हिन्दी साहित्य : काल-विभाजन और नामकरण Hindi Literature: Period Division and Naming

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हिन्दी साहित्य : काल-विभाजन और नामकरण Hindi Literature: Period Division and Naming


 


हिन्दी साहित्य के इतिहास की भूमिका और आदिकाल

हिंदी साहित्य काल-विभाजन और नामकरण- 1 Hindi Literature: Period Division and Naming




           इकाई की रूपरेखा

  • 1.0         उद्देश्य
  • 1.10         रीतिकाल का सीमा-निर्धारण
  • 1.1         प्रस्तावना
  • 1.11        रीतिकाल नामकरण
  • 1.2         पृष्ठभूमि
  • 1.12         आधुनिक काल की पृष्ठभूमि
  • 1.3         काल-विभाजन की समस्याएं
  • 1.13         आधुनिक संवेदना के आधार
  • 1.4             काल-विभाजन के आधार
  • 1.13.1.     भारतेन्दु युग का काल-विभाजन और नामकरण
  • 1.5         नामकरण के आधार
  • 1.13.2.     द्विवेदी युग
  • 1.6         हिन्दी साहित्य में प्रचलित काल-विभाजन और नामकरण
  • 1.13.3.     छायावाद
  • 1.7         आदिकाल का सीमा-निर्धारण
  • 1.13.4.         छायावादोत्तर
  • 1.8             आदिकाल का नामकरण
  • 1.14.             सारांश
  • 1.9             भक्तिकाल काल-विभाजन और नामकरण
  • 1.15             अभ्यास प्रश्न

  • 1.1 प्रस्तावना

हिन्दी साहित्य के इतिहास को जब हम देखते हैं, तब हमारे लिए सबसे बड़ी कठिनाई यह सामने आ जाती है कि लगभग एक हजार वर्षों के लम्बे इतिहास को कैसे हम समझें। इसी तरह हमारे लिए एक बहुत बड़ा प्रश्न आ जाता है कि इस लम्बे साहित्य के इतिहास के काल-विभाजन और नामकरण की अनिवार्यता क्या है? इसे इतिहास के किस प्रकार के तथ्यों से पुष्ट किया जाता है ? 


यह प्रश्न भी कि क्या इतिहास का कोई कालखण्ड या युग इतिहास की तथ्यगत सच्चाई को प्रदर्शित करता है या इतिहासकार अपनी सोच-समझ से इसे प्रस्तुत करता है। इस प्रकार के ढेर सारे प्रश्नों का समाधान करते हुए ही हम इतिहास का सही विभाजन कर सकते हैं। इससे हम इतिहास के काल-विभाजन के आधारों को समझ सकते हैं।


1.2 पृष्ठभूमि 

इतिहास  बोध को हम आलोचनायक चेतना कह सकते हैं और साहित्य के परस्पर सम्वन्धों को हम भली-भाँति समझ लेते हैं। इसलिए साहित्य का इतिहासकार इन परस्पर सम्बन्धों परिवर्तनका प्रखर गहराई से अनुभव करेगा, वह उतना ही प्रमाणिक काल विभाजन प्रस्तुत करेगा। इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ा की की और हम बार-बार देखते हैं। उन्होंने अपने शोधपूर्ण ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा है


"शिक्षित जनता की जिन-जिन अवृत्तियों के अनुसार हमारे सहित्य के स्वरूप में जो-जो परिवर्तलन होते आए हैं, जिन-जिन प्रधा प्रेरणा से काव्यधारा को भिन्न-भिन्न शाखाएँ फूटती रही हैं, उन सबकै सम्यक् निरूपण तथा उनकी दृष्टि से किए हुए सुसंगत काल-विभाग प्रेरणा से काव्यधारा की मिन सिन्न अध्ययन कठिन दिखाई पड़ता था। सात-आठ सो वर्षों की संचित ग्रंथ राशि सामने लगी हुई थी, पर एसी निर्दिष्ट सारणियों की उद्‌भावना नहीं हुई थी, जिसके अनुसार सुगमता से प्रभूत सामग्री का वर्गीकरण होता ।" उपर्युक्त कथन का अभिप्राय यही है कि ठोस इतिहास की दृष्टि से ही सुसंगत काल-विभाजन किया जा सकता है। इससे ही इतिहास का अध्ययन सुगम हो सकता है।



1.3 काल-विभाजन की समस्याएँ

इतिहास या समाजशास्त्र में किसी घटना को आधार बनाकर एक रेखा खींची जा सकती है। उदाहरण के लिए, इतिहास में पुनर्मा का आरंभ सामान्यतः तुकों के हाथों कुरतुनतुनिया की हार के समय से स्वीकार किया जाता है। लेकिन साहित्य के इतिहास लेखाफ के साहित्यिक रुझान को समझना कठिन होता है। इसका यही कारण है कि साहित्यिक रुझान के परिवर्तन का कोई समय तय नहीं होता है। इ प्रकार की प्रवृत्ति को आधार बना लिया जाए, तो यह देखा जा सकता है कि जब साहित्य में एक प्रकार की प्रवृत्ति गतिशील होती है, तो उसने समानान्तर कभी-कभी प्रतिरोधी प्रवृत्ति भी गतिशील हो



उठती है। इससे काल-विभाजन की बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है। काल-विभाजन की दूसरी समस्या संक्राति काल को लेकर होती है। संक्रमण काल के जिन बिन्दुओं पर इतिहास के दो युगों को तो जाता है, वहाँ इतिहासकार की चिन्तनधारा ही विच्छिन्न नहीं होती है, अपितु इस टूटने की प्रक्रिया में बहुत कुछ दूर हो जाता है। काल-विभाजन की तीसरी समस्या है-साहित्य के इतिहास में और राजनीतिक इतिहास में समानता को मान लेना। इससे सही काल-विभाजन नहीं हो सकता ।



1.4 काल-विभाजन के आधार

हिन्दी-साहित्य के इतिहास के अध्ययन की सुविधा के लिए कुछ विद्वानों ने इसे कुछ विशिष्ट कालखंडों में विभाजित किया है। काल-विभाजन से साहित्य की मुख्य धाराओं के विषय-बोध में वैज्ञानिकता और सैद्धान्तिक गम्भीरता का पुट आ जाता हे। सामान्यतः किसी भी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन कृति, कर्ता, पद्धति या शैली तथा विषय के आधार पर किया जाता है। जब किसी काल में प्रवृत्ति का मुख्य आधार नहीं मिलता, तो उस युग के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्यकार के नाम से उस सम्पूर्ण कालखंड वी साहित्यिक विशेषताओं को जानने का प्रयास किया जाता है। 



काल-विभाजन के लिए यदि कोई विशिष्ट आधार नहीं मिलता, तब समग्र काल को आदि, मध्य और आधुनिक काल में विभाजित कर लिया जाता है। इस प्रकार का काल-विभाजन पर्याप्त रूप से प्रचलित है, परन्तु यह वैज्ञानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरता। वस्तुतः हिन्दी साहित्य के इतिहास के अध्ययन के लिए प्रवृत्तियों पर आधारित काल-विभाजन ही अधिक उचित कहा जा सकता है, जैसे-भक्तिकाल, रीतिकाल आदि ।



हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में काल-विभाजन के लिए चार पद्धतियों का सहारा लिया गया है। पहली पद्धति के अनुसार सम्पूर्ण इतिहास का विभाजन चार युगों या कालखण्डों में किया गया है- (1) आदिकाल, (2) भक्तिकाल, (3) रीतिकाल, और (4) आधुनिक काल । आचार्य शुक्ल और उनके अनुयायियों ने नागरी प्रचारिणी सभा के इतिहास ग्रन्थों में इसी परम्परा को अपनाया है। दूसरी पद्धति में केवल तीन युगों- (1) आदिकाल, (2) मध्यकाल, और (3) आधुनिककाल में कल्पना की है। 



डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त तथा भारतीय हिन्दी परिषद् के विद्वान् लेखाकों ने इसे स्वीकार किया है। इसके पीछे उनका तर्क यह है कि मध्यकालीन चेतना प्रायः एक सी रही है। तीसरी पद्धति साहित्य का विभाजन विधाक्रम से करती है। यह पद्धति साहित्यशास्त्र के अनुकूल है। इस प्रकार के अनेक इतिहास अथवा खण्ड इतिहास हिन्दी में उपलब्ध है। एक और पद्धति है, जो शुद्ध कालक्रम के अनुसार वस्तुगत विभाजन को ही यथार्थ एवं वास्तविक स्वीकार करती है।



चूंकि साहित्य के इतिहास में युग चेतना और साहित्य चेतना का अनिवार्य योग रहता है अतः साहित्य के विभाजन में भी ऐतिहासिक कालक्रम और साहित्य विधा दोनों का आधार ग्रहण करना होगा। इस समन्वय पद्धति को स्वीकार कर लेने पर हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन की समस्या का समाधान बहुत कुछ हो जाता है। सातवीं से लेकर ग्यारहवीं सदी तक प्राप्त कृतियों की भाषा या तो अपभ्रंश है या हिन्दी की कोई उपभाषा है। ग्यारहवीं से लेकर चौदहवीं सदी तक का काव्य सामन्तीय एवं धार्मिक इन दो अनगढ़ भूमियों के मध्य प्रवाहित रहा। इसके पश्चात् भक्ति का द्वितीय चरण (युग) आरम्भ हो जाता है। इसके कालखण्ड के सम्बन्ध में दो मत हैं। एक वर्ग के विद्वान् सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक एक काव्यधारा को तथा सत्रहवीं सदी के मध्य से उन्नीसवी सदी तक दूसरी काव्यधारा को स्वीकार करते हैं।



 दूसरे वर्ग के विद्वान् सम्पूर्ण कालखण्ड को एक ही काल सीमा में स्वीकार कर लेते हैं तथा दूसरी काव्यधारा की दो प्रवृत्तियों को अलग-अलग नाम दे देते है। इसमें दूसरा मत ही अधिक मान्य है। सन् 1857 की क्रांति भारत के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। राष्ट्रीय एवं राजनीतिक चेतना का यह आन्दोलन वास्तव में मध्ययुग की समाप्ति और आधुनिक युग के आरम्भ का प्रथम उद्घोष था। अतः आधुनिक युग का आरम्भ सन् 1857 ई. के पश्चात् माना जा सकता है।




1.5 नामकरण के आधार

यह एक स्वाभाविक प्रश्न है युगों के नामकरण का। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को वीरगाथाकाल (भक्ति काल, रीति काल), मध्य काल, आधुनिक काल इस प्रकार विभाजित किया। उन्होंने जॉर्ज ग्रियर्सन तथा मिश्र बन्धुओं से अवश्य ही संकेत ग्रहण किया है। पर, नामकरण और उसके तर्क के पीछे उनकी अपनी व्याख्या है। शुक्ल जी के नामकरण से भक्ति काल या आधुनिक काल को यथावत् स्वीकार कर लिया गया है, परन्तु वीरगाथा काल और रीति काल के विषय में विवाद रहे हैं।



 'वीरगाथा काल' के नामकरण के सन्दर्भ में आपत्ति मुख्यतया यह है कि इस काल की अधिकांश रचनाएँ अप्राप्य हैं तथा कुछ रचनाएँ परवर्ती काल की है। इस काल के कथ्य और माध्यम के रूपों में भी विविधता एवं अव्यवस्था है। ऐसी स्थिति में किसी एक प्रवृत्ति के आधार पर उनका नामकरण नहीं किया जा सकता है। रीति काल के सम्बन्ध में मतभेद की परिधि सीमित है। यहाँ विवाद का विषय इतना ही है कि इस युग में रीति तत्त्व प्रमुख है या श्रृंगार तत्त्व। 'शृंगार काल' नामकरण करने पर अतिव्याप्ति का दोष आ जाता है।



 चूँकि शृंगार भी रीतिबद्ध था अतः रीति ही यहाँ प्रमुख है। आधुनिक काल को शुक्लजी ने प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय उत्थान कहा है। इनको क्रमशः भारतेन्दु काल तथा द्विवेदी काल कहा जा सकता है। तृतीय उत्थान को उन्होंने कोई नाम नहीं दिया। इसका कारण समभवतः इस काव्यधारा का प्रवाहमय रूप रहा।




1.6 हिन्दी साहित्य में प्रचलित काल-विभाजन और नामकरण

हिन्दी-साहित्य के प्रारम्भिक इतिहासकारों गार्सा द तासी तथा शिवसिंह सेंगर ने काल-विभाजन की ओर ध्यान नहीं दिया। सर्वप्रथम जॉर्ज ग्रियर्सन ने अव्यवस्थित ढंग से हिन्दी साहित्य के इतिहास को काल-क्रम देने का प्रयास किया था। ग्रियर्सन ने चारण काल, पन्द्रहवीं शती का धार्मिक पुनर्जागरण, जायसी की प्रेम कविता, ब्रज का कृष्ण सम्प्रदाय, मुगल दरबार, तुलसीदास, रीति-काव्य, अठारहवीं शताब्दी, कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान आदि शीर्षकों में साहित्य का काल-विभाजन किया।



 हमारे दृष्टिकोण से इसे काल-विभाजन कहना उचित नहीं है। वास्तव में ये विभिन्न अध्यायों के केवल शीर्षक मात्र हैं। इनमें कालक्रम की निरन्तरता भी नहीं है। इसके पश्चात् मिश्र बन्धुओं ने हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन किया। उनके द्वारा प्रस्तुत काल-विभाजन निम्नलिखित है-


(1) आरम्भिक काल 

(क) पूर्वारम्भिक काल (700 से 1343 वि०)

 (ख) उत्तरारम्भिक काल (1344 से 1444 वि०)

(2) माध्यमिक काल

(क) पूर्व माध्यमिक काल (1445 से 1560 वि०) 

(ख) प्रौढ़ माध्यमिक काल (1561 से 1680 वि०)

(3) अलंकृत काल

(क) पूर्वालंकृत काल (1681 से 1790 वि०) 

(ख) उत्तरालंकृत काल (1791 से 1889 वि०)

(4) परिवर्तन काल

(1890 से 1925 वि०)

(5) वर्तमान काल

(1926 वि० से अध्यावधि)


हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की परम्परा में सर्वोच्च एवं महत्त्वपूर्ण स्थान रामचन्द्र शुक्ल और उनके 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' का है। यह ग्रन्थ मूलतः 'नागरी प्रचारिणी सभा' द्वारा प्रकाशित 'हिन्दी शब्द सागर' की भूमिका के रूप में लिखा गया था, जिसे कालान्तर में परिवर्जित एवं संशोधित करके स्वतन्त्र पुस्तक का रूप दिया गया। इसके आरम्भ में ही शुक्ल जी लिखते हैं- "जब कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। 



आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका प्रान्तीय हिन्दी साहित्य का इतिहास", डॉ० टीकमसिंह तोमर का "हिन्दी चीर काव्य", डॉ० मोतीलाल मेनारिया का 'राजस्थानी भाषा और साहित्य, डॉ० श्रीकृष्ण लाल, डॉ० लक्ष्मीसागर यार्जेय, डॉ० नरेन्द्र कुमार शर्मा का "मध्यकाल", डॉ० नलिन विलीयन शर्मा का "सीहत्य का इतिहास-दर्शन", डॉ० सियाराम तिवारी का "मध्यकालीन खण्डकाव्य", डॉ० सरला शुक्ला, डॉ० हरिकान्त श्रीवास्तव, डॉ० ओमप्रकाश शर्मा राइश विद्वानों के प्रेमाख्यानक काव्य सम्बन्धी शोथ प्रवन्ध उल्लेखनीय है। इसी परम्परा में डॉ० राजनाथ शर्मा का "विवेचनात्मक इतिहास" भी है।



 इन सभी इतिहास ग्रन्थों में डॉ० जयकिशन प्रसाद का हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों' शीर्षक इतिहास प्रन्व विशेष महत्त्वय का है। इसमें नूतन निष्कर्षों के आधार पर अद्यतन सामग्री का उपभोग करते हुए हिन्दी साहित्य के सम्पूर्ण इतिहास को विकासवादी सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा के साथ प्रस्तुत, किया गया है।इस सम्पूर्ण तर्क को आधार मानकर हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन तथा नामकरण इस प्रकार किया जा सकता है- आदिकाल-सातवी शती के मध्य से चौदहवीं शती के मध्य तक,



भक्तिकाल-1350 से 1650 ई० तक,

रीतिकाल-1650 से 1850 ई० तक,

आधुनिक काल 1850 से अब तक ।

आधुनिक काल को विभिन्न धाराओं में भी रखा जा सकता है-

(अ) पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु युग),

(ब) सुधारकाल (द्विवेदी युग)

(स) छायावाद काल,

(द) छायावादोत्तर काल ।

1. प्रगतिवाद,

2. प्रयोगवाद,

3. नई कविता,

4. साठोत्तरी कविता,

5. अकविता,

6. नवलेखन काल ।



1.7 आदिकाल का सीमा-निर्धारण

हिन्दी साहित्य के आदिकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। यह मतभेद अपभ्रंश भाषा को हिन्दी में स्वीकार या बहिष्कृत करने से सम्बन्धित है। वास्तव में जब अपभ्रंश भाषा साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी, तब वह जन भाषा से दूर हो गयी। चन्द्रघर शर्मा गुलेरी ने इसे ही पुरानी हिन्दी कहा है।



आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी का आरंभ सिद्धों की रचनाओं से स्वीकार करते हुए इसे सन् 903 ई० अर्थात् दसवीं शताब्दी से ही मानते हैं। उन्होंने अपने शोधपूर्ण इतिहास और आलोचना में यह बार-बार आग्रह किया है कि हिन्दी साहित्य का विकास कार्य सातवीं सदी में हो चुका था। काव्य के आधार पर नाथ और सिद्धों का मूल्यांकन करने पर हम यह पाते हैं कि सिद्धों ने पंडित परम्परा को खुली चुनौती दी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद दूसरे महत्त्वपूर्ण इतिहासकार हे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। उन्होंने भाषा और साहित्य का रूप



इतना अधिक मिला-जुला पाया कि वास्तविक हिन्दी की शुरूआत ही ये भक्ति काल से मानते हैं। आचार्य द्विवेदी दसवीं शताब्दी से चौदहवी शताब्दी तक के समय को हिन्दी साहित्य का आदि काल मानते हैं। उनके अनुसार इस प्रकार दसवीं शताब्दी से चौदहवी शताब्दी का काल जिसे हिन्दी का आदि काल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश के ही आगे का रूप है। इसी अपभ्रंश के परवर्ती रूप को कुछ लोग उत्तरकालीन अपभ्रंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिन्दी से सम्बोधित करते है ।




महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के काव्य में दो प्रकार के भाव प्राप्त किए हे सिद्धों की वाणी और सामन्तों की स्तुति। इसलिए उन्होंने उस काल को सिद्ध सामंत युग कहा है, किन्तु इस नाम से उन अत्यंत महत्त्वपूर्ण लौकिक साहित्य की कुछ भी झलक नहीं मिलती है। बाद के साहित्यकारों में डॉ० रामकुमार वर्मा और राहुल सांकृत्यायन ने भी सातवी-आठवीं शताब्दी से हिन्दी साहित्य का आरंभ माना है। डॉ० रामकुमार वर्मा ने गुलेरीजी के मत का समर्थन किया है और राहुल सांकृत्यायन ने भी उत्तर अपभ्रंश की रचनाओं को हिन्दी की रचना माना है। इसलिए हिन्दी साहित्य का आरंभ सातवीं शताब्दी से स्वीकार किया जा सकता है।



1.8 आदिकाल का नामकरण

हिन्दी-साहित्य के आदिकाल के नामकरण के विषय में विभिन्न इतिहासकारों ने अपने-अपने विभिन्न मत प्रस्तुत किए हैं। इन सभी इतिहासकारों ने अपने-अपने मतों की पुष्टि के लिए विभिन्न विचार प्रस्तुत किए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आदि काल संवत् 1950 से संवत् 1375 तक को वीरगाथाओं की प्रमुखता के कारण वीरगाथा काल नाम दिया है। शुक्लजी ने अपने मत को पुष्ट करते हुए लिखा है -


"आदिकाल की इस दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़ सी वर्षों तक तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है। धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर आदि सब प्रकार की रचनाएं दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों के आक्रमणों का आरंभ होता है, तब से हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति को एक विशेष रूप से बंधी हुई पाते हैं।



 राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार नीति, श्रृंगार आदि के फुटकल दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरित्रों अथवा गाथाओं का वर्णन भी किया करते थे। यही परम्परा रासो के नाम से पाई जाती है। इसे ही लक्ष्य करके इस काल को हमने 'वीरगाथा काल' कहा है।


वीरगाथा काल के नामकरण का आधार शुक्लजी ने निम्नलिखित रचनाओं को बनाया है

1. खुमान रासो

(दलपत विजय, संवत् 1180-1205)

2. बीसलदेव रासो

(नरपति नाल्ह, संवत् 1292)

3. पृथ्वीराज रासो

(चन्दबरदाई, संवत् 1225-1249)

4. जयचन्द प्रकाश

(भट्ट केदार, संवत् 1225)

5. जयमयंक जसचन्द्रिका

(मधुकर कवि, संवत् 1240)

6. परमाल रासो

(जगनिक, संवत् 1230)

7. खुसरो की पहेलियाँ आदि

(अमीर खुसरो, संवत् 1230)

8 . विद्यापति की पदावली

(विद्यापति, संवत् 1460)

9. विजयपाल रासो

(नल्ल सिंह भट्ट, संवत् 1350)

10. हम्मीर रासो

(शार्ङ्गधर, संवत् 1357)

11. कीर्तिलता

(विद्यापति, संवत, 1460)

12. कीर्तिपताका

(विद्यापति, संवत् 1460)



उपर्युक्त ग्रन्थों के आधार पर आदि काल को वीरगाथा काल की संज्ञा दी गई है, परन्तु उपर्युक्त ग्रन्थों में 'कीर्तिलता' तथा 'कीर्तिपताका' अपभ्रंश भाषा की रचनाएं है। पदावली एवं खुसरो की पहेलियों का वीरगाथाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। बीसलदेव रासो श्रृंगारिक विरह याब है। खुमान रासो एवं पृथ्वीराज रासो अर्द्धप्रमाणिक ग्रन्थ हैं। 



खुमान रासो में महाराणा प्रताप तक के समय का वर्णन है। श्री मोतीलाल मेनारिया ने यह सिद्ध किया है कि खुमान रासो संवत् 1730 और 1760 की बीच रची गयी है। हम्मीर रासो ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। पृथ्वीराज रासो की रचना के समय के विषय में अधिक विवाद है। मेनारियाजी ने बीसलदेव रासो के रचयिता नरपति नाल्ह का संवत् 1545 माना है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका रचनाकाल शुक्लजी ने स्वयं ही संवत् 1460 स्वीकार किया है। शुक्लजी के सामने उक्त बारह ग्रन्थों की सीमित सामग्री थी। परवर्ती विद्वानों ने आदिकाल में रचित अन्य अनेक ग्रन्थों की खोज को है।



 महापण्डित राहुल सांकृत्यायन और डॉ० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने नाथों, सिद्धों और बौद्धों की अनेक रचनाओं का पता लगाया है। उस विशाल साहित्य के सामने इस काल की वीरगाथात्मक रचनाएं नामकरण में अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं ठहरती है। शुक्लजी के सामने संदेश रासक पद्म चरित्र, पाहुड़, दोहा, हरिवंश पुराण, जसहर चरित्र, भविसमत्त आदि रचनाओं की सामग्री नहीं थी। अतः आचार्य शुक्लजी द्वारा प्रतिपादित 'वीरगाथा काल' नाम को उचित नहीं कहा जा सकता ।



श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी तथा डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने इस काल को अपभ्रंश काल कहा है। आदिकाल के साहित्य में अपभ्रंश भाषा की प्रधानता को स्वीकार करते हुए उन्होंने इस काल को अपभ्रंश काल मानना ठीक समझा है। हमारी दृष्टि में भाषा के आधार पर किसी वा नामकरण उचित नहीं माना जा सकता। काल-खण्ड का नामकरण उस युग विशेष की प्रवृत्तियों एवं प्रतिपाद्य विषय के आधार पर होना चाहिए। 



भाषाशास्त्र की दृष्टि से भी अपभ्रंश तथा हिन्दी में दो भिन्न-भिन्न भाषाएं है। इस काल को यदि अपभ्रंश काल कहा जाए, तो पाठक का ध्यान हिन्दी-साहित्य की ओर न जाकर अपभ्रंश साहित्य की ओर आकृष्ट होता है। इस कारण आदि काल को अपभ्रंश काल कहना उचित प्रतीत नहीं होता ।




डॉ० रामकुमार वर्मा ने इस काल को संधि-काल की संज्ञा दी है। उन्होंने इसे चारण काल भी कहा है। डॉ० वर्मा ने अपभ्रंश भाषा के अन्त तथा हिन्दी भाषा के प्रारम्भ के कारण इसे सन्धि-काल कहा है। आचार्य शुक्ल के अनुसार इस काल के प्रमुख कवि चारण (भाट) थे।अतः इसी आधार पर वर्मा जी ने इस काल को चारण काल कहा है। सन्धि-काल नाम से हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक स्वरूप का सही परिचय नहीं मिलता। नयी खोजों के आधार पर यह भी स्पष्ट हो चुका है कि इस काल में केवल धारण कवियों का प्राधान्य नहीं रहा। इस कारण इसे सन्धि-काल का चारण काल कहना उचित नहीं है।




आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस काल को बजीवपन काल कहा है। यह नाम भी समीचीन नहीं कहा जा सकता। साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर इस काल के कवियों ने प्राचीन सढ़ियों को अपनया और इसे साहित्य में स्थान मिला। उस समय का साहित्यकार अत्यन्त सजग एवं उद्युद्ध था। इस नाम से ऐसा भ्रम होता है, मानो हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ किसी परम्परा से सम्बद्ध नहीं है। वस्तुतः इस समय का साहित्य एक समृद्ध परम्परा का विकास है। अतः इस काल को बीजयपन काल कहना संगत नहीं है।



महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने इस काल को सिद्ध-सामन्त काल कहना ठीक समझा है। उन्होंने इस काल का प्रारम्भ आठवीं शताब्दी माना है। उन्होंने लिखा है कि ४वीं शताब्दी तक हिन्दी साहित्य में दो प्रकार की रचनाएं पाई जाती है एक तो सिद्धों की वाणी और दूसरी सामन्तों की स्तुतिपरक रचनाएं। सिद्ध सरहपा को उन्होंने हिन्दी का आदि कवि माना है। राहुलजी के अनुसार इन सिद्धों के अतिरिक्त चारण कवियों का वीर रस पूर्ण काव्य भी इसी काल में लिखा गया। अतः इस युग को उन्होंने सिद्ध-सामन्त काल कहा है।



सिद्ध-सामन्त काल किसी साहित्यिक पद्धति का परिचायक नहीं है। सामन्त शब्द से पाठक का ध्यान अनायास ही उस काल के कवियों की ओर न जाकर राजपूत सामन्तों की ओर जाता है। इस प्रकार सिद्ध-सामन्त काल नाम को भी सार्थक नहीं कहा जा सकता ।



आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस काल को 'आदि काल' कहना ही अधिक उचित समझते हैं। उन्होंने इस काल के साहित्य को अन्तर्विरोधो का साहित्य कहा है। द्विवेदीजी के अनुसार, 'वस्तुतः हिन्दी साहित्य का 'आदि काल' शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा प्रकट करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावनापन परम्परा विनिर्मुक्त से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त, सजग, सचेत कवियों का काल था।........ यदि पाठक इस धारणा से सावधान रहे.तो यह नाम बुरा नहीं है। द्विवेदीजी के इस कथन से उनकी अर्द्ध-स्वीकृति ही ध्यनित होती है।




डॉ० लक्ष्मीसागर वार्णेय का कथन है "इतिहास हमें बताता है कि हिन्दी साहित्य का आदियुग आशन्तिपूर्ण था और साहित्यिक खोज भी हमें वीरगाथात्मक ग्रन्थ प्रदान करती है।" वे आगे कहते हैं "आदिकाल में अनेक महत्त्वपूर्ण वीर गाथाएँ मिलती है। उनमें रणमेरी का निनाद ही सुन पड़ता है। विविध रासो ग्रन्थ इस वात के प्रमाण हैं। मुसलमान विजेता ज्यों-ज्यों आगे बढ़े, वीरगाथात्मक रचनाएँ भी संख्या में आगे बढ़ने लगी, क्योंकि चारण लोग अपने-अपने आश्रयदाताओं को प्रोत्साहन देना अथवा उनका यशगान करना अपना कर्त्तव्य समझते थे।" डॉ० वाष्र्णेय का इतना स्वीकार करने पर भी कहना है हमें 'वीरगाथा काल' का यह नाम बदलना पड़ेगा ।




'वीरगाथा काल' का विरोध करते हुए मोतीलाल मेनारिया ने लिखा है "ये रासो ग्रन्थ जिनको 'वीरगाथा' नाम दिया गया तथा जिनके आधार पर 'वीरगाथा काल' की रचना की गई है, राजस्थान के किसी समय विशेष की साहित्यिक प्रवृत्ति को भी सूचित नहीं करते, केवल चारण, भाट आदि की कुछ वर्ग के लोगों की जन्मजात मनोवृत्ति को प्रकट करते हैं। प्रभुभक्ति का भाव इन जातियों के खून में है और ये ग्रन्थ उस भावना की अभिव्यक्ति करते हैं। 'जब चारण' भाट आदि अपने रक्तगत भाव की अभिव्यक्ति कर साहित्य का सर्जन कर रहे हैं, तो साहित्य का नामकरण उस भाव पर क्यों नहीं किया जा सकता ।



हिन्दी के आदि काल में रचे गए अनेक ग्रन्थ हाल की खोजों में मिले हैं। किन्तु ये ग्रन्थ अधिकांशतः अपभ्रंश में हैं, या फिर असाहित्यिक हिन्दी में, क्योंकि सिद्धों की अटपटी बानियाँ होने के कारण उनमें साहित्यिकता का अंश नहीं है। आचार्य शुक्ल द्वारा निर्दिष्ट ग्रन्थ ही साहित्यिक हे और उन्हीं के आधार पर आदि काल की समस्या का हल करना आवश्यक है। कुछ विद्वान् इन ग्रन्थों को नोटिस मात्र ही मानते हैं। 



यदि प्रामाणिकता है, तो निःसन्देह इन ग्रन्थों के आधार पर ही आदि काल का नाम होना चाहिए। जिन बारह ग्रन्थों का उल्लेख आचार्य शुक्ल ने प्रस्तुत काल में किया है, उनमें अधिकांश ग्रन्थ वीर रस प्रधान है, किन्तु विद्वानों में अप्रामाणिक होने के कारण उनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया। नल्लसिंह विरचित 'विजयपाल रासो' को मोतीलाल मेनारिया ने संवत् 1900 के आस-पास की रचना माना है।




हिन्दी के आदिकालीन साहित्य की सर्वप्रथम विशेषता अपने आश्रयदाताओं की भाट और चारण कवियों द्वारा की गई प्रशंसा है। सजीव और सुन्दर युद्ध के वर्णन है। हिन्दी के आदियुग की यह कविता वीर रसपूर्ण भाव से ओत-प्रोत होने के कारण अद्वितीय है। भूषण के अतिरिक्त परवर्ती साहित्य में फिर ऐसी कविता के दर्शन नहीं हुए। वीर एवं शृंगार रसो का सम्मिश्रण है। इस युग की साहित्यिक विशेषता ऐतिहासिकता की अपेक्षा कल्पना का प्राधान्य है। इस काल की डिंगल प्रमुख भाषा है, जो वीर रस से पूर्णतः ओत-प्रोत है। इस काल की भाषा में अपभ्रंश का बाहुल्य है। यत्र-तत्र मैथिली एवं खड़ी बोली के भी दर्शन होते हैं।




युद्ध के सजीव वर्णनों को प्रस्तुत करने वाले छन्दों को अपनाया गया है। दोहा, पद्घटिका, अरिल्ल, पहरी, तोमर, नाराच और विशेषकर छप्पय का डटकर प्रयोग किया गया है। रासो में सर्वत्र वीर रस का ही प्राधान्य है।

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