हिन्दी साहित्य- आदिकाल की पृष्ठभूमि Background Of Ancient Times

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हिन्दी साहित्य- आदिकाल की पृष्ठभूमि Background Of Ancient Times




इकाई की रूपरेखा

2.0 उद्देश्य

2.6 आदिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि

2.1 प्रस्तावना

2.6.1 राजनीतिक पृष्ठभूमि

2.2 आदिकाल का स्वरूप एवं महत्त्व

2.6.2 सामाजिक पृष्ठभूमि

2.6.3 आर्थिक किया-कलाप

2.3 अपभ्रंश का स्वरूप और विकास

2.6.4 धार्मिक स्थिति

2.4 हिन्दी भाषा का विकास

2.6.5 मिश्रित सांस्कृतिक प्रक्रिया

2.5 अपभ्रंश और हिन्दी के बीच के अंतर का प्रामाणिक आधार

2.7 आदिकालीन साहित्य का वर्गीकरण

2.8 सारांश

उद्देश्य


 

 इस इकाई में एमए प्रथम वर्ष हिन्दी के वीज पाठ्यक्रम के खण्ड-1 की दूसरी इकाई दी गई है। इसमें आदिकालीन पृष्ठभूमि पर चर्चा की गई है। इसे पढ़ने के बाद आदिकाल के स्वरूप एवं महत्त्व के विषय में जानकारी प्राप्त हो सकेगी। अपभ्रंश के स्वरूप, विकास और आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य का ज्ञान प्राप्त हो सकेगा । हिन्दी भाषा के विकास के परिचय के साथ-साथ अपभ्रंश और हिन्दी के बीच के भेद के आधार ज्ञात हो सकेंगे। आदिकालीन साहित्य को प्रभावित करने वाली राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के विषय में जानकारी हासिल हो सकेगी। आदिकालीन उपलब्ध साहित्य की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त हो सकेगी।



प्रस्तावना

आदिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि को समझे विना आदिकालीन साहित्य को समग्र रूप से समझना कठिन है। हमें यह जान लेना चाहिए कि आदिकाल हिन्दी साहित्य का एक बहुत बड़ा काल हिन्दी साहित्य के इतिहास के पहले चरण (काल) को आदि काल नाम दिया गया है। और भी कई नाम सुझाए गए है; जैसे चारण काल, प्रारंभिक काल, वीरगाथा काल, संधि काल और चारण काल, सिद्ध सामंत काल और आदि काल । यह भी कि इस काल को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आदि काल कहा और प्रवृत्ति के आधार पर वीरगाथा काल कहा। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो प्रवृत्ति के आधार पर भी इसे आदि काल ही कहा। यही नाम विद्वानों के बीच लोकप्रिय हुआ।



'आदि' कहने से भाषा और संवेदना की आदिम अवस्था का बोध होता है। यो तो हिन्दी भाषा का आरंभ मुख्य रूप से दसवी सदी से होता है। सन् 1000 ई० से सन् 1400 के बीच प्राप्त हुआ साहित्य ही आदिकालीन साहित्य आधार प्रमुख ग्रन्थ है। यह भी सत्य है कि आदिकालीन साहित्य की निर्माण प्रक्रिया का सम्बन्ध दसवीं सदी से पहले और चौदहवीं सदी के बाद के भी साहित्य में है। इस प्रकार आदि काल के हिन्दी साहित्य को अपभ्रंश से अलग करने के लिए हमें साहित्य के अविच्छिन्न सम्बन्धों को जानने के साथ-साथ इन परिवर्तनों को भी बड़ी बारीकी से प्रस्तुत करना होगा।



आदि काल का स्वरूप एवं महत्त्व

आदि काल में भारतीय चिन्तन धारा का वह स्वरूप दिखाई देता है, जिसमें परस्पर विरोधी तत्त्व एक साथ दिखाई देते हैं। राजनीतिक उथल-पुथल, विदेशी आक्रमण और दो-दो संस्कृतियों के मिलन का परिवेश इस काल में दिखाई देता है। इसी तरह इस काल में अशान्ति और बिखराव से छिन्न-भिन्न सामाजिक स्थिति, विविध धर्म-सम्प्रदाय और दर्शनों का विस्तार-प्रसार दिखाई देता है। इस काल में साधारण लोगों को आकर्षित और अमित करने वाले तंत्र-मंत्र, टोने-टोटकों के साथ-साथ जादूभरे चमत्कार हैं, तो दूसरी और जैन, वैष्णव, शेव, कापालिक, शाक्त, - सिद्ध, नाथ आदि अनेक धार्मिक सम्प्रदायों की प्रवृत्तियाँ इसके साहित्य में देखी जा सकती है।



आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- "शायद ही भारतवर्ष के साहित्य में इतने विरोधों और स्वतोव्याधातों का युग कभी आया होगा। इस काल में एक तरफ तो संस्कृत के ऐसे बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए, जिनकी रचनाएं अलंकृत काव्य परम्परा की चरम सीमा पर पहुँच गई थी



और दूसरी और अपभ्रंश के कवि हुए, जो अत्यन्त सहज, सरल भाषा में अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में अपने मनोभाव प्रकट करते थे फिर गर्न और दर्शन के क्षेत्र में भी महान प्रतिभाशाली आचायों का उद्‌भय इसी काल में हुआ था और दूसरी और निरक्षर संतों के ज्ञान-प्रधार का बीज भी इसी काल में बोया गया। (हिन्दी साहित्य का आदि काल) इस काल के साहित्यिक महत्त्व के अन्तर्गत काव्य रूपों के प्रयोग उल्लेखनीय है। भाषा की दृष्टि से भी इस काल का साहित्यिक महन्य कम नहीं है; क्योंकि इस काल में भक्ति काल से लेकर आधुनिक काल तक की सभी प्रवृत्तियों के आविम बीज मिल जाते हैं। रचना शैलियों के सभी परवर्ती रूप भी इस काल में दिखाई देते हैं। इस काल की आध्यात्मक, श्रृंगारिक और वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परयात साहित्य में मिलता है।




आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका में लिखा है- "यदि कबीर आदि निर्गुणवादी संतों को वाणियों की बाहरी रूपरेखा पर विचार किया जाए, तो मालूम होगा कि यह सम्पूर्णतः भारतीय है। और बौद्ध धर्म के अंतिम सिद्धों और नाथपंथी योगियों के पदादि से उसका सीधा सम्बन्ध है। वे ही पद, वे ही राग-रागिनियों के ही दोहे, वे ही चौपाइयाँ कबीर आदि ने व्यवहार की है, जो उक्त मत के मानने वाले उनके पूर्ववर्ती संतों ने की थी। क्या भाव, क्या भाषा तथा अलंकार, क्या छंद, क्या पारिभाषिक शब्द, सर्वत्र वे ही कबीरदास के मार्गदर्शक हैं।"



अपभ्रंश का स्वरूप और विकास

हिन्दी साहित्य समीक्षकों ने अपभ्रंश भाषा का समय सन् 500 ई० पूर्व से 1000 ई० तक माना है। अपभ्रंश का अर्थ है-अष्ट, विकृत अथवा अशुद्ध । इस नाम का प्रयोग पहले-पहल उस शब्द के लिए होता था, जो भाषा के सामान्य मानदण्ड से गिरा होता था। आरंभ में संस्कृत के विकृत शब्द के रूप के लिए भतृहरि, पतंजलि आदि व्याकरणचायों ने अपभ्रंश का प्रयोग किया है। इस प्रकार भाषा विशेष के अर्थ में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग सन् छठी शताब्दी के आस-पास दिखाई देता है। इस तरह इस भाषा में साहित्य आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताव्दी के बीच सृजित हुआ ।




यह सर्वमान्य तथ्य है कि प्रत्येक युग-काल की एक साहित्यिक भाषा होती है और उसके समानान्तर विभिन्न प्रकार की जनभाषाएँ वोली के रूप में प्रचलित होती रहती हैं। जिस प्रकार वेदों की भाषा छन्दस ने उस समय की देशी भाषा से शक्ति प्राप्त करके संस्कृत का रूप ले लिया, उसी प्रकार पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का रूप ले लिया। जिस प्रकार छन्दस् से संस्कृत तक का समय 1500 ई० पूर्व से 500 ई० पूर्व तक रवीकार किया जाता है और इन्हें प्राचीन आर्यभाषा का नाम दिया गया, उसी प्रकार पाली, प्राकृत और अपभ्रंश आर्य भाषाओं का समय 500 ई०पू० से 1000 ई० पूर्व तक स्वीकार किया गया है। 



इन मध्यकालीन आर्य भाषाओं की तरह आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं सिन्धी, गुजराती, अवधी, ब्रज, पंजाबी आदि 1000 ई० से अब तक स्वीकार की गई हैं। 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' सम्पादक डॉ० नगेन्द्र के अनुसार- "आदि काल में हिन्दी साहित्य के सामान्तर संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य की भी रचना हो रही थी। इनमें संस्कृत-साहित्य का तो सामान्य रूप से जनता तथा हिन्दी कवियों पर उतना प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ रहा था, किन्तु अपभ्रंश साहित्य भाषा की निकटता के कारण हिन्दी साहित्य के लिए निरन्तर साथ चलने वाली पृष्ठभूमि का काम कर रहा था।" आज के उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य को देखकर यह कहा जा सकता है कि इसके स्वरूप में अनेकरूपता है। यह भी कि इसका बड़ा भाग जेन कवियों द्वारा रचित है, जो धार्मिक साहित्य के रूप में दिखाई पड़ता है। 



इस साहित्य की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि इसमें पौराणिक कथा-प्रवन्ध, रहस्य और नीतिपरक कृतियाँ हैं। जैन अपभ्रंश साहित्य के समान ही बौद्ध अपभ्रंश साहित्य भी है। यह भी धार्मिक दृष्टिकोण से ही लिखा गया है। इन जेन-बौद्ध साहित्य के अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्य की एक अन्य काव्यधारा लौकिक साहित्य भी है। इसमें श्रृंगार प्रधान प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों ही प्रकार की रचनाएं हैं। इन विशेषताओं के आधार पर अपभ्रंश साहित्य को निम्नलिखित का धाराओं में बाँटा जा सकता है -



(i) पुराण साहित्य – अपभ्रंश में प्रमुख रूप से जैनियों द्वारा पौराणिक कथानकों को लेकर साहित्य रचा गया। इनमें पुष्यर्यंत का 'महा पुराण' और शान्तिभद्र सूरि का 'बाहुबलि रास' प्रमुख हैं। इस धारा के प्राचीन और सर्वोच्च कवि स्वयंभू है। (ii) चरित्रकाव्य – इसमें लोकप्रिय व्यक्तियों के जीवन चरित्र हैं। इसके अंतर्गत कवि पुष्पदंत के 'नागकुमार चरित्र' (नागकुमार चरित) और 'जसहर चरित्र' (जसहर चरित) आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।

(iii) कथाकाव्य - इसके अंतर्गत 'धनपाल' द्वारा रचित 'भविश्यतकथा' या 'भविष्यदन्तकथा' का नाम लोकप्रिय है।

(iv) जैन कवियों का नीतिपरक साहित्य-  यह दोहों के माध्यम मुक्तक काव्य हैं। इसमें जीवनादर्श है, तो रहस्यवादी रवर भी। 'जोइन्दु' का 'परमात्म प्रकाश' और 'रामसिंह' का 'पाहुड़ दोहा' अपभ्रंश नीतिपरक साहित्य के उल्लेखनीय ग्रन्थ है।

(v) बौद्ध सिद्ध काव्य - यह बौद्ध सिद्धः काव्य जैन कवियों के सामानान्तर पूर्वी प्रदेशों में साहि अपभ्रंश में रचित काव्य है। इस थारा के अंतर्गत 'सरहपा' और 'कण्डया' के 'दोहा कोष' उल्लेखनीय है। जैन कवियों की तरह ही इन वौद्ध सिद्धों ने अंतःसाधना पर ही बल दिया ।

(vi) आदिकालीन रचनाएं-  आदिकालीन रचनाओं के अंतर्गत आने वाला 'रासो साहित्य' का संदेश काव्य अब्दुर्रहमान रचित 'संदेश रासक' अपभ्रंश में हैं। इसमें सबसे अधिक 'रासक छंद' हैं। संस्कृत के आचार्यों सहित अपभ्रंश के कवियों पुष्पदंत, स्वयंभू आदि ने अपभ्रंश को देश भाषा (देशी भाषा) कहा है। अपभ्रंश किस प्रकार देशी भाषा कही गयी, इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि वैदिक काल में छन्दस् साहित्यिक भाषा थी। उस समय संस्कृत लोक भाषा थी।



कालान्तर में छन्दस् ने लोक भाषा से शक्ति प्राप्त कर ली और संस्कृत के रूप में नई साहित्यिक भाषा सामने आयी। जब संस्कृत साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी, तब प्राकृत लोकभाषा के रूप में थी। अब कालान्तर में संस्कृत पंडितों की भाषा रह गई। इससे जनता से उसका सम्पर्क नहीं रहा, तब प्राकृत कुछ समय बाद साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। फिर प्राकृत भषा के रूढ़ और बद्ध होने पर अपभ्रंश भाषा साहित्यिक भाषा के रूप में लोकप्रिय हो गई। कुछ समय बाद जब अपभ्रंश का युग नहीं रहा, तब आधुनिक भारतीय भाषाओं में साहित्य रचना होने लगी ।



इस प्रकार साहित्यिक प्राकृत का देश भाषाओं के साथ सम्पर्क हुआ और इस प्रकार भारतीय आर्य भाषा की अपभ्रंश अवस्था की शुरूआत । इस विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह मंतव्य दृष्टव्य है  "जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई, तभी से अपभ्रंश साहितय का आर्विभाव समझना चाहिए। प्राकृत से बिगड़कर जो रूप बोल चाल की भाषा ने ग्रहण किया, वह भी आगे चलकर कुछ पुराना पड़ गया और काव्य-रचना के लिए रूढ़ हो गया। अपभ्रंश नाम उसी समय से चला। जब तक भाषा बोलचाल की थी, तब तक वह भाषा या देश भाषा ही कहलाती रही। जब यह भी साहित्य की भाषा हो गयी, तव उसके लिए 'अपभ्रंश' शब्द का व्यवहार होने लगा।" (हिन्दी साहित्य का इतिहास)



हिन्दी भाषा का विकास

जब प्राकृत भाषा पुस्तकों की भाषा हो गई, तब बोलचाल की भाषा में परिवर्तन हो गया। लेकिन जब तक यह बोलचाल की भाषा थी, तब उसे देशी भाषा कहकर संबोधित किया जाता था। जैसे ही वह साहित्यिक भाषा हुई, वैसे ही उसे अपभ्रंश के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। यह ध्यातव्य है कि देश भाषा से अलग होने पर अपभ्रंश साहित्यिक अभिव्यक्ति की भाषा बन गई। उसमें धीरे-धीरे शास्त्रीयता का पुट आने लगा। इसके परिनिष्ठित रूप से अलग देशी भाषा और अपभ्रंश के मिश्रित रूप ने एक नई और स्वस्थ भाषा को विकसित किया। यह भाषा अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा थी। इस दृष्टिकोण से आचार्य रामचन्द्र ने दो प्रकार की अपभ्रंश भाषाओं की चर्चा की है। 



पहली प्रकार की वह जिसका व्याकरण उन्होंने ही लिखा। इस प्रकार की भाषा में जैन कवियों, आचायर्यों ने रचना की। दूसरे प्रकार की यह जो इसके साथ ही प्रचलित होने लगी थी। इसे ही आचार्य हेमचन्द्र ने ग्राम्य भाषा की संज्ञा दी। इस भाषा में एक ओर जहाँ बौद्ध सिद्धों के दोहे और संदेश रासक जैसे काव्य रचे गए हैं, वहीं दूसरी ओर, इसमें लोक प्रचलित गेय और अभिनेय काव्य जैसे रासक, डोम्बिका आदि रचे गए। इससे ही वाद में हिन्दी भाषा का रूप विकसित होकर सामने आया। इस विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने शोध ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा हे "अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी के पदों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है।"



यह सर्वविदित है कि हमारे देश पर शासन कर रहे मुस्लिम शासकों की राजभाषा फारसी तो थी, लेकिन लोक-व्यवहार और सम्पर्क के लिए उन्होंने तत्कालीन प्रचलित प्राचीन हिन्दी को ही अपनाया। धीरे-धीरे आदिकाल के आगामी वर्षों में इन्हीं रूपों में से एक रूप राजस्थानी साहित्य से सम्बन्धित डिंगल था। इस साहित्य की दो महत्त्वपूर्ण रचनाएं श्रीधरकृत 'रणमल छन्द' और कल्लोल कृत 'ढोला मारू रा दुहा' स्वीकार की गई हैं। इसी प्रकार हिन्दी भाषा का दूसरा रूप 'पिंगल' के नाम से विकसित हुआ। इन रूपों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का जो तीसरा विकसित रूप सामने आया, उसे साहित्य-समीक्षकों ने 'हिन्दवी' नाम से संबोधित किया। इसको तेरहवीं सदी के आस-पास अमीर खुसरो के साहित्य में देखा जा सकता है।



"दो । सखुन

सितार क्यों न बजा ?

औरत क्यों न नहाई परदा न था।"

हिन्दी भाषा के विकास के विषय में डॉ० नगेन्द्र ने अपने सम्पादित ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य के इतिहास' में लिखा है- "इस भाषा का विकास एक जनभाषा के रूप में हुआ। कोई भी जनभाषा अपने प्रवाह की अक्षुण्णता में सदा एकरूप में नहीं रह सकती। स्थान और काल के भेद से उसमें रूपभेद भी उत्पन्न हो जाता है, किन्तु जब तक उन रूपों की तात्विक समानता सुरक्षित रहती है, तब तक वे एक ही भाषा का बोध कराते हैं।"



यह ध्यातव्य है कि चौहदवी शताब्दी में मुस्लिम शासकों के साथ दक्षिण भारत में मालवी और कावरियां राजधानी के आस-पास बोली जाने वाली भाषा को ये लोग अपने साथ ले गए। इससे दक्षिण भारत के निवासियों के साथ व्यवहार और जनसम्पर्क के लिए एक ऐसी भाषा विकसित हुई, जिसमें दक्षिण भारत की भाषाओं के शब्द भी आ गए। इस प्रकार धीरे-धीरे भाषा के इस रूप को स्थायित्व मिलता गया। यहाँ भाषा आगे चलकर 'दक्खिनी हिन्दी' के नाम से लोकप्रिय हो गई।



अपभ्रंश और हिन्दी के बीच के अंतर का प्रामाणिक आधार

हिन्दी समीक्षकों ने हिन्दी को विशिष्ट बनाने वाली तीन भाषा प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है-

1. क्षतिपूरक दीर्धीकरण, जैसे-प्राकृत अपभ्रंश के कञ्ज, कम्म, हथ्थ जैसे शब्द हिन्दी में काज, काम, हाथ में बदल गए ।

2. परसर्ग की प्रयोग बहुलता जैसे अधिकरण परसर्ग मंझहि, गज्झे, मज्झि, मंझ, मधि, यहि, मह आदि ।

3. तत्सम शब्दों के प्रचलन से देशी भाषा का विकास स्वीकार किया जाता है।



अपभ्रंश से प्रभावित हिन्दी की श्रेणी में आने वाली निम्नलिखित रचनाओं का उल्लेख किया जा सकता है-

1. सिद्ध साहित्य

2. नाथ साहित्य

3. जैन साहित्य के कुछ ग्रन्थ जैसे भरतेश्वर बहुबलिरास, आदि

4. लौकिक साहित्य में राउलखेल और वर्णरत्नाकर

5. रासो साहित्य में हम्मीर रासो को रखा जा सकता है।

कुछ रचनाएं अपभ्रंश से प्रभावित नहीं मानी जा सकती हैं; जैसे

1. खुम्माण रासो

2. परमालरासो

3. चंदनबाला रास

4. स्थूलिभद्ररास

5. रेवन्तगिरिरास

6. नेमिनाथ रास

7. वसन्त विलास

8. खुसरो की पहेलियाँ ।



आदिककीन साहित्य की पृष्ठभूमि

हमें यह सहजतापूर्वक स्वीकारने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि किसी भी युग के साहित्य के मूल्य उसके अपने समाज की वास्तविकता से ही प्रमाणित होते हैं। यही कारण है कि साहित्य के सामाजिक मूल्य और उसकी कलात्मक व्याख्या की पूर्णता के लिए समाज की गतिविधियों का यथेष्ट ज्ञान अपेक्षित ही नहीं, अपितु अनिवार्य भी है। अतएव साहित्य के सत्ता, समाज, आर्थिक गतिविधियों धार्मिक विचारों और दर्शनों के साथ है। आंतरिक सम्बन्धों का लेखा-जोखा भी बहुत ही आवश्यक है।



हिन्दी भाषा के प्राचीन रूप का आरम्भ अपभ्रंश साहित्य के बाद से माना जाता है। यह निर्धारित करना कठिन है कि हिन्दी साहित्य का आरम्भ किस तिथि वर्ष से हुआ ? अधिकांश विद्वान् इस बात से सहमत हैं कि जिस बिन्दु में अपभ्रंश के प्रभाव से सहमत होकर जिस बिनु पर अपभ्रंश के विद्वान् से मुक्त होकर हिन्दी साहित्य का अपना अलग रूप निश्चित हुआ, वही हिन्दी साहित्य की आरम्भिक तिथि थी। सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि दसवीं शताब्दी के पूर्व का साहित्य अपनी भाषागत विभिन्नताओं के कारण हिन्दी साहित्य से बिल्कुल भिन्न जान पड़ता है। अतः दसवीं शताब्दी के बाद का ही साहित्य हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत आएगा।



पं० रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल का आरम्भ सं० 1050 (993) से माना है, जबकि डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे 1000 तक माना है। शुक्लजी इसकी सीमा सं० 1375 (1318) तक मानते है, जबकि द्विवेदीजी ने इसे 1400 ई० तक माना है। हिन्दी साहिल के इस आरम्भिक काल को हिन्दी विद्वानों ने भी अलग-अलग नाम दिये हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे 'बीजवपन काल' कहा है. जबकि पं० रामचन्द्र शुक्ल ने वीरगाथा काल, राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध सामन्त युग, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदि काल तथा रामकुमार वर्मा ने धारण काल की संज्ञा दी है। इस काल में धर्म, नीति, श्रृंगार तथा वीर रस प्रधान सभी प्रकार की रचनाएँ उपलब्ध होती है। 



इस युग ये भारतावर्ष पूर्णतः हिन्दू देश था। इसी काल में मुसलमानों के आक्रमण हुए थे, जिसके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्तियों का जन्म हुआ। राज्यों के आश्रित चारण कवियों ने अपने-अपने आश्रयदाताओं के परिश्रमपूर्ण चरित्रों तथा गाथाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करना आरम्भ किया। मुसलमानों के आक्रमण चरित्रों तथा गाथाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करना आरम्भ किया। मुसलमानों के आक्रमण चरित्रों तथा गाथाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करना आरम्भ किया। मुसलमानों के आक्रमण के परिणामस्वरूप जनता का अधिकांश जीवन युद्धमय वातावरण के बीच ही बीतता था।



आदिकाल का साहित्य अधिकांशतया वीररसात्मक काव्यों का युग है, जिसके परिणाम 'रासो ग्रन्थ' है। इतिहास बताता है कि हिन्दी साहित्य के आदिकाल के समय उत्तर भारत की दशा अत्यंत दयनीय हो गई थी। हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह एक ऐसा समय था, जब फेन्द्रीय सत्ता का पतन हो चुका था। सम्राट् हर्षवर्गन की मृत्यु के पश्चात् सम्पूर्ण राष्ट्र छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो चुका था। इस युग में राजा अपने वैयक्तिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वीर योद्धाओं का प्रयोग करते थे। इस काल में सर्वाधिक साहित्य रचना राजस्थान में हुई, इस कारण साहित्य की भाषा डिंगल-पिंगल ही रही। इस युग में ऐसा साहित्य भी काफी मात्रा में लिखा गया, जिसमें अपभ्रंश भाषा का परिष्कृत रूप दिखाई पड़ता है। इस युग की मुख्य परिस्थितियां निम्नलिखित है-



राजनीतिक पृष्ठभूमि- यह युग राजनीतिक पुरावस्था, अस्त-व्यस्तता और गृहकलह का युग था। एक और विदेशी आक्रमण की निरन्तर चलने वाली भीषण आंधियों थीं, तो दूसरी ओर राजाओं एवं सामन्तों की आपसी फूट तथा शत्रुता देश को खोखला कर रही थी। मुसलमानों ने भारतीय राजाओं की आपसी कलह का लाभ उठाया। 19वीं शताब्दी तक मुसलमान सिन्ध से आगे भारत में प्रवेश नहीं कर सके थे। 10वीं शताब्दी में गजनी के सुलतान महमूद गजनवी ने भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमान्त के राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसने मथुरा, कन्नोज, ग्वालियर, कालिंजर को जीतकर सोमनाथ के मन्दिर की अपार धनराशि लूट ली थी। दक्षिण के चोलवंशीय राजा राजेन्द्र ने महमूद गजनवी को उखाड़ने में अन्य राजाओं को कोई सहयोग नहीं दिया। 11वीं-12वीं शती में अजमेर में चौहान, दिल्ली में तोमर तथा कन्नौज में गहउबाल राजाओं का शासन था। 



अजमेर के बीसलदेव चौहान ने सीमान्त उत्तर-पश्चिमी भारत में अपने साम्राज्य का विरतार कर लिया था। इसी समय मोहम्मद गौरी ने भारत-विजय के सपने देखे। उसने भारत पर कई आक्रमण किए। अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को अनेक बार पराजित किया। किन्तु जब पृथ्वीराज जागरूक न रहा तथा वह राजा परमार के साथ युद्ध में उलझ गया तथा कन्नौज के राजा जयचन्द से शत्रुता रखने लगा, तो मोहम्मद गौरी ने अचानक आक्रमण करके पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर दिया। पृथ्वीराज की पराजय के साथ ही भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नीव पड़ गई। मोहम्मद गौरी ने अपने राज्य का विस्तार किया और धीरे-धीरे मुस्लिम साम्राज्य की पताका समस्त उत्तर भारत में फहराने लगी ।


आदिकाल की राजनीतिक परिस्थितियों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय के राजपूत राजा अपने छोटे-से प्रान्त को ही राष्ट्र समझते थे तथा वे उसी की रक्षा करना अपना धर्म समझते थे। संकुचित राष्ट्रीयता के कारण मुसलमानों ने लगभग सम्पूर्ण भारत पर आधिपत्य जमा लिया था। यदि उस समय सभी राजपूत राजा मिलकर मुस्लिम आक्रमणकारियों से युद्ध करते, तो आज हमारे देश का मानचित्र कुछ और ही होता ।



सामाजिक पृष्ठभूमि-  किसी भी देश की राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियों का उसकी सामाजिक परिस्थितियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जिस समय देश की धार्मिक एवं राजनीतिक परिस्थिति शोचनीय हो, उस समय उच्च सामाजिकता की आशा नहीं की जा सकती। 10वीं-11 वीं शती तथा इससे कुछ पहले ही भारतीय समाज वर्ण के आधार पर जातियों की कठोर व्यवस्था में जकड़ा जा चुका था। इस समय कर्म के आधार पर नहीं, बल्कि जाति के आधार पर व्यक्ति को श्रेष्ठ अथवा निकृष्ट समझा जाता था। जातियों का वर्ग-भेद बढ़ता जा रहा था। समाज में छुआछूत की दुर्गन्ध बहुत अधिक मात्रा में फैल चुकी थी। हिन्दू समाज से बहिष्कृत लोग पुनः अपना धर्म नहीं अपना सकते थे। समाज विभिन्न प्रकार की सढ़ियों से ग्रस्त था। सामन्तों की वीरता का दंभ समाज की छाती पर भयंकर विषधर बनकर लहराने लगा था। इस समय राजपूत वंश में स्वयंवर प्रथा प्रचलित थी। 



स्वयंवरों के अवसर पर वीरता और सम्मान के नाम पर अपहरण काण्ड होते थे। इसी कारण ऐसे अवसरों पर रक्त की नदियां बह जाना एक सामान्य बात थी। इस समय के राजपूत सामन्त बीर, दृढ़व्रती तथा सत्यनिष्ठ थे। वे अपने स्वामी के गौरव की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान करने में संकोच नहीं करते थे। इस समय एक ओर तो कर्तव्यनिष्ठा एवं वीरता का अजन् प्रवाह था तथा दूसरी ओर भोग-विलास और रंगरेलियों की भरमार थी। समाज में क्षत्रियों का प्राधान्य हो चला था। अधिकांश क्षत्रियों में राष्ट्रीयता की भावना का अभाव था। इस समय की राजपूत रित्रयों में भी वीरता तथा साहस का अभाव नहीं था। 



युद्ध-क्षेत्र में पीठ दिखाने वाले पुरुषों को सर्वत्र अपमानित होना पड़ता था। स्त्रियां अपने पति की चिता पर जौहर करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करती थी। राजा लोग युद्ध से लौटने पर अपनी रानियों के साथ रंगरेलियां मनाते थे। उस समय स्त्रियों को समाज में अधिक सम्मान नहीं मिलता था, बल्कि उन्हें भोग-विलास की सामग्री मात्र समझा जाता था ।


आर्थिक क्रिया- कलोप आदिकालीन युग की अध्ययन-मनन के उपरान्त जब हम इसके आर्थिक क्रिया-कलाप पर दृष्टिपात करते है, तो हम यह पाते हैं कि इस काल का मुख्याधार कृषि ही थी। ऐसा इसलिए कि इससे ही सभी प्रकार की शासकीय व्यवस्था संचालित थी। यह लक्षितव्य है कि उस समय के पदाधिकारियों को नकद वेतन न देकर कोई न कोई उन्हें जागीर दी जाती थी। दूसरी बात यह कि किसानों की पैदावार में से आधा भाग तो राज्य का होता था।



इस युग का समाज दो वर्गों में बँटा हुआ था-उत्पादक और उपभोक्ता। उत्पादक वर्ग को समाज में उपेक्षा और अनादर की दृष्टि से देखा जाता था। यह इसलिए कि ये दूसरे के उत्पादन का लाभ न उठाकर स्वयं ही उत्पादन करके आत्मनिर्भर होने का निरंतर प्रयास करते थे। दूसरी ओर उपभोक्ता वर्ग उत्पादक वर्ग की गाड़ी कमाई का लाभ उठाकर चैन की वंशी बजाया करते थे। इस प्रकार ये उच्च वर्ग से अपना सम्बन्ध रखते थे। इनकी प्रशंसा में कवि और चारण रचनाशील थे।



धार्मिक स्थिति-  इस युग में धर्म के क्षेत्र में अराजकता विद्यमान थी। उत्तर भारत में ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की प्रधानता थी। बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म में अनेक बुराइयों का प्रवेश हो चुका था। शंकराचार्य के प्रयत्नों से बौद्ध धर्म क्षत-विक्षत हो चुका था। बौद्ध धर्म अनेक शाखाओं में बंट चुका था। यह हीनयान, महायान, वजयान, सहजयान, मन्त्रयान आदि विचित्र कर्मकाण्ड प्रधान सम्प्रदायों में विभक्त होकर इस देश में अन्तिम घड़ियां गिन रहा था। वीद्ध धर्म की वज्रयान शाखा ने भ्रष्टाचार को बहुत अधिक बढ़ावा दिया। 



चमत्कार प्रदर्शन के नाम पर ये तथाकथित धार्मिक लोग भोली-भाली जनता को ठगते थे। निम्न वर्ग की स्त्रियों के साथ भोग-विलास एक साधारण-सी बात हो चुकी थी। अलौकिक शक्तियों और सिद्धियों की प्राप्ति के लिए बौद्धों के विभिन्न सम्प्रदाय गुप्त मन्त्रों का जाप, नारी सम्भोग तथा सुरापान आदि करते थे। इस युग में धर्म की आड़ में अधर्म का पोषण हो रहा था। तन्त्र-मन्त्र द्वारा सिद्धि की इस परम्परा का जैन धर्म पर भी प्रभाव पड़ा ।


बौद्धों की देखादेखी वैष्णव सम्प्रदाय भी विकृति के शिकार होने लगा। पांच रात्र, शैव कापालिक, कालमुख आदि सम्प्रदाय भी वाममार्ग से प्रभावित हो चुके थे। शाक्त सम्प्रदाय में तो सुरा-सुन्दरी के प्रति गहन आकर्षण व्याप्त हो चुका था। समाज का निम्न वर्ग कामाचारियो के चंगुल में अधिक उलझा हुआ था। इसी काल में बौद्ध धर्म के विकृत रूप और शैव धर्म के सम्मिश्रण. से नाथपंथ विकसित हुआ। इस युग में बौद्ध धर्म के पतन के कारण ब्राह्मण धर्म पुनः प्रतिष्ठित हुआ, परन्तु उसमें भी अनेक बुराइयों ने प्रवेश पा लिया था। ब्राह्मण धर्म दो भागों में विभक्त हो गया था शेव धर्म तथा वैष्णव धर्म। ब्राह्मण धर्म के पुनः प्रतिष्ठित होने से वर्ण-व्यवस्था फिर से जीवित हो उठी थी। हिन्दुओं में आचार-विचार, व्रत-पूजादि की भावना में वृद्धि हुई। 



हिन्दू समाज में धर्म के नाम पर आडम्बरों को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। इस युग में ब्राह्मण अपने प्राचीन गौरव को खो बैठे थे। राजदरबार में अपने आश्रयदाता का गुणगान करने वाले कुछ ब्राह्मण आदर के पात्र समझे जाते थे। नैष्ठिक हिन्दुओं में शिव तथा नारायण की उपासना लोकप्रिय होने लगी थी। इस युग के सिद्ध-नाथ साहित्य से तत्कालीन वाममार्गी सम्प्रदायों की विकृति का परिचय मिलता है। इसी समय इस्लाम धर्म भी तलवार के जोर पर पनपने लगा था, किन्तु आदिकालीन साहित्य पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सका।


मिश्रित सांस्कृतिक प्रक्रिया- यह काल राजनीतिक अराजकता एवं बाहरी आक्रमणों का युग था। इस युग में मुख्यतः मुसलमानों (महमूद गजनवी, मोहम्मद गौरी आदि) के आक्रमण हुए। मुसलमानों ने धीरे-धीरे हमारे देश के एक बहुत बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया। मुसलमानों के भारत में रहने से हिन्दू तथा मुस्लिम संस्कृतियों का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ा। प्रारम्भ में मुसलमान भारतीय संस्कृति की और विशेष रूप से आकृष्ट हुए। उन्होंने संगीत, वास्तुकला, ज्योतिष, गणित तथा आयुर्वेद आदि का अध्ययन भी किया। यद्यपि मुसलमानों ने क्रूरता ओर अत्याचार का ही विशेष अवलम्व लिया था, तो भी पारस्परिक आदान-प्रदान निरन्तर जारी रहा। 



सांस्कृतिक दृष्टि से मुसलमान हिन्दुओं पर विजय न पा सके, बल्कि वे स्वयं भारतीय रंग में रंग गए। कुछ विद्वान् इस काल को हिन्दू-मुसलमान संस्कृतियों का मिलन काल कहते हैं। हिन्दू-संस्कृति पर भी धीरे-धीरे मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव दृष्टिगत होने लगा था। भारत में प्रचलित मुख्य मेलों, तीज-त्योहारों, वेश-भूषा आहार-विहार तथा मनोरंजन आदि पर मुस्लिम संस्कृति का कुछ प्रभाव दिखाई देने लगा था। मुस्लिम राजाओं के प्रभाव से हिन्दू राजदरबारी में भी मुस्लिम कलाएं प्रवेश पाने लगी थीं ।


आदि कालीन साहित्य का वर्गीकरण

आदि काल अन्तर्कलह और बाहा संघों का युग था। इस युग में साहित्य अपने सृजन-पथ पर आगे बढ़ रहा था। संस्कृत साहित्य की अपनी परम्परा में विकास हो रहा था। ज्योतिष, दर्शन तथा स्मृतियों की टीकाएं लिखी जा रही थी। भवभूति तथा राजशेखर ने नाटक तथा काव्य-क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का सशक्त परिचय दिया था। इस समय के साहित्य में पांडित्य और चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी। श्री हर्ष का 'नेषध चरित' इसका प्रमाण है। धारानगरी के राजा भोज स्वयं एक श्रेष्ठ विद्वान् तथा कवि थे। उन्होंने 'सररवती कंठाभरण' तथा 'श्रृंगार प्रकाश' जैसे ग्रन्थों की रचना की थी। इसी काल में जयदेव, कुन्तक, हेमचन्द्र, विश्वनाथ, सौमदेव जैसे महान् विद्वान्, आचार्य तथा कवि उपस्थित थे। कल्हण की राजतरंगिणी इसी युग में लिखी गई।


अध्ययन को सुविधाजनक बनाने के लिए आदिकालीन साहित्य को निग्नलिखित श्रेणियों में रखा जा सकता है-

(क) सिद्ध साहित्य

(ख) नाथ साहित्य धर्म सम्बन्धित साहित्य

(ग) जैन साहित्य

(घ) रासोकाव्य

(ङ) लौकिक साहित्य

(च) गद्य रचनाएं



सिद्ध साहित्य का सम्बन्ध बीद्ध साहित्य से स्वीकार किया जाता है। यह भी सत्य है कि सिद्धों की रचनाएं हिन्दी के आरंभिक दौर से प्रभावित रहीं। सिद्ध वज्रयानी थे, क्योंकि उनकी साधना वज्रयानी थी और यह साथना वाममार्गी थी। दूसरी बात यह कि सिद्धों ने अपने विभिन्न साधनों के द्वारा न केवल स्थापित साधनाओं का ही विरोध किया, अपितु सामाजिक गतिविधियों का भी विरोध किया। इस प्रकार उनका विरोधी रवर सामाजिक स्तर पर होता हुआ साहित्यिक अनुभूति और भाषा की अभिव्यंजना के विभिन्न रूपों पर भी सब ओर दिखाई देता है। उनके इस प्रकार के विरोध का यह वैशिष्ट्य था कि व्यवस्था से सीधा टक्कर न लेकर कभी अर्थ को उलट कर और और कभी छुप कर प्रकट किया करते थे, जिससे वे व्यवस्था से सीधे न टकराकर अपने मंतव्य को स्पष्ट कर सकें । 



नाथ साहित्य का आरंभ सिद्ध साहित्य के कुछ समय बाद हुआ। इसका दार्शनिक पक्ष शैव मत से प्रभावित है। लेकिन उसका व्यावहारिक पक्ष पतंजलि के हठयोग का है। नाथपंथियों की साधना सिद्धों की साधना के विपरीत रही। उन्होंने सिद्धों की अपनी साधना को दुरूह न बनाकर उसके लिए सहज और संभाव्य बनाकर प्रस्तुत किया। नाथ साहित्य की दो सर्वप्रमुख विशेषताएं रहीं। पहली यह कि उसने अपनी धर्म-निरपेक्ष दृष्टि प्रस्तुत की। इसके लिए उसने ईश्वर से मिलाने वाला योग हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए अभेद रूप से अपनी साथना को प्रस्तुत किया। इस प्रकार इस साहित्य में किसी प्रकार की धार्मिक कट्टरता नहीं रही। 



दूसरी बात यह कि नाथों के साहित्य में यायावरी साहित्य का गुण मिलता है। नाथ जोगी अपने धर्म प्रचार के लिए एक से दूसरे प्रदेशों में यात्रा करते थे। इससे ये विभिन्न स्थानों की संस्कृति, भाषा और व्यवहार से परिचित होने के साथ-साथ भाषा के प्रभाव को भी अपनाते रहे। यही बात निर्गुण साहित्य में भी दिखाई देती है। नाथ-साहित्य के प्रभाव भक्तिकाल के संत-साहित्य पर भी पड़े हैं।


जैन साहित्य अपभ्रंश साहित्य में रचा गया है। इसके सिवाय जैन साहित्य हिन्दी भाषा और साहित्य की रचना कहा जा सकता है; जैसे शलिभद्र सूरि की कृति 'भरतेश्वर बाहुबली रास' (1884 ई०)

असुग की कृति 'चंदनबाला रास' (1200 ई०)

जिनधर्म सूरिकृत 'स्थलिभद्र रास' (1231 ई०)

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैन साहित्य हिन्दी साहित्य का एक अभिन्न साहित्य है।



आदिकालीन साहित्य की एक विशिष्ट देन 'रासो साहित्य' है। इस साहित्य में वीर रस का प्रवाह प्रखर हुआ है। इस साहित्य के रचनाकार भट्ट और चारण ही रहे। रासो के साथ रास शब्द का उल्लेख मिलता है। इन दोनों में अंतर यह है कि रास काव्यधारा में जहाँ जीवन के अनेक चित्र हैं, वहीं रासो काव्य में युद्ध और प्रेम के स्वरूप को संवेदनात्मक स्तर पर देखा जा सकता है। अब तो इन दोनों ही का अर्थ एक विशेष प्रकार के काव्य के लिए रूढ़ हो गया है। यह ध्यातव्य है कि रास काव्य में जैन कवियों द्वारा लिखे हुए रासक ग्रन्थ और 'संदेश रासक' जैसे काव्य हैं, तो रासो काव्य में चारणों द्वारा लिखे गए वीर भावों से लबालब भरे हुए काव्य हैं। परिवर्तित रूप में आज उपलब्ध रासो साहित्य के विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-



"जो कुछ पुराने काव्य-जैसे बीसलदेव रासी, पृथ्वीराज रासो आजकल गिलते हैं, ने संदिग्ध हैं। इसी संदिग्ध सामग्री को लेकर थोड़ा-पड़त विचार हो सकता है। उसी पर हमें संतोष करना पड़ता है।" (हिन्दी साहित्य का इतिहास) आदिकालीन साहित्य धार्मिक साहित्य तक सीमित न होकर लोक साहित्य तक पहुँच रहा था। यही वास्तव में देवभाषा थी। यह लौकिक साहित्य-राजस्थान, दिल्ली और मिथिला की लोक-संवेदना की झलक प्रस्तुत करने वाला रहा। इसमें भक्ति और श्रृंगारपरक रचनाएं हुई। जानाया के मनोरंजन के लिए झांकियों और पहेलियां रची गई।


सारांश

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि आदिकाल और अपभ्रंश साहित्य एक नहीं है। यह भेद भाषा और संवेदना दोनों ही रूपों में है। दूसरी बात यह है कि अपभ्रंश और साहित्य ने हिन्दी साहित्य को विभिन्न प्रकार से प्रभावित किया। तीसरी बात यह है कि इस काल में संस्कृत अपभ्रंश और देश भाषा से हिन्दी साहित्य का आरंभिक दौर शुरू हो गया। इस प्रकार यह काल सिद्धों, नाथों, चारणों और अमीर खुसरो के साहित्य और भाषा से अनेक प्रकार से प्रभावित होता हुआ दिखाई देता है।

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