हिन्दी साहित्य- रासो काव्य एवं लौकिक साहित्य Raso poetry and secular literature

Advertisement

6/recent/ticker-posts

हिन्दी साहित्य- रासो काव्य एवं लौकिक साहित्य Raso poetry and secular literature



इकाई की रूपरेखा

4.0 उद्देश्य

4.8 रासो काव्य में अभिव्यक्ति कौशल

4.1 प्रस्तावना

4.9 लौकिक साहित्य

4.2 रासो साहित्य की प्रामाणिकता और अप्रमाणिकता

4.9.1. संदेश रासक

4.3 रासो साहित्य की पृष्ठभूमि

4.9.2. ढोला मारूरा दूहा

4.4 रासो साहित्य में विचारणीय विन्दु

4.9.3. गय रचनाएं

4.5 रासो साहित्य में कथानक रूढ़ियां

4.9.4. विद्यापति

4.6 रासो साहित्य में कथात्मक संरचना

4.9.5. अमीर खुसरो

4.7 रासो साहित्य में वीरगीत

4.9.6. दक्खिनी हिन्दी

4.10 सारांश



उद्देश्य

इस इकाई में रासो काव्य और लौकिक साहित्य पर प्रकाश डाला जायेगा। रासो काव्य रचना किस प्रकार प्रेरक ऐतिहासिक परिस्थिति रही और इसकी रचना-विधान का स्वरूप क्या रहा था, इस तथ्य पर भी यहाँ प्रकाश डाला जाएगा। इसके साथ ही रासो साहित्य की वीरगाथात्मक प्रवृत्ति को भी समझाने का यहाँ प्रयत्न किया जाएगा ।



 इस इकाई में लौकिक साहित्य किस प्रकार मिथिला से लेकर राजस्थान तक के अंचल में फैला हुआ साहित्य है, इस तथ्य के साथ-साथ इसमें समायी हुई संवेदना की विविधता को भी स्थानीय संस्कृति के संदर्भ विवेचित किया जाएगा ।



प्रस्तावना

इससे पहले इकाई 3 में सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य पर प्रकाश डाला गया है। इसके अंतर्गत इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला गया है कि उसकी मूल भाषा अपभ्रंश ही थी। इसके साथ-साथ उसने देश भाषा को भी अपनाया। दसवीं शताब्दी के बाद अपभ्रंश भाषा के साथ लोकभाषा बहुप्रचलित हो गयी। राजस्थान से मिथिला तक के दरवारों में देशी भाषा और अपभ्रंश दोनों में ही काव्य रचने की पद्धति चल पड़ी थी। 



इस प्रकार आदिकाल में दो साहित्यिक प्रवृत्तियाँ दिखाई देती है। इन्हें दो अलग-अलग नामों से जाना जाता है-रासोकाव्य और लौकिक साहित्य । इन दोनों की रचना किस प्रकार एक विशेष प्रकार की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के बीच हुई थी, और इस व्यवस्था ने किस प्रकार साहित्य को प्रभावित किया, इन्हीं बातों पर इस. इकाई में प्रकाश डाला जाएगा ।




रासो साहित्य की प्रामाणिकता और अप्रमाणिकता

रासो साहित्य की प्रमाणिकता और अप्रमाणिकता पर विचार करने से पहले रासो ग्रन्थ कौन-कौन से हैं, इस पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने रासक या रासो परम्परा की चौबीस रचनाओं का उल्लेख किया है, वे इस प्रकार है- रचियता मुल्तान निवासी अब्दुल रहमान, भाषा अपभ्रंश ।



(1) सन्देशरासक- प्रबन्ध चिंतामणि में इसके पद्य मिलते हैं। यह सं. 1150 के आस-पास की रचना है।

(2) मुञ्जरासो- इसकी पूर्ण रचना अनुपलब्ध है। यह अपभ्रंश में रचित है।

(3) पृथ्वीराज रासो- चन्दबरदाई डॉ. माताप्रसाद गुप्त के अनुसार सं. 1450 के लगभग, एक लघु रचना ।

(4) हम्मीररासो-  शारङ्गवर रचित, केवल आठ छन्द उपलब्ध ।

(5) बुद्धिरासी- रचयिता जल्ह कवि, समय सं. 1450 के लगभग, एक लघु रचना ।

(6) परमालरासो

(7) राजजैतसीरासो- अज्ञात लेखक ।

(8) विजयपाल रासो- नल्हसिंह भाट्टी की रचना, अपूर्ण रूप में उपलब्य ।

(9) रामरासो - माधवदास चारण की रथी सं. 1675 की रचना ।

(10) राणरासो

(11) रतनरासो

(12) कायमरासो

(13) शत्रुपाल रासो

(14) मांकण रासो

(15) सगतसिंह रासो

(16) हम्मीर रासो- (महेश कवि कृत)

(17) हम्मीर रास- (जोधराज कृत)

(18) खुमाण रास- दलपति विजय कृत ।

(19) रासा भगवन्त सिंह का

(20) करहिया कौरायसो - गुलाबकवि, रचनाकाल सं. 1834

(21) रास भइया बहादुरसिंह का

(22) रायसा

(23) कलियुग रासो

(24) पारीछत रायसा- (श्रीधर कृत) रचनाकाल सं. 1873



आदिकाल में उपलब्ध लगभग सभी रासो ग्रन्थ प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। इन ग्रन्थों के रचनाकारों के विषय में भी प्रामाणिक रूप से कुछ कहना कठिन है। हम्मीर रासो ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। यह केवल नोटिस मात्र है। इसके रचयिता के विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। 



आचार्य शुक्ल शाङ्गधर नामक कवि को हम्मीर रासो का रचयिता मानते हैं तथा राहुल सांकृत्यायन इस रचना को जज्जल कवि द्वारा रचित मानते हैं। दलपत विजय द्वारा रचित खुमान रासो भी प्रायः प्रामाणिक रचना नहीं है। 



इसमें महाराणा प्रताप तक के समय का वर्णन मिलता है। शुक्लजी इसके वर्तमान रूप को सत्रहवी शताब्दी की उपलब्धि मानते हैं। श्री मोतीलाल मेनारिया तथा श्री अगरचन्द नाहटा आदि विद्वानों के अनुसार इसका रचनाकाल संवत् 1730 से 1760 के बीच माना जा सकता है।



 वास्तव में खुमान रासो का मूल रूप उपलब्ध नहीं है। बीसलदेव रासो में भी अनेक ऐतिहासिक त्रुटियां परिलक्षित होती हैं। इस रचना के प्रथम खण्ड में भालना के भोज परमार की पुत्री राजमती से शाकम्भीरी नरेश बीसलदेव के विवाह का वर्णन है। 



ऐतिहासिक दृष्टि से यह विल्कुल असंगत है। बीसलदेव से सौ वर्ष पूर्व ही भोज का देहान्त हो चुका था। मेनारियाजी इसका रचना काल संवत् 1545-60 मानते हैं। यह ग्रन्थ भी निर्विवाद रूप से प्राचीन नहीं माना जा सकता ।



पृथ्वीराज रासो हिन्दी भाषा का गौरव ग्रन्थ है। परन्तु यह भी आज तक विवाद का विषय बना हुआ है। इस ग्रन्थ में वर्णित पृथ्वीराज रासो का जन्म संवत् तथा अन्य अनेक घटनाएं इतिहास से मेल नहीं खातीं। पं० गौरीशंकर हीरानन्द ओझा के अनुसार, 'पृथ्वीराज रासो विल्कुल अनैतिहासिक ग्रन्थ है।



 उसमें चौहानों, प्रतिहारों और सोलंकियों की उत्पत्ति की कथा, चौहानों की वंशावली, पृथ्वीराज की माता, भाई, बहिन, पुत्र और पत्नियों आदि के विषय की कथाएं तथा बहुत-सी घटनाओं के संवत् और प्रायः सभी घटनाएं तथा सामन्तों आदि के नाम अशुद्ध और कल्पित हैं।' 




ओझाजी पृथ्वीराज रासो का रचनाकाल वि० संवत् 1600 के आसपास मानते हैं। पृथ्वीराज रासो के लघु संस्करण कुछ समय बाद उपलब्ध हुए। उनमें ऐतिहासिक वृटियां नहीं हैं। आजकल अधिकांश विद्वान् यह मानते हैं कि चन्द पृथ्वीराज का समकालीन था और उसने पृथ्वीराज पर एक चरित काव्य लिखा था। इस ग्रन्थ में धीरे-धीरे अनेक चारणों में स्वरचित अंश मिला दिये और धीरे-धीरे इसका कलेवर बढ़ता गया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि रासो ग्रन्थों में प्रामाणिकता का अभाव है।



चन्द्रबली पाण्डेय, पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र तथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पाण्डेयजी के अनुसार 'रासक' संस्कृत के अठारह उपरूपक में से एक भेद है। रूपक में जिस प्रकार नायक-नायिका अथवा नट-नदी संवाद होता है, वैसे ही पृथ्वीराज रासों में 'चन्द' और 'गौरी' का संवा है। मिश्रजी रासो को रासक से व्युत्पन्न मानते हैं, किन्तु इसका अर्थ काव्य मानते हैं। द्विवेदीजी के अनुसार रासक नेय रूप कहलाता है, जैस कि हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में माना है। 



जिस प्रकार विलास, रूपक और प्रकाश नाम देकर चरित-काव्य लिखे गये, उसी प्रकार 'रासो' 'रासक' नाम देकर भी चरित-काव्य लिखे गये। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि रूपता शब्द किसी अभिनेयता की ओर संकेत करता है, वह शब् केवल इस बात की ओर संकेत करके विरक्त हो जाते हैं कि वे काव्य रूप किसी समय गेय और अभिनेय थे। 'रासक' का तो इस प्रकार या लक्षण भी मिल जाता है, परन्तु धीरे-धीरे ये भी कथा या चरित काव्य के रूप में ही याद किये जाने लगे। इनका पुराना रूप क्रमशः भुला दिया गया ।



सन्देशरासक की एक पंक्ति में रासउ शब्द प्रयुक्त है, जो रासक और रासो के बीच की कड़ी प्रतीत होता है। इसी प्रकार कुछ अन्य विद्वानों ने अनुमान किया है कि प्रारम्भ में रास एक गानयुक्त नृत्य था। जब इसमें अभिनय का समावेश हुआ, तो वह गेय रूपक बना और रासक कहलाया। बाद में 'रासक' चरित-काव्य के रूप में विकसित हुआ और उसमें से अभिनय निकल गया ।



उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि रासो आदिकालीन साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण काव्य रूप है। इसमें जैन अपभ्रंश साहित्य में चरित्-काव्यो की परम्परा में रचे जाने चरित-काव्यों की सूचना मिलती है। द्विवेदीजी के अनुसार इनका लोक में अधिक प्रचलन देखकर नाट्यशास्त्रियों ने इसकी गणना रूपक तथा उपरूपकों में की है। किन्तु राजस्थानी साहित्य में यह चरित काव्यों में चरित नायक के साथ रूढ़ हो गया



इसलिए आदिकाल में 'रासो' शब्द से रूपकों और उपरूपकों का कोई संकेत नहीं मिलता है। आदिकाल में निश्चय रूप से 'रातो' राजस्थानी भाषा में रचित चारण कवियों के चरित काव्यों का सूचक है। 'रासो' नामधारी चरित्र-काव्यों की सामान्य विशेषता ऐसी रचनाओं का वर्णन है, जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है।




रासो साहित्य में विचारणीय विन्दु

रासो साहित्य में निम्नलिखित विचारणीय बिन्दु है-

(1) रासो साहित्य प्रायः वीर चरित काव्य है।

(2) इनमें अपभ्रंश के चरित काव्य की कथानक सढ़ियों एवं काव्य रूढ़ियों प्रयुक्त हुई हैं। जैसे संवादतत्व शुक-शुकी के संवाद के रूप में।

(3) रासो परम्परा की रचनाएँ अधिकतर बड़ी हैं। उनमें प्रायः छन्द वैविध्य भी अधिक है। पृथ्वीराज रासो में लगभग बहत्तर प्रकार के मात्रिक, वर्णिक, संयुक्त तथा फुटकर छन्दों का प्रयोग हुआ है।

(4) इन काव्यों में युद्धों का प्रसंग बहुत अधिक मिलता है।

(5) इन काव्यों में वीर रस प्रधान है। साथ ही श्रृंगार का भी मार्मिक चित्रण हुआ है।

(6) इनमें गेयता आदि लोकतत्त्व विद्यमान हैं।

(7) इनमें आश्रययाता राजाओं की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है।

(8) इनमें इतिहास और कल्पना का सम्मिश्रण है।

(9) ये प्रायः प्रबन्ध काव्य हैं।

(10) काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से भी रासो काव्य महान् है।

( 11) इनमें अनुभूति और अभिव्यक्ति का सुन्दर समन्वय हुआ है।

( 12) इन काव्यों की भाषा में वैदिक, संरकृत, पालि, पैशाची, मागधी, अर्द्ध-मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश, प्राचीन राजस्थानी, प्राचीन गुजराती तथा ब्रज, पंजाबी आदि भारतीय आर्य भाषाओं के शब्दों के अतिरिक्त अरबी, फारसी, तुर्की के शब्दों की अनोखी खिचड़ी मिलती है तथा देशज शब्दों की बहुलता इन काव्यों में बहुत है।

(13) रासो काव्य प्रायः सगों में विभक्त होते हैं।

(14) सत्रहवीं शती से उन्नीसवीं शताब्दी तक कुछ हास्य मिश्रित रासो ग्रन्थ भी लिखे गये हैं। इनमें मांकण रासो, अन्दररासो, खीचड़ रासो और गोधा प्रमुख हैं।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ