हिन्दी साहित्य- भक्ति काल: काल-विभाजन और नामकरण Bhakti period: period division and naming

Advertisement

6/recent/ticker-posts

हिन्दी साहित्य- भक्ति काल: काल-विभाजन और नामकरण Bhakti period: period division and naming



भक्ति काल: काल-विभाजन और नामकरण

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल अथवा पूर्व-मध्यकाल का समय संवत् 1375 से संवत् 1700 तक माना जाता है। यह हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहलाता है। इसमें तुलसी, सूर, जायसी तथा कवीर जैसे महान् कवियों ने अपनी रचनाओं से समाज को एक नयी दिशा प्रदान की। भक्ति की परम्परा का प्रारम्भ तो आदिकाल में ही हो चुका था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भक्ति काल के प्रादुर्भाव के मूल में हिन्दुओं की बरण निराशा को मानते हैं।



 शुक्तजी के अनुसार, 'देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए अवकाश न रह गया। उनके सामने ही देव-मन्दिर गिराए जाते थे, देव-मूर्तियां तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ?



शुक्लजी की धारणा उचित प्रतीत नहीं होती, क्योंकि भक्ति का प्रारम्भ उत्तर में न होकर दक्षिण में हुआ था। उस समय दक्षिण पा मुसलमान राजाओं का अधिकार नहीं था। भक्ति की परम्परा दक्षिण भारत के आलवार भक्तों के समय से चली आ रही थी। डॉ० ग्रियर्सन के अनुसार भारतीय भक्ति परम्परा पर ईसाई मत का प्रभाव है और यह भक्तिधारा बिजली की चमक के समान अचानक प्रकट हुई । कोई



हिन्दू यह नहीं जानता कि यह बात कहाँ से आई और कोई भी उसका प्रादुर्भाव काल निश्चित नहीं कर सकता । डॉ० त्रियर्सन का मत तर्कसंगत नहीं माना जा सकता। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि भक्ति-आन्दोलन अचानक चिजली की चमक के समान नहीं फैला, अपितु उसके लिए सैकड़ों वर्षों से मेघ खण्ड एकत्र हो रहे थे। द्विवेदी जी के शब्दों में, 'यह बात अत्पन्ना उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे, तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद रूप में दक्षिण में भक्त लोगों ३ भगवान की शरणागति की प्रार्थना की । '



रीतिकाल का सीमा-निर्धारण

हिन्दी साहित्य के इतिहास में उत्तर-मध्य काल अर्थात् रीति काल की समय सीमा को सन् 1643 ई० से 1843 ई० तक स्वीकार किया गया है। यह काल-विभाजन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के द्वारा किया गया काल-विभाजन है। इसे परवर्ती इतिहासकारों ने मान्यता प्रदान कर दी। रीतिकाल के सीमा-निर्धारण की यह बहुत बड़ी कठिनाई है कि भक्ति काल और रीति काल के संधि-स्थल पर आचार्य केशवदास खड़े हुए दिखाई देते हैं। दूसरे शब्दों में, वे काल की दृष्टि से तो भक्तिकाल में हैं, लेकिन प्रवृत्ति की दृष्टि से रीतिकालीन कवियों में हैं। इसलिए इस साहित्य के इतिहास में लगभग 50 वर्ष का समय इधर-उधर हो सकता है। ऐसा इसलिए कि प्रवृत्ति निर्माण और नये मनोभाव के बनने मैं इतना समय अवश्य लग जाता है। समय-सीमा के निर्धारण में इन अंतर्विरोधों को समझना पड़ेगा। युग की मनोभूमि और उसके रुचि परिवर्तन को समग्रता में विश्लेषित करने के उपरांत ही परिदृश्य स्पष्ट होता है।



हिन्दी-साहित्य के इतिहास में संवत् 1700 से 1900 तक का युग रीति काल कहलाता है। साहित्य के इतिहास में नामकरण या तो किसी मुख्य प्रवृत्ति के आधार पर किया जा सकता है अथवा किसी साहित्यकार के नाम पर उस काल का नाम रख दिया जाता है। यदि कोई नाम उस काल में रचित साहित्य के किसी भी भाग को अछूता छोड़ता है, तो वह नामकरण सार्थक नहीं कहा जा सकता ।



रीति काल के नामकरण के विषय में विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किए हैं। रीति काल एक ऐसा युग था, जिसमें श्रृंगार की प्रधानता के साथ-साथ वीर रस की रचनाएं भी लिखी गईं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल का समय संवत् 1700 से 1900 तक माना तथा इसे रीति काल का नाम दिया। सामान्य व्यवहार में 'रीति' का अर्थ 'तरीका', 'प्रणाली' या 'परिपाटी' माना जा सकता है। 'वामन' ने रीति का प्रयोग रचना के उस विशिष्ट ढंग के लिए किया, जिसे अपनाने से काव्य-सौष्ठव अधिक निखर उठे। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शुक्लजी ने नामकरण पर विचार करते हुए लिखा है 'यहां आकर कविता को प्रेरणा देने वाली शक्ति अलंकार, रस और नायिका भेद हो जाते हैं।' यहां साहित्य की गति देने में अलंकार शास्त्र का ही जोर है, जिसे उस काल में रीति, कवित्त रीति या सुकवि रीति कहने लगे थे। संभवतः इन्हीं शब्दों से प्रेरणा पाकर शुक्लजी ने इस श्रेणी की रचनाओं को रीतिकाव्य कहा ।




आचार्य शुक्ल का कथन है कि जिस कालखण्ड के भीतर किसी विशेष प्रकार की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़े, वह एक अलग काल माना जाना चाहिए और उस काल का नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरूप के आधार पर किया जाना चाहिए । इस प्रकार प्रत्येक काल का एक निर्दिष्ट लक्षण बताया जा सकता है। इसके साथ ही दूसरी बात है-ग्रन्थों की प्रसिद्धि । जिस काल के भीतर जिस तरह के ग्रन्थ अधिक पाए जाएं। उस काल की उसी प्रकार की रचना पद्धति मानी जायेगी। किन्तु यदि कुछ अप्रसिद्ध रचनाएं भी किसी कोने में मिल जाएं, तो उन रचनाओं को अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए।



 इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर शुक्लजी ने इस काल को रीतिफाल की संज्ञा दी। आचार्य शुक्ल ने केवल उन्हीं कवियों को रीतिकालीन नहीं माना, जो रीति-रचयिता थे, उन्होंने उनको भी रीतिकालीन कवि माना जो रीति के बन्धन में थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० नगेन्द्र, डॉ० भगीरथ मिश्र तथा डॉ० लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय आदि विद्वान् भी इस युग को रीतिकाल कहना ही उचित समझते हैं।



 मिश्र बन्धुओं ने इस काल का नाम अलंकृत काल रखा। उनके अनुसार इस काल के कवि कविता-कामिनी को छन्दों तथा अलंकारों से ढक देना चाहते थे। इसी कारण इस काल की कविता में अलंकारों की प्रधानता आ गयी है। उन्होंने तो इतना भी कहा है कि इस काल के कवियों ने अलंकारों का प्रयोग भावानुभूति को ऊँचा उठाने के लिए नहीं किया, अपितु उन्होंने अलंकारों को साध्य माना है। 



अलंकारों को प्रकट करना ही उनका मुख्य ध्येय था, न कि भावों में प्रखरता और सुन्दरता लाने के लिए इन अलंकारों का प्रयोग किया गया है। अलंकृत काल नाम को ध्यानपूर्वक देखने के पश्चात् हम इस निश्चय पर पहुँचते हैं कि यह नामकरण भी ठीक नहीं है। अलंकृत काल कहने से हम भावों की उपेक्षा कर जाते हैं। 



भावों से रहित कविता तो कविता हो ही नहीं सकती। कविता में भाय पक्ष तथा कला पक्ष का होना उसी प्रकार अनिवार्य है, जिस प्रकार खीर बनाने के लिए दूध और चावल का होना। दूसरी बात यह है कि इस काल की कविता में केवल अलंकारों की ही प्रधानता नहीं है। केशव को छोड़कर इस काल में अन्य अनेक ऐसे कवि हुए हैं, जिन्होंने रस अथवा ध्वनि को ही काव्य की आत्मा माना है। ऐसे कवियों मे मतिराम अथवा बिहारी आदि का नाम लिया जा सकता है। 



इस प्रकार इस युग को अलंकृत काल की संज्ञा नहीं दी जा सकती । डॉ० रमाशंकर रसाल ने इस काल को कला-काल की संज्ञा दी है। वस्तुतः कला-काल नाम भी उपयुक्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह भी काव्य के भाव-पक्ष को अपेक्षित महत्त्व नहीं देता ।



इस काल के लक्षण-ग्रन्धकार कवियों में कुछ ऐसे कवि हुए हैं, जिन्होंने अपने हृदयगत भावों की सुन्दर कविताओं की रचना की है। इस प्रकार यह नामकरण तत्कालीन परिस्थिति का एकांगी चित्र प्रस्तुत करता है, इसी कारण यह नामकरण भी ठीक नहीं है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने इस काल का नाम श्रृंगार काल सिद्ध किया है। इनके मतानुसार इस युग में सभी रचनाएं श्रृंगारपरक हुईं। किन्तु इस प्रकार की धारणा ठीक नहीं है।



 मिश्रजी ने इस सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इस वाक्य को दोहराया है- 'वास्तव में श्रृंगार और वीर-इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। प्रधानता श्रृंगार की ही रही। इसलिए इस काल को रस के विचार से कोई श्रृंगार काल कहे, तो कह सकता है।'



किन्तु मिश्रजी का श्रृंगार काल नामकरण भी ठीक नहीं जंचता। इस काल के कवियों ने केवल रति को स्थायी भाव मानकर उसी के संचारी विभाव तथा अनुभावों का प्रयोग करके श्रृंगार रस की ही रचना नहीं की, अपितु उन्होंने काव्य के अन्य अंगों अर्थात् अलंकार इत्यादि पर भी ध्यान दिया है। शृंगारिकता की प्रवृत्ति का हिन्दी-साहित्य पर प्रभाव पड़ा, किन्तु इसी आधार पर इस काल को श्रृंगार काल कह दिया जाये, तो ठीक नहीं लगता।



 आदि काल तथा भक्ति काल में भी श्रृंगारिकता की रचनाएं होती रहीं, किन्तु इनमें से किसी भी काल को श्रृंगार काल नहीं कहा, तो फिर इसे ही क्यों कहें? दूसरी बात एक और, विद्वानों ने इस काल की रचनाओं को तीन भागों में बाँटा है (1) रीतिबद्ध, (2) रीतिसिद्ध, और (3) रीतिमुक्त। इस प्रकार हम देखते हैं कि रीति शब्द का प्रभाव प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सभी कवियों पर है। 



रीतिबद्ध कवियों ने तो अपनी रचनाओं में लक्षणों का प्रतिपादन किया है और रीतिसिद्ध कवियों की रचनाओं में परोक्ष रूप से यह रीति परिपाटी काम कर रही है। रीतिमुक्त कवियों में भी कोई-न-कोई विशिष्ट पद-रचना शैली कार्य कर रही है। इस कारण से इस काल को श्रृंगार काल न कहकर रीति काल कहना ही अधिक युक्तिसंगत है। 



इस प्रकार रीति काल की सभी प्रवृत्तियों तथा परिस्थितियों को ध्यान में रखकर हम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के नामकरण, रीति काल से सहमत हैं। अलंकृत काल, कला काल, श्रृंगार काल इस काल की आन्तरिक प्रवृत्ति का द्योतन नहीं कर सकते। शुक्लजी ने रीति का अर्थ काव्यांगनिरूपण की शास्त्रीय पद्धति तथा काव्य-रचना-शैली इन दोनों अर्थों में ही प्रयोग किया था।



 रीति काल पर एक आक्षेप यह भी लगाया जाता है कि इसमें रीतिमुक्त कवियों की कविता का समावेश नहीं हो सकता, किन्तु रीति शब्द को इसके व्यापक अर्थ में ग्रहण कर लिया जाए, तो ये कवि भी इस परिधि में आ जाते हैं। अन्त में, हम डॉ० भगीरथ मिश्र के निष्कर्ष को अपना निष्कर्ष मानते हुए, उन्हीं के शब्दों में कह सकते हैं-'कला काल कहने से कवियों की रत्तिकता की उपेक्षा होती है।



 श्रृंगार काल कहने से वीर रस और राज प्रशंसा की, रीति काल कहने में प्रायः कोई भी महत्त्वपूर्ण वस्तुगत विशेषता उपेक्षित नहीं होती और प्रमुख प्रकृति सामने आ जाती है। यह युग रीति-पद्धति का युग था। यह धारणा वास्तविक रूप से सही है।'



आधुनिक काल की पृष्ठभूमि इस युग से पहले

ही अंग्रेजों का भारत पर पूरी तरह से अधिकार हो चुका था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना भी हो चुकी थी। इसी काल में अंग्रेजों ने अनेक छापेखाने खाले। स्कूल व कालेजों की स्थापना भी की गई, ताकि सरतु क्लर्क प्राप्त किए जा सके।



 इसी काल में लॉर्ड डलहौजी की लैप्स-नीति भी लागू की गई। सन् 1856 तक आते-जाते भारतीयों को इस बात का ज्ञान हो चुका था कि हमारी शक्ति कके बलबूते पर ही ये अंग्रेज हम पर शासन कर रहे हैं। नाना साहब शिन्दे ने भारतीयों को ललकारा और स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया।



किन्तु अपने ही कुछ साथियों के विश्वासघात के कारण यह स्वतंत्रता संग्राम सफल न हो सका। विक्टोरिया के शासन काल में थर्म में हस्तक्षेप न करने की घोषणा की गई। लॉर्ड मेकाले ने अंग्रेजी सभ्यता और भाषा का प्रचार जोरों पर किया। इस अंग्रेजी सत्ता के प्रति महाकवि भारतेन्तु हरिश्चन्द ने यह दुःख प्रकट किया- अंग्रेज राज सुख साज, सजे सव भारी । पै धन विदेश चलि जात यह अति स्वारी ।।



इसके बाद सन् 1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। इसका प्रमुख उद्देश्य अंग्रेजी शासन के प्रशासनिक कार्यों में सहायता देना था। लेकिन समय पाकर यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अग्रिम शाख्खा बन गई। इसी समय कांग्रेस में अनेक देशभक्त नेता हुए, जैसे रासबिहारी बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, बालगंगाधर तिलक, हरदयाल, राजगुरु और सुखदेव आदि।



 उन्होंने देश को आजाद कराने वो लिए अपना तन-मन-धन सब-कुछ न्यौछावर कर दिया। इसके बाद महात्मा गाँधी ने काँग्रेस का नेतृत्व किया। उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों को एकजुट करके असहयोग आन्दोलन चलाया। उन्होंने अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार किया। 



इसी समय हिन्दुओं तथा मुसलमानों में फूट डालने में अंग्रेज सफल हुए। इसी समय में हिन्दुओं तथा मुसलमानों में फूट डालने में अंग्रेज सफल हुए। जिन्ना ने कांग्रेस छोड़ दी और मुस्लिम लीग में प्रवेश ले लिया। सन् 1931-35 ई० तक का समय कमीशनों, संधियों और पैक्टों का समय था। इसी के एकदम बाद अर्थात् सन् 1940 ई० में एक अलग पाकिस्तान की मांग की जाने लगी। सन् 1942 ई० में 'भारत छोड़ो' आन्दोलन हुआ। 



सन् 1945 ई० में इंग्लैण्ड में उदार दल की सरकार बनी। इस सरकार को भारतीय जनता के साथ सहानुभूति थी। इसी कारण 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली । फिर यह दो भागों भारत और पाकिस्तान में विभाजित हो गया। इस प्रकार राजनीतिक दृष्टि से यह संघर्ष का युग था ।



अंग्रेजों के भारत में आगमन से पहले यहाँ के उद्योग-धन्धे अधिक विकसित थे। किन्तु अंग्रेजों ने उन उद्योग-धन्थों को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया। जो भी उद्योग-धन्धे हमारे देश में फैले हुए थे, अंग्रेजों ने उन्हें नष्ट कर दिया। उन्होंने मशीनी सभ्यता को हमारे देश पर हावी करने का प्रयास किया। हमारे उद्योग-धन्धे समाप्त हुए, तो ब्रिटेन से जो भी माल आता था, हमें उसे खरीदना पड़ता था। इससे हमारे देश का सारा धन विदेश चला जाता था। 



फलस्वरूप हमारी आर्थिक दशा निरंतर गिरने लगी। सन् 1851 ई० की क्रान्ति में जिन लोगों ने अंग्रेजों का विरोध किया, उनकी जमीन छीन ली गयी। इसके विपरीत जिन लोगों ने अंग्रेजों का साथ दिया था, उन्हें जागीरें दे दी गयीं। 



इस प्रकार इस काल में जमींदारी प्रथा का आरंभ हुआ। गरीब और किसान अंग्रेजों की शोषण चक्की में पिसते गए। पूँजीवाद का बोलबाला आरंभ हो रहा था। इससे मजदूर वर्ग दाने-दाने के लिए तरसने लगा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारत को भी विश्वव्यापी महँगाई का सामना करना पड़ा। 



इस प्रकार जब तक भारत को स्वतंत्रता नहीं मिली, तब तक भारतीयों का घोर शोषण होता रहा। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से भारत की कुछ आर्थिक उन्नति हो पाई। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से भी यह आम जनता के लिए दुखद और कष्ट



कारक युग था। यह युग धार्मिक सुधारों का युग था। इस युग में अनेक समाज-सुधारकों, महापुरुषों ने जन्म लिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती, रवामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्रीमती एनी बेसेन्ट, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी आदि के नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती ने अंग्रेजों के ईसाई प्रचार के विरुद्ध आर्य समाज की स्थापना की, ताकि हिन्दू संस्कृति की रक्षा की जा सके। इनका मुख्य ध्येय धर्म की प्रेरणा के साथ-साथ देशभक्त पैदा करना भी था।



 ऐनी बेसेन्ट एक अंग्रेज महिला थी। उन्होंने थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की। इसी प्रकार इस काल में ब्रह्मसमाज की स्थापना की गयी। इन सभी समुदायों एवं समाजों का एक ही ध्येय था कि समाज में फैली कुरीतियों को दूर किया जाए, छुआछूत को समाप्त किया जाए और सभी मिलकर भारत को स्वतन्त्र कराने में लगे रहे। इसी प्रकार अरविंद, जोकि एक



महान् राजनीतिज्ञ भी थे और दार्शनिक भी, ने अपने दर्शन सम्बन्धी विचार व्यक्त किए। इनका और कवीन्द्र रवीन्द्र का छायावादी काव्य पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा । छायावादी कवियों पर गाँधीवाद, अरविंद, रवीन्द्र इत्यादि का प्रभाव साधारणतः देखा जा सकता है। इन विभिन्न धार्मिक आन्दोलनों का हमारे समाज पर भी अत्यधिक प्रभाव पड़ा।



 समाज में चल रही बाल-विवाह की प्रथा समाप्त-सी हो गई और विधवा-विवाह आरम्भ हो गए। उन्होंने जमींदारी प्रथा का भी विरोध किया। इस प्रकार यह युग धर्म के क्षेत्र में भी एक जागरण का युग था। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उन्नीसवीं शताब्दी से आज तक के साहित्य को 'आधुनिक काल' के नाम से अभिहित किया जाता है।



आधुनिक संवेदना के आधार

इस युग का साहित्य मुख्य रूप से गद्य साहित्य है। इस काल का कवि महलों में नाचती रमणी को नहीं देखता था, अपितु इस काल का कवि तो झोंपड़ी से आ रही भूखे बच्चे की बिलखने की आवाज को ही अधिक महत्ता देता था। साहित्य में इस प्रकार की चेतना का मुख्य कारण सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक चेतना है। 



इस काल का कवि रीतिकालीन कवि की भाँति रमणी के कुच तथा केश-राशि में ही नहीं उलझा रहा, अपितु यह तो गरीब की दरिद्रता तथा उसके पिसने के दृश्यों को दिखाना अधिक अच्छा समझता था। रीतिकालीन साहित्य को यदि हम आधुनिक काल की परिस्थितियों की कसौटी पर करें, तो हम आसानी से कह सकते हैं कि इस काल के भाव, शैली एवं भाषा इस (आधुनिक) काल के लिए ठीक नहीं थे।



 भारतेन्दु युग एक ऐसा काल है, जिसमें रीतिकालीन साहित्य के अंतिम अवरोध तथा आधुनिक साहित्य की वल्लरी की कोंपले दृष्टिगत होती हैं। इसने हिन्दी के विकास क्रम को स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ाया। इस साहित्यकार ने इस बात का ध्यान रखा है कि प्राचीन परम्पराओं की रक्षा हो सके। द्विवेदी युग में विषय और भाव दोनों प्रकार से अन्तर आया, तो छायावाद एक क्रांतिकारी युग था। शिवकुमार मिश्र के शब्दों में, 'प्रगतिवाद में विश्व मानवता का स्वर मुखरित हुआ। इस साहित्य की कलागत और विषयगत अपनी मान्यताएँ है।



आधुनिक काल में गद्य के विकास के साथ-साथ कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवन चरित्र, एकांकी और रिपोर्ताज आदि का भी आरम्भ और विकास हुआ। इसके लिए हिन्दी साहित्य मराठी, बंगला, गुजराती एवं अंग्रेजी का ऋणी है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि इस युग में सभी और कान्ति थी। सभी क्षेत्रों में एक नयापन लाने की लालसा मानवमात्र में थी। 




इस प्रकार की विचारधारा से इस काल का साहित्य भी अछूता नहीं रहा। इस काल के साहित्यकारों पर भी इसका प्रभाव पड़ा और उन्होंने भी सहित्य की प्राचीन परिपाटी को आगे बढ़ाकर एक नई काव्यधारा का सूत्रपात किया, जो इस युग की परिस्थितियों के अनुकूल थी। 



भारतेन्दु युग का काल-विभाजन और नामकरण 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आधुनिक हिन्दी के विकास का आरंभ सन् 1843 ई० से स्वीकारते हैं, तो डॉ० रामविलास शर्मा इसका आरंभ सन् 1868 ई० से ही मानना समचीन समझते हैं। दूसरी ओर, डॉ० लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ने इस युग का आरंभ सन् 1850 ई० से ही माना है। हम उपर्युक्त मतों को ध्यान में रख कर और वैज्ञानिक और राजनीतिक घटनाओं के प्रभाव को दृष्टिगत कर हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का आरंभ सन् 1850 ई० से मानना समुचित समझते हैं। 



ऐसा इसलिए कि इन घटनाओं के कारण का समय सन् 1850 ई० के आस-पास ही दिखाई देता है। दूसरा कारण यह है कि सन् 1850 ई० युग-प्रवर्त्तक भारतेन्दु हरिशचन्द्र का जन्म समय है। चाहे उनके जन्म से आधुनिकता का आरंभ न हुआ हो, लेकिन और दूसरी घटनाओं के साथ यह भी एक घटना ही मानी जा सकती है। अतएव इस वर्ष को आधुनिक संवेदना का पहला कदम कहा जा सकता है।



आधुनिक काल के अंतर्गत एक विशेष प्रकार के साहित्य की प्रवृत्ति दिखाई देती है। इसे ही दृष्टिगत करके इस काल को सामान्य रूप से भारतेन्दु युग के नाम से पुकारा जाता है। इसका अवसान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सन् 1893 ई० तक माना है। दूसरी ओर, डॉ० रामविलास शर्मा और लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ने इस युग की अंतिम सीमा सन् 1900 ई० माना है। अध्ययन-मनन के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि इस काल की अंतिम सीमा सन् 1900 ई० मानी है।




 अध्ययन-मनन के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि इस काल की अंतिम सीमा सन् 1900 ई० ही मानना समचीन होगा; क्योंकि इस काल तक भी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ सन् 1893 ई० के बाद भी सक्रिय रहीं । सन् 1850 ई० से लेकर सन् 1900 ई० तक के इस हिन्दी साहित्य के इतिहास को कम से कम चार भागों में साहित्य समीक्षकों ने विभाजित करना समुचित समझा है। इस दृष्टि से उन्होंने चार नाम प्रस्तुत किए हैं नवजागरण काल ।



परिवर्तन काल, पुनर्जागरण काल, आधुनिक काल और निष्पक्ष रूप से हम देखते हैं, तो हम यह कह सकते हैं कि परिवर्तन की प्रवृत्ति प्रत्येक देश और काल के साहित्य में अवश्य होती है। इसलिए परिवर्तन काल नाम का कोई औचित्य नहीं ठहरता है। पुनर्जागरण काल कां महत्त्व सोद्देश्यपूर्ण कहा जा सकता है। इस काल का प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ता है। यही नहीं, इस काल का प्रवल वेग केवल भारतेन्दु युग तक ही नहीं रहा, अपितु वह स्वतंत्रता काल तक समान रूप से रहा।



 दूसरी बात यह कि इस विशाल कालखंड के साहित्य में अनेकता और विविधता दिखाई देती है। इस आधार पर इसे साहित्यिक संवेदना का पुनर्जागरण कहना भी समुचित नहीं है। इसलिए इसे कई उपभागों में विभाजित करके ही इसे समझने में सुविधा होगी। भारतेन्दु नवजागरण की सूचना देता है या पुनरुत्थान की, इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद है।



सन् 1850 ई० से सन् 1900 ई० तक के कालखंड को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु युग न कहकर हिन्दी गद्य साहित्य का प्रवर्तन काल और काव्य की नई धारा कहा है। उन्होंने यह अवश्य माना है कि भारतेन्दु का भाषा और साहित्य पर गहरा प्रभाव रहा। इस प्रकार उन्होंने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा है- "वंगदेश में नए ढंग के नाटकों और उपन्यासों का सूत्रपात हो चुका था, जिनमें देश और समाज की नई रुचि और भावना का प्रतिविम्ब आने लगा था, पर हिन्दी साहित्य अपने पुराने रास्ते पर ही पड़ा था।



भारतेन्दु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर जीवन के साथ फिर से लगा दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था, उसे उन्होंने दूर किया। हमारे साहित्य को नए-नए विषयों की ओर प्रवृत्त करने वाले हरिशचन्द्र ही हुए।"



इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतेन्दु साहित्य को लोक दृष्टि प्रदान करने वाले रहे। उनमें युगप्रवर्तक व्यक्तित्व हुलिय पूरे साहित्यिक कालखंड को उनके ही नाम से पुकारा जाने लगा। वे एक महान् रचनाकार होने के साथ-साथ एक बहुत बड़े संस्थापक थे। इस प्रकार उन्होंने साहित्य की सर्जना के साथ-साथ एक अपेक्षित साहित्यिक वातावरण भी तैयार किया। इन्हीं आधारों पर साहित्य-समीधाम्रो इस पूरे कालखण्ड को भारतेन्दु युग की संज्ञा दी है।



 द्विवेदी युग-

आधुनिक काल का दूसरा युग सन् 1900 ई० के करीब आरंभ होता है। इस काल का नाम द्विवेदी युग दिया गया है। इस काल का आरम्भ अधिकार विद्वान् आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादन समय से ही मानने-स्वीकारने के पक्षधर है। यह सर्वविदित है कि 'सरस्वती' पत्रिका का आरंभ आचार्य द्विवेदी ने सन् 1903 ई० से ही किया था। इसके माध्यम से उन्होंने साहित्य के मानक स्वरूप को स्थापित किया। इस दृष्टि से उन्होंने न केवल गद्य की ओर अपितु पद्य की ओर भी अपनी दृष्टि दौड़ाई। इस प्रयास में उन्होंने भाषा की शुद्धता और मर्यादाबद्ध नैतिक साहित्य पर विशेष बल दिया ।



यह सुरपष्ट हो चुका है कि मारतेन्दु युग का साहित्य प्रेरणादायक और उमंगमय था। इससे भिन्न द्विवेदी युग का साहित्य हर प्रकार से अनुशासनात्मक आधारप्रधान युग था। हिन्दी काव्य के क्षेत्र में द्विवेदीजी ने व्यवहृत छन्दों के स्थान पर संस्कृत पदावली को स्थान दिया। इससे इस पदावली को व्यापक स्थान मिलने लगा। इस प्रकार हिन्दी के इस युग में भक्तिकालीन और रीतिकालीन परम्परा की विदाई हो गयी। उसके स्थान पर संस्कृत साहित्य की पद्धति प्रतिष्ठित होने लगी। इस काल में एक बात और हुई, वह यह कि कविता में इतिवृत्तात्मकता की प्रवृत्ति का प्रचार-प्रसार दिनोंदिन बढ़ता ही गया। 



उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में हम यह कह सकते हैं कि 'द्विवेदी युग' एक व्यक्ति विशेष के रूप में लोकप्रिय न होकर एक सर्वथा नये और अपेक्षित जीवन-मूल्यों सहित साहित्यिक मूल्यों की धुरी के रूप में लोकप्रिय हुआ। अन्य कालों की तरह द्विवेदी युग के और कई नाम नहीं दिए गए हैं। सुविधा के लिए कुछ विद्वान् इसे 'जागरण काल' जैसा नाम देते रहे हैं। लेकिन सन् 1900 ई० से सन् 1920 ई० तक के कालखंड को प्रायः सभी विद्वानों ने एकमत से द्विवेदी युग ही कहा है।



छायावाद-

छायावाद के आरंभ के विषय में साहित्य-समीक्षकों की आम सहमति है। इस काल का आरंभ साहित्य-समीक्षक द्विवेदी युग के अवसान काल से ही मानते हैं। दूसरे शब्दों में छायावाद का आरंभ हिन्दी के इतिहासकारों ने सन् 1920 ई० स्वीकार किया है। यह भी सच है कि द्विवेदी युग में ही छायावादी साहित्य की झलक दिखाई देने लगी थी। सन् 1916 ई० में निराला की 'जूही की कली' प्रकाश में आयी थी। उसके बाद सन् 1918 ई० में प्रसाद की कविता 'झरना' और पंत की कविता 'पल्लव' की कुछ कविताएं सन् 1920 ई० के लगभग प्रकाशित हुई थी। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि सन् 1915 ई० के आस-पास छायावादी साहित्य का उदय होने लगा था, लेकिन इसका पूरा प्रभाव तो सन् 1920 ई० के आस-पास ही दिखाई देता है। इसलिए इसका समय विद्वानों ने यही स्वीकार किया है।



छायावाद का अंतिम विद्वानों ने सन् 1936 ई० ही माना है। उस समय छायावादी साहित्य की अति महत्त्वपूर्ण रचनाओं के दर्शन हो चुके थे। सन् 1936 ई० में प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ कृति 'कामायनी', निराला की 'राम की शक्ति पूजा', प्रेमचन्द का 'गोदान' आदि रचनाएं छायावादी युग की सर्वोच्च और सर्वोकृष्ट रचनाएं स्वीकृत हुई। यही नहीं, इसी वर्ष 'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना भी हुई। इन तथ्यों के आधार पर ही साहित्य-समीक्षकों ने छायावादी साहित्य का अंतिम समय सन् 1936 ई० ही माना है। 



छायावाद के नाम पर सभी विद्वानों की एक ही राय है। छायावादी साहित्य जो एक विशिष्ट साहित्यिक मूल्य दिखाई देता है, उसनें रोमांटिक भाव बोध जहाँ पुरानी रूड़ियों से छुटकारे की आकांक्षा करता है, वहीं दूसरी ओर, यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भी आजादी का स्वप्न देखता है। 



यह दिलचस्प बात है साहित्य में छायावाद और राजनीति का आगमन और महात्मा गाँधी के आगमन का लगभग एक ही साथ हुआ था। यही कारण है कि मुंशी प्रेमचन्द ने अपने कथा-साहित्य में गाँधी युग की विराट्र तस्वीर खींची थी। छायावादी साहित्य में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का सर्वाधिक प्रभाव रहा।



 यह इसलिए उनकी आध्यात्मिक और रहस्यवादी कविताओं ने इस साहित्य को मुख्य रूप से अंकुरित किया। इसीलिए इस साहित्य में रहस्यात्मक अनुभूति के और अभूर्त भाव की अभिव्यंजना के लिए लाक्षणिक और चित्रमयी शैली भाषा में रचनाएं सामने आने



लगीं। इस प्रकार अनूभूति, दर्शन और कल्पना के योन से एक सर्वचा नवीन और अभूतपूर्व काव्य-स्वरूप प्रत्यक्ष हो उठा । के वैशिष्ट्य के विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-  "छायावाद जहाँ तक आध्यात्मिक प्रेम लेकर चला है, वहाँ तो रहस्यवाद के ही अन्तर्गत रहा है। उसके आगे प्रतीकवाद या चित्रभाषावाद (Symbolism) नाम की काव्य-शैली के रूप में गृहीत होकर भी वह अधिकतम प्रेमगान ही करता रहा है।"



छायावादोत्तर-

छायावादोत्तर साहित्य में विविध प्रकार की काव्य प्रवृत्तियाँ निरंतर परिवर्तनशील रहीं। इस साहित्य में विविध प्रकार के आन्दोलन उठ खड़े हुए; जैसे-प्रगतिवाद, व्यक्तिवाद, गीतिकाव्य, राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता, प्रयोगवाद, नई कविता, नई कहानी, अकविता आदि। 



यहाँ इस प्रकार के आन्दोलनों के नामकरण और समय-निर्धारण की कोई प्रासंगिकता नहीं है। यह इसलिए कि उनके काल-विभाजन और नामकरण के विषय कोई मत-भिन्नता नहीं है। दूसरी बात यह है कि इस काल का भी अन्य कालों के समान महत्त्वय और प्रभाव है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ