं। पहली प्रकार की रचना स्वयंभू, पुष्पदंत आदि कवियों द्वारा रचे गए पौराणिक काव्य हैं। दूसरे प्रकार की रचना रासू, फाग, चर्चरी आदि काव्यों की विवेचन प्रधान मुक्तक रचना है। तीसरे प्रकार की रचना हेमचन्द्र, मेरुतुंग आदि की रची हुई रचनाएं हैं।
पौराणिक तथा चरित काव्य-
जैन मुनियों ने अपभ्रंश में प्रचुर रचनाएँ लिखी, जो कि धार्मिक है। इसमें सम्प्रदाय की रीति, नीति का पराबद्ध उल्लेख है। अहिंसा, कष्ट, सहिष्णुता, विरक्ति और सदाचार की बातों का इसमें वर्णन है। कुछ गृहस्थ जैनों का लिखा हुआ साहित्य भी उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त उस समय के व्याकरणादि ग्रन्थों में भी इस साहित्य के उदाहरण मिलते हैं। कुछ जैन कवियों ने हिन्दुओं की रामायण और महाभारत की कथाओं से राम और कृष्ण के चरित्रों को अपने धार्मिक सिद्धान्तों और विश्वासों के अनुरूप अंकित किया है। इन पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त जैन महापुरुषों के चरित्र लिखे गए तथा लोक प्रचलित इतिहास प्रसिद्ध आख्यान भी जैन धर्म के रंग में रंगकर प्रस्तुत किये गए।
इसके अतिरिक्त जैनों ने रहस्यात्मक काव्य भी लिखे हैं। इस साहित्य के प्रणेता शील और ज्ञानसम्पन्न उच्च वर्ग के थे। अतः उनमें अन्य धर्मों के प्रति कटु उक्तियों नहीं मिलती हैं और वहीं लोक-व्यवहार की उच्चता मिलती है, इनके साहित्य में थार्मिक अंश को छोड़ देने और उसमें मानव-हृदय की सहज कोमल अनुभूतियों का चित्रण मिलता है।
इस प्रकार जैन साहित्य के अन्तर्गत पुराण साहित्य, चरित काव्य, कथा काव्य एवं रहस्यवादी काव्य, सभी लिखे गए। इसके अतितरिक्त व्याकरण ग्रन्थ तथा श्रृंगार, शौर्य, नीति और अन्योक्ति सम्बन्धी फुटकर पद्य भी लिखे गए। पुराण सम्बन्धी आख्यानों के रचयिताओं में स्वयंभू, पुष्यदन्त, हरिभद्र, सुरि, विनयचन्द्र, सूरि धनपाल, नौइन्दु तथा रामसिंह का विशेष स्थान है।
मुक्त काव्य-
यों तो जैन साहित्य में चरित काव्य अधिक है, फिर भी उसके मुक्तक काव्य रचनाओं की उपेक्षा नहीं की जालकती है। इसमें उपलब्य मुक्तक काव्य मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं। पहले वे जो साधकों को ध्यान में रखकर लिखो गए हैं। दूसरा, वे जो जैन काव्य के उसचरण से सम्बन्धित हैं। इन दोनों ही काव्यों का साहित्य और इतिहास दोनों ही दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास रहस्यात्मक साहित्य-जैन साहित्यकी की एक बहुत बड़ी विशेषता है-रहस्यानुभूति का उल्लेख । यों तो जैन धर्म रहस्यवादी काव्य को संख्या बहुत ही कम है।
नोइन्दु का परमात्म प्रकाशा' और 'योगसार और मुनि रामसिंह का 'पाहुड़ दोहा' जन-साहित्य की उल्लेखनीय रहस्यवादी काव्यकृतियों हैं। यह ध्यातव्य है कि जैन दर्शन में यह रपष्ट उल्लेख किया गया है कि आत्मसान से मिध्या दृष्टि दूर हो जाती है। फिर परमपद की प्राप्ति सहज रूप में हो जाती है। समान विकल्यों का विलय ही तो परम समाधि है। परम समाधि से सारे संसार के अशुभ कर्म समाप्त हो जाते हैं। नोइन्दु ने अपनी रचनाओं को काव्यात्मक बाँचे में डालते हुए कहा है कि परमात्मा योग वेद और शास्त्र से नहीं जाना जा सकता है।
वह तो निर्मल ध्यानं से जाना जा सकता है। दूसरी मुनिराम सिंह ने अपने 'पाहुड़ दोहा' में मूर्तिपूजा का खंडन किया है। इसमें योगपरक शब्दावली प्रयुक्त हुई है। स्त्रीपरक रूपकों के माध्यम से मोक्ष आदि वर्णन अत्यधिक उल्लेखनीय हैं। जैन रास सहित्य-जैन साहित्य की एक विलक्षण पहचान यह भी है कि जिस प्रकार बौद्ध सिद्धों ने हिन्दी के पूर्वी भाग में बौद्ध धर्म के यजयान मत का प्रचार हिन्दी कविता के माध्यम से किया, ठीक उसी प्रकार जैन साधुओं ने हिन्दी के पश्चिमी क्षेत्र में अपने मत का प्रचार-प्रसार हिन्दी कविता के माध्यम से किया। इन जैन साधुओं की रचनाएं आचार, रास, फागु, चरित आदि शैलियों में उपलब्ध है। आचार शैली है
जैन-काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता की प्रमुखता है। हम यह भली-भाँति जानते हैं कि 'रस' शब्द संस्कृत साहित्य में कीड़ा और नृत्य से सम्बन्धित था। आचार्य भरत मुनि ने इसे 'क्रीडनीयकः कहा है, वात्स्यायन के कामसूत्र' के रचनाकाल तक 'रास' में गायन का समावेश हो गया। अभिनव गुप्त के अनुसार 'रास' एक प्रकार का रूपक है। हम यह भी देखते हैं कि लोक-जीवन में 'रास' को एक प्रभावशाली रचना शैली का रूप दिया। जैन तीर्थकरों के जीवन-चरित तथा वैष्णव अवतारों की कथाएँ जैन-आदर्शों के आवरण में 'रास' नाम से पद्यबद्ध की गई। चौदहवीं शताब्दी तक इस पद्धति का प्रचार रहा। इस प्रकार जैन-साहित्य का सबसे लोकप्रिय रूप 'रास' ग्रन्थ बन गए ।
जैन सहित्य की प्रवृत्तियों के कुछ प्रमुख उल्लेख इस प्रकार है-जैन-साहित्य में गृहस्थ के कर्त्तव्यों पर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है, दैवसेन जैन आचार्य द्वारा विरचित 'श्रावकाचार' नामक काव्य में गृहस्थ के कर्तव्यों के प्रति इस प्रकार दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं -
जो जिण सासण भाषियायउ, सोमइ कहियउ सारु । जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारु ।।
जैन रचनाकारों के व्याकरणिक ग्रन्ध और साहित्य
जैन रचनाकारों ने अपभ्रंश भाषा में साहित्य ही नहीं, अपितु व्याकरण ग्रन्थ भी लिखा । आचार्य हेमचंद्र का सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन अपभ्रंश भाषा का एक ऐसा व्याकरण ग्रन्थ है, जिसकी रचना का समय सन् 1143 ई० के आस-पास स्वीकार किया जाता है। इसमें न केवल अपभ्रंश भाषा ही है, अपितु संस्कृत और प्राकृत भी है। अपभ्रंश भाषा का एक
उदाहरण इस प्रकार है-
भल्लु हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु ।
लग्जेजं तु लयां सिअहु जई भग्गा घरूएंतु ।।
अर्थात् हे बहिन । भला हुआ जो हमारा कंत मारा गया। अगर वह भागा हुआ घर आता, तो में अपनी सहेलियों से लज्जित होती । आचार्य मेरुतुंग की रचना 'प्रबन्ध चिंतामणि' का समय सन् 1305 ई० स्वीकार किया जाता है। यह संस्कृत ग्रंथ 'भोज-प्रबन्ध' के ढंग प्रस्तुत हुए नमूने अधिकांश रूप से उद्धृत किए गए हैं।
बोलइ बाहुबली बलवन्त । लोह खण्डि तउ गरबीउ हंत ।
चक्र सरीसउ चूनउ करिउँ।
सयलहँ गोत्रह कुल संहरउँ ।।
जैन साहित्य में अलंकार विधान बड़े ही स्वाभाविक और हृदयस्पर्शी रूप में हैं। जैनाचार्य मेरुतुंग विरचित 'प्रबन्ध चिन्तामणि' से उपमालंकार का एक उदाहरण देखिए-
झाली तुहटी किं न मुउ, किन हुयउ छरपुंज ।
हिंदइ दोरी बँधी यड, जिम मंकड़ तिम मुंज ।।
रहस्यात्मक साहित्य-जैन साहित्यकी की एक बहुत बड़ी विशेषता है-रहस्यानुभूति का उल्लेख । यो तो जैन धर्म रहस्यवादी काव्य की संख्या बहुत ही कम है। मोइन् सचिव प्रकाश' और 'योगसार और मुनि रामसिंह का 'पाहुड़ दौता' जन-साहित्य की उल्लेखनीय रहस्यवादी काव्यकृतियों हैं। यह ध्यातव्य है कि जैन दर्शन में यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि आत्मसान से गिध्या दृष्टि दूर हो जाती है। फिर परमपद की प्राप्ति सहज रूप में हो जाती है।
समान विकल्पों का विलय ही तो परम समाधि है। परम समाधि से सारे संसार के अशुभ कर्म समाप्त हो जाते हैं। नोइन्दु ने अपनी रचनाओं को काव्यात्मक ढाँचे में ढालते हुए कहा है कि परमात्मा योग वेद और शारत्र से नहीं जाना जा सकता है। वह तो निर्मल ध्यान से जाना जा सकता है। दूसरी मुनिराम सिंह ने अपने 'पाहुड़ दोहा' में मूर्तिपूजा का खंडन किया है। इसमें योगपरक शब्दावली प्रयुक्त हुई है। स्त्रीपरक रूपकों के माध्यम से मोक्ष आदि वर्णन अत्यधिक उल्लेखनीय है ।
जैन रास सहित्य-जैन साहित्य की एक विलक्षण पहचान यह भी है कि जिस प्रकार बौद्ध सिद्धों ने हिन्दी के पूर्वी भाग में बौद्ध धर्म के यजयान मत का प्रचार हिन्दी कविता के माध्यम से किया, ठीक उसी प्रकार जैन साधुओं ने हिन्दी के पश्चिमी क्षेत्र में अपने मत का प्रचार-प्रसार हिन्दी कविता के माध्यम से किया। इन जैन साधुओं की रचनाएं आचार, रास, फागु, चरित आदि शैलियों में उपलब्ध है। आचार शैली के
जैन-काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता की प्रमुखता है। हम यह भली-भाँति जानते हैं कि 'रस' शब्द संस्कृत साहित्य में कीड़ा और नृत्य से सम्बन्धित था। आचार्य भरत मुनि ने इसे 'क्रीडनीयक' कहा है, वात्स्यायन के कामसूत्र' के रचनाकाल तक 'रास' में गायन का समावेश हो गया। अभिनव गुप्त के अनुसार 'रास' एक प्रकार का रूपक है। हम यह भी देखते हैं कि लोक-जीवन में 'रास' को एक प्रभावशाली रचना शैली का रूप दिया। जैन तीर्थंकरों के जीवन-चरित तथा
वैष्णव अवतारों की कथाएँ जैन-आदशों के आवरण में 'रास' नाम से पद्यबद्ध की गई। चौदहवीं शताब्दी तक इस पद्धति का प्रचार रहा। इस प्रकार जैन-साहित्य का सबसे लोकप्रिय रूप 'रास' ग्रन्थ बन गए । जैन सहित्य की प्रवृत्तियों के कुछ प्रमुख उल्लेख इस प्रकार है-जैन-साहित्य में गृहस्थ के कर्त्तव्यों पर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है, देवसेन जैन आचार्य द्वारा विरचित 'आवकाचार' नामक काव्य में गृहस्थ के कर्तव्यों के प्रति इस प्रकार दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं-
जो जिण सासण भाषियायउ, सोमइ कहियउ सारु । जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारु ।।
जैन रचनाकारों के व्याकरणिक ग्रन्थ और साहित्य
जैन रचनाकारों ने अपभ्रंश भाषा में साहित्य ही नहीं, अपितु व्याकरण ग्रन्थ भी लिखा । आचार्य हेमचंद्र का सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन अपभ्रंश भाषा का एक ऐसा व्याकरण ग्रन्थ है, जिसकी रचना का समय सन् 1143 ई० के आस-पास स्वीकार किया जाता है। इसमें न केवल अपभ्रंश भाषा ही है, अपितु संस्कृत और प्राकृत भी है। अपभ्रंश भाषा का एक उदाहरण इस प्रकार है-
भल्लु हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु । लज्जेजं तु लयां सिअहु जई भग्गा घरूएंतु ।।
अर्थात् हे बहिन ! मला हुआ जो हमारा कंत मारा गया। अगर वह भागा हुआ घर आता, तो में अपनी सहेलियों से लज्जित होती ।
आचार्य मेरुतुंग की रचना 'प्रबन्ध चिंतामणि' का समय सन् 1305 ई० स्वीकार किया जाता है। यह संस्कृत ग्रंथ 'भोज-प्रबन्ध' के ढंग लिखी गई है। इसमें प्रस्तुत हुए नमूने अधिकांश रूप से उद्धृत किए गए हैं। पर जैन-साहित्य की भाषा में नाटकीयता, उक्ति-वैचित्र्य और रसात्मकता के बड़े ही रोचक दर्शन होते हैं। मुनि जिन-विजय के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ' भरतेश्वर-बाहुबलीरास' से एक उदाहरण प्रस्तुत है-
बोलइ बाहुबली बलवन्त । लोह खण्डि तउ गरबीउ हंत । चक्र सरीसउ चूनउ करिउँ । सयलहैं गोत्रह कुल संहरउँ ।।
जैन साहित्य में अलंकार विधान बड़े ही स्वाभाविक और हृदयस्पर्शी रूप में हैं। जैनाचार्य मेरुतुंग विरचित 'प्रबन्ध चिन्तामणि' से उपमालंकार का एक उदाहरण देखिए -
आली तुहटी किं न मुउ, किन हुयउ छरपुंज । हिंदइ दोरी बँधी यउ, जिम मंकड़ तिम भुंज ।।
सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का परवर्ती हिन्दी के विकास में योगदान
डॉ० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, श्री राहुल सांस्कृत्यायन एवं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी पर अपभ्रंश के प्रभाव को दिखलाने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। सर्वप्रथम नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भाग थी में गुलेरीजी ने बहुत जोर देकर कहा कि अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी ही मानना चाहिए। अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थ बहुत समय तक अप्राप्य रहे तथा जर्मन के विद्वान् पिशेल के मतानुसार यह बहुत दिनों तक दुहराया जाता रहा कि अपभ्रंश का साहित्य एकदम खो गया है। 1913-14 ई० में अहमदाबाद जैन भंडार में 'भविष्यत्त-कहा' तथा राजकोट में 'नेमिनाथ चरित' नामक ग्रन्थ जर्मन पं० डॉ० हरमन याकोबी को मिले।
फिर तो सन्देश रासक, व्रण स्वामिचरित्र, चच्चरी, भावनासार, परमात्म प्रकाश, भविष्यत्त कहा, पउमसिरी चरिउ, हरवंश पुराण, जसहरि चरिउ, जायकुमार चरिउ, करकण्ड चरिउ, पाहुड़ दोहा आदि अनेक अपभ्रंश पुस्तकों का पता जैन ग्रन्थ भंडारों से लगा तथा वे सम्पादित एवं प्रकाशित भी हुईं। इनमें से अधिकांशतः ग्रन्थ जैन कवियों द्वारा लिखे गये हैं तथा जैन मंडारों से प्राप्त भी हुए हैं। जैन धर्म की महिमा गाई जाने पर भी इनका साहित्यिक महत्त्व कम नहीं है।
महापंडित राहुल सांरकृत्यायन ने इसी महत्त्व को स्वीकार करते हुए स्वयंभू तथा पुष्यदन्त की हस्तलिखित पोथियों से कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाओं का संग्रह कर हिन्दी काव्यधारा में प्रकाशित कराया तथा गुलेरीजी के समान ही अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी ही कहा है। हिन्दी साहियकारों और अलोचकों का ध्यान अपभ्रंश साहित्य की ओर जाना राहुलजी की दृढ़ कण्ठ घोषणा का ही परिणाम था ।
'हिन्दी साहित्य की भूमिका' नामक अपनी पुस्तक में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक स्रोत को अविच्छिन्न गति से प्रवाहित होते हुए दिखाकर यह बताने की चेष्टा की है कि अपभ्रंश की अनेक विशेषताओं को परवर्ती हिन्दी साहित्य अपने में धरोहर के रूप में संगठित किए हुए है। अतः हिन्दी भाषा और साहित्य की ओर ध्यान देना आवश्यक है।
'पातंजल महाभाष्य' में अपभ्रंश का प्राचीनतम उल्लेख प्राप्त होता है। शब्द और अपशब्द का विचार करते हुए महामुनि ने विकृत शब्दों के लिए अपभ्रंश का प्रयोग किया है तथा यह भी बताया है कि शब्द कम एवं अपशब्द बहुत हैं। एक-एक शब्द के अनेक अपभ्रंश हैं। स्पष्ट है कि अपभ्रंश का प्रयोग पतंजलि ने किसी भाषा के लिए नहीं किया। भारत के एक नाट्य सूत्र पर विचार करते हुए अपभ्रंश का सम्बन्ध भाषा-वैज्ञानिकों ने आभीरों की भाषा से जोड़ा है।
इस प्रकार यह विवाद का विषय रहा है कि अपभ्रंश किसे कहें? परन्तु आज यह पूर्णतः स्वीकृत हो चुका है कि ग्यारहवीं शती में एक शिष्ट जन समूह की भाषा थी, उसका साहित्य उच्च कोटि का था। अपभ्रंश काव्य के अन्तर्गत ही हेमचन्द, सिद्ध कवियों एवं जैन कवियों की कृतियाँ आती है।
मध्यकालीन अपभ्रंश भाषाओं से ही भारत की आधुनिक भाषाओं में से अधिकांश का सम्बन्ध रहा है। शौरसेनी तथा अर्थमागधी अपभ्रंश के द्वारा ही हिन्दी भाषा का विकास हुआ है। अतः अपभ्रंश का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर होना स्वाभाविक ही है। हिन्दी साहित्य के विभिन्न अंग-कथा साहित्य, काव्य छन्द और काव्य रूप यदि विकासोन्मुख अपभ्रंश के प्रभाव से प्रभावित हुए, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । 'हिन्दी साहित्य के आदिकाल' में इसी बात पर बल देते हुए डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है "परवर्ती हिन्दी साहित्य के काव्य रूप के अध्ययन में ये पुस्तकें बहुत सहायक हैं।"
अपभ्रंश का प्रभाव हिन्दी के आदि महाकाव्य "पृथ्वीराज रासो" पर स्पष्ट दिखाई देता है। काव्य भी है, क्योंकि उस पर अपभ्रंश के चरित काव्यों एवं रासो काव्यों का भी प्रभाव पड़ा है। उसी ढंग से रासो का भी। वह चरित काव्य के साथ ही साथ 'रासक' संदेशरासक का आरम्भ जिस ढंग से हुआ,
अपभ्रंश काव्यों की प्रेम सम्बन्धी सभी काव्य रूढ़ियों का समावेश योजनापूर्वक 'रासो' में देखने को मिलता है। कवि ने जिस बाह्य प्रकृति के व्यापारों का वर्णन संदेशरासक में किया है, वह कवि प्रथा के अनुसार 'रासो' के ही समान है। शशिव्रता विवाह के प्रसंग में विरहजन्य दुःख को तीव्र बनाने के लिए रासोकार ने ऋतु-वर्णन का सहारा लिया है। विरह की अनुभूति उसी प्रकार यहाँ भी चित्रित की गयी है जैसे संदेशरासक में या ढोला मारूरा दोहा में। तुलसी के रामचरित मानस की रचना शैली व स्वयंभू की 'जैन रामायण' एक-दूसरे से मिलती हैं।
जैन साहित्य में 'रास' नामक अनेक रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में मिलती हैं, जैसे श्वेताम्बर साधुकृत 'गौतमरास', धर्म सूरि लिखित 'जंगूस्वामी रास' । इसी प्रकार संदेशरासक नामक अपभ्रंश काव्य भी उच्च कोटि का प्रबन्ध काव्य है। हिन्दी काव्यों के लिए अपभ्रंश के ये काव्य रीढ़ के समान रहे हैं। अपभ्रंश के इन्हीं चरित काव्यों के आधार पर हिन्दी के प्रेमाख्यानक कवियों ने अपने प्रेमाख्यानों को लिखा है। यही कारण है कि हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों और अपभ्रंश काव्यों में पर्याप्त साम्य मिलता है।
उदाहरण के लिए, हिन्दी के सूफी प्रेमाख्यानक काव्य-पद्मावत, मधुमालती, मृगावती तथा अपभ्रंश के भविष्यत्त कहा, जसहरि चरिउ, करकण्ड चरिउ आदि में अनेक बातों में समानता देखी जा सकती है - प्रेम कथा में गुण श्रवण या चित्र दर्शन से प्रेम का आरम्भ विवाह से पूर्व नायक के प्रयत्न, सिंघल यात्रा, शुक का संदेश ले जाना, आध्यात्मिक संकेत आदि। आध्यात्मिकता के तत्व दोनों में पाये जाते हैं, जिन्हें जनजीवन की प्रेम-लीला के साथ प्रस्तुत किया गया है। निजंधरी कथाओं के प्रयोग रूढ़ियों तथा विषय-वस्तु की दृष्टि से अपभ्रंश काव्यों का पर्याप्त प्रभाव हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों पर पड़ा है।
हिन्दी के सन्त-कवियों पर सिखों और नाथपंथियों के अपभ्रंश भाषा में लिखित काव्य का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। सिद्धों और नी ने अपने काव्य में जिन पर लिया और एवं धन्दों का प्रयोग किया है, हिन्दी के सन्त कवियों ने भी लगभग उन्हीं रूड़ियों, मान्यताओं छन्दों को अपने काव्यों में प्रयुका विव्यात कबीर आदि सन्तों की रचनाओं में बौद्ध गानों की पद रचना मुखरित हुई है। इसलिए डॉ० हमारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-"वे. ही पद, वे ही राग-रागनियों, वे ही वोहे, वे ही चौपाइयाँ कबीर आदि ने व्यवहार की है, जो उक्त मत मानने वाले उनके पूर्ववर्ती सन्तों ने की थी।"
इतना ही नहीं, डिंगल काव्य परम्परा के माध्यम से भी अपभ्रंश का प्रभाव कबीर आदि पर पड़ा है। 'ढोला मारूरा दोहा' राजस्थानी भागण में अत्यन्त ही विकसित एवं समृद्ध काव्य है तथा वियोग एवं संयोग के बड़े ही सुन्दर चित्र इसमें उपलब्ध होते हैं। कबीर की साथी में जगह-जगह पर विरह की बड़ी ही मार्मिक व्यंजना देखने को मिलती है। विद्वानों का मत है कि कबीर के दोहे डिंगल काव्य के वर्णन से अत्यधिक प्रभावित है, लेकिन कबीर ने अपनी प्रतिभा से उन्हें साज-सँवार दिया है।
रामकथा पर आधारित जैन अपभ्रंश साहित्य में स्वयंभू रचित 'पऊम बरिउ' एक प्रसिद्ध काव्य ग्रन्थ है। उसके आरम्भ में गुरु बन्दना के बाद रामकथा को नदी की समता प्रदान की गयी है तथा अपनी अयोग्यता का विनवपूर्वक निवेदन कवि ने किया है। तदुपरान्त उसमें दुर्जनों की बन्दना तथा सज्जनों की प्रशंसा की गयी है। तुलसी के रामचरित पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अपभ्रंश के इस काव्य का प्रभाव अवश्य पड़ा है, क्योंकि तुलसी ने भी प्रारम्भ में गुरु बन्दना के बाद रामकथा की तुलना दुर्जनों और सज्जनों के सम्बन्ध में लिखकर सरोवर से की है। अपभ्रंश
की तरह ही कथान्तररूप में भी पूर्व कथा की योजना तथा श्रोता-वक्ता के कई जोड़े उपस्थित हैं। केशव की 'रामचन्द्रिका' महाकाव्य तो नहीं, फिर भी यह एक सुन्दर काव्य है। रामचन्द्रिका को विविध छन्दों से युक्त काव्य स्वयं ही केशव ने कहा है, छन्द परिवर्तन के लिए केशव अपभ्रंश काव्य 'जिन दत्त चरित' के ऋणी है, क्योंकि उसमें भी छन्द परिवर्तन जल्दी-जल्दी ही होता है। सूरदास के गेय पद 'गाथा सप्तसती' से तो कुछ मिलते ही है, साथ ही हेमचन्द्र के दोहों से भी उनके दोहे बहुत कुछ मिलते हैं।
अपभ्रंश लोकगीत परम्परा से मीरा की वाणी बहुत निकट है। अपभ्रंश काव्य के प्रभाव की द्योतक नायक-नायिका भेद तथा अन्य शैलीगत विशेषताएँ हैं। अपभ्रंश के गुणानुवाद प्रधान चरित काव्यों के अनेक लक्षण विद्यापति की 'कीर्तिलता' से मिलते हैं। सारांश यह है कि अपभ्रंश काव्य से चन्दवरवाई से लेकर मीरा तक बहुत-से हिन्दी कवि प्रभावित है। अपभ्रंश के चरिया गीतों का प्रभाव हिन्दी साहित्य के आदि युग में वीर गीतों की परम्परा पर है। उस समय के प्रबन्ध काव्यों के शृंगारिक अंश अपभ्रंश काव्य के ऋणी है। अपभ्रंश के श्रृंगार काव्यों से मध्य कालीन हिन्दी कविता भी अत्यधिक प्रभावित रही है। अपभ्रंश श्रृंगार काव्यों से हिन्दी का रीति कालीन
श्रृंगारी काव्य जिनमें ग्राम वधूटियों की श्रृंगार चेष्टाएँ, नायिकाओं के क्रिया-कलाप, उनके हृदयगत भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति प्रभावित है । रीतिकालीन अनेक कवितयों बिहारी, देव, मतिराम आदि की श्रृंगारिक भावनाओं पर तत्कालीन लक्षण ग्रन्थों पर 'गाथा सप्तसती' का प्रभाव रपष्ट दिखाई देता है। विहारी सतसई में 'गाथा. सप्तसती' से अनेक स्थलों पर भावसाम्य है।
अपभ्रंश का प्रभाव हिन्दी काव्य का ही विषय नहीं, उनकी रचना-शैली और छन्दों पर भी स्पष्ट देखा जाता है। अपभ्रंश काव्य के शैली की छाया जायसी के 'पद्मावत' का बारहमासा के 'मानस' में देखने को मिलती है। अपभ्रंश के काव्य कडवकबद्ध है। कवि एक धत्ता का ध्रुवक पंझटिका या अरिल्ल छन्द की कई पंक्तियाँ लिखकर देता है। कई पंझटिका, अरिल्ल या ऐसे ही किसी छोटे छन्द को देकर अन्त में धत्ता का ध्रुवक यह कडवक है।
इसी कडवक पद्धति को आठ या कुछ कम ज्यादा चौपाइयों के बाद दोहा का धत्ता देकर तुलसी के 'मानस' में स्वीकार किया गया है। तुलसी रामायण के इन कडवकों को दोहा धत्तक कडवक कह सकते हैं, क्योंकि उसमें दोहा छन्द का प्रयोग धत्ता के स्थान पर किया गया है। अवधी के प्रबन्ध काव्यों में दोहा के स्थान पर परवर्ती काल में अन्य छन्दों के रखने की प्रवृत्ति भी मिलती है; जैसे- 'अनुराग बाँसुरी' में नूर मोहम्मद ने दोहा के स्थान पर बरवे का प्रयोग किया है।
अपभ्रंश के कई छन्दों का प्रयोग सूर साहित्य में हुआ है, दीनदयाल की कुण्डलियाँ भी अपभ्रंश छन्द की ऋणी हैं। अपभ्रंश के वर्णन वृत्तों का सफल प्रयोग रासो ग्रन्थों और केशव की 'रामचन्द्रिका' में हुआ है। अपभ्रंश का दूहा छन्द का परिवर्तित रूप हिन्दी का दोहा छन्द है। अपभ्रंश से ही सोरठा नामक छन्द भी लिया गया है। हिन्दी में चौपाई के रूप में अपभ्रंश का 'अडिल्ल' छन्द प्रयुक्त किया जाता है। हिन्दी में रोला अपभ्रंश के 'उल्लाला' का परिवर्तित रूप है। इस प्रकार अपभ्रंश से ही हिन्दी के अनेक छन्द लिए गये हैं।
हिन्दी अपभ्रंश की अलंकारों के क्षेत्र में भी ऋणी है। अपभ्रंश की दार्शनिक, बुद्धिवादी परम्परा से ही हिन्दी में प्रस्तुत में अप्रस्तुत का विधान करना रूपक के सहारे अथवा सांकेतिक भाषा में नवीन भावों को प्रस्तुत करना लिया गया है। हिन्दी में अपभ्रंश के द्वारा ही ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग भी किये गये हैं। अपभ्रंश की अनेक लोकोत्तियाँ, मुहावरे, कथानक, रूढ़ियाँ आदि भी हिन्दी के कवियों ने ग्रहण की हैं।
इस प्रकार भाव-पक्ष व कला-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से हिन्दी साहित्य अपभ्रंश काव्य से प्रभावित है। अपभ्रंश ने जिस प्रकार संस्कृत से उत्तराधिकार के रूप में बहुत कुछ पाया, उसी प्रकार हिन्दी ने भी अपभ्रंश से परम्परा के रूप में बहुत कुछ लिया है। संक्षेप में यह हम कह सकते हैं कि जैन सिद्ध साहित्य ने परवर्ती हिन्दी काव्यधारा को अपनी विभिन्न प्रवृत्तियों और शैलियों से विशेष रूप से प्रभावित किया है अतएव इसका हिन्दी साहित्य के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
सारांश
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक के आधार पर हम यह कह सकते है कि नाथों की मिश्रित अनुभूति ने न केवल मिश्र भाषा को ही, अपितु मित्र संस्कृति को जन्म दिया है। यह भी कि नाथों और सिद्धों के दार्शनिक स्वरूप अलग-अलग थे। जैन साहित्य धार्मिक और मानवीय संवेदनापूर्ण था, इस तथ्य को स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है। इस प्रकार सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य ने अपने बेजोड़ वैशिष्ट्य के द्वारा परवतीं हिन्दी साहित्य को वहुत अधिक प्रभावित किया ।
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