संत कबीर जयंती : कबीर के किस्से, 100 दोहे ओर गुरु मंत्र, kabeer ke kisse, 100 dohe or guru mantr

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संत कबीर जयंती : कबीर के किस्से, 100 दोहे ओर गुरु मंत्र, kabeer ke kisse, 100 dohe or guru mantr

  




22 जून शनिवार को संत कबीर की जयंती है। कबीरदास जी के जीवन के कई ऐसे किस्से हैं, जिनमें जीवन को सुखी और सफल बनाने के सूत्र छिपे हैं। इन सूत्रों को जीवन में उतार लेने से हम सभी समस्याओं को दूर कर सकते हैं। 

संत कबीरदास कपड़े बुनने के साथ ही भगवान की भक्ति भी करते थे। वे कपड़े बुनने का काम और भक्ति दोनों साथ-साथ ही करते थे। एक दिन उनके पास एक व्यक्ति आया और कबीरदास जी कहा कि मैं जानता हूं कि आप एक भक्त हैं, लेकिन मैं कई दिनों से देख रहा हूं कि आप दिनभर कपड़ा ही बुनते रहते हैं तो भक्ति कब करते हैं?'


कबीरदास जी ने उस व्यक्ति की बात का उत्तर नहीं दिया और कहा कि चलो आगे चौराहे तक थोड़ा घूम आते हैं।


वह युवक कबीर जी के साथ चल दिया। रास्ते में उन्हें एक महिला दिखाई दी, जो कि पनघट से पानी भरकर लौट रही थी। उसके सिर पर पानी से भरा घड़ा रखा था। वह अपनी मस्ती में गीत गाते हुए चल रही थी। उसने घड़े को पकड़ा नहीं था, लेकिन घड़ा सिर पर स्थिर था, घड़े का पानी भी छलक नहीं रहा था।


कबीरदास जी ने उस व्यक्ति से कहा कि इस महिला को देख रहे हो? ये अपने घर के लिए पानी लेकर मस्ती में गीत गाते हुए जा रही है। इसका ध्यान अपने घड़े पर भी है, अपने गाने पर भी और रास्ते पर भी है। बस मैं भी अपना जीवन इसी तरह जीता हूं। मेरा मन ईश्वर की भक्ति में भी लगा है और मैं दुनियादारी के काम भी करता रहता हूं।

संत कबीर जयंती : कबीर के किस्से, 100 दोहे ओर गुरु मंत्र, kabeer ke kisse, 100 dohe or guru mantr  

कबीर दास के प्रेरणादायक दोहे

1  बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥


(अर्थ- कबीर कहते हैं कि जब मैं इस दुनिया में बुराई खोजने गया, तो मुझे कुछ भी बुरा नहीं मिला और जब मैंने खुद के अंदर झांका तो मुझसे खुद से ज्यादा बुरा कोई इंसान नहीं मिला।)


2  धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥ 


(अर्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि धैर्य रखें धीरे-धीरे सब काम पूरे हो जाते हैं, क्योंकि अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।)


3  चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए। वैद बिचारा क्या करे, कहां तक दवा लगाए।।


(अर्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि चिंता एक ऐसी डायन है जो व्यक्ति का कलेजा काट कर खा जाती है। इसका इलाज वैद्य नहीं कर सकता। वह कितनी दवा लगाएगा। अर्थात चिंता जैसी खतरनाक बीमारी का कोई इलाज नहीं है।)


4   साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय।।


(अर्थ- कबीर दस जी कहते हैं कि परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमें मेरा गुजरा चल जाए, मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूं और आने वाले मेहमानों को भी भोजन करा सकूं।)


5  गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय।।


(अर्थ - कबीर दास जी कहते हैं कि शिक्षक और भगवान अगर साथ में खड़े हैं तो सबसे पहलो गुरु के चरण छूने चाहिए, क्योंकि ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता भी गुरु ही दिखाते हैं।)


6  ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोए, औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए


(अर्थ- कबीर दास जी कहते हैं व्यक्ति को हमेशा ऐसी बोली बोलनी चाहिए जो सामने वाले को अच्छा लगे और खुद को भी आनंद की अनुभूति हो।)


7  बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।


(अर्थ-  जिस प्रकार खजूर का पेड़ इतना ऊंचा होने के बावजूद आते-जाते राही को छाया नहीं दे सकता है और उसके फल तो इतने ऊपर लगते हैं कि आसानी से तोड़े भी नहीं जा सकते हैं। उसी प्रकार आप कितने भी बड़े आदमी क्यों न बन जाए लेकिन आपके अंदर विनम्रता नहीं है और किसी की मदद नहीं करते हैं तो आपका बड़ा होने का कोई अर्थ नहीं है।)


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संत कबीर की सीख


संत कबीर ने इस किस्से में हमें बताया है कि हमें भी धन कमाने के साथ ही भक्ति भी करते रहना चाहिए। भक्ति कभी भी की जा सकती है। हम अपना काम करते हुए भी भगवान का ध्यान कर सकते हैं। भक्ति से अशांति दूर होती है और कर्म करने की शक्ति मिलती है।

शनिवार, 22 जून को संत कबीर की जयंती है। कबीरदास जी के दोहों में और उनसे जुड़े किस्सों में जीवन प्रबंधन के सूत्र छिपे हैं। इन सूत्रों को जीवन में उतार लेने से हमारी सभी परेशानियां दूर हो सकती हैं। जानिए संत कबीर से जुड़ा एक ऐसा किस्सा, जिसमें उन्होंने घमंड से बचने की सलाह दी है।


कबीरदास जी का एक बेटा था, उसका नाम कमाल था। एक दिन कमाल ने कबीरदास जी से कहा कि आप यहां कुटिया में नहीं थे, उस समय कुछ लोग आए थे, उनके साथ एक मरे हुए युवक का शव भी था। मैंने उस शव के सामने दो-तीन बार राम नाम लिया और गंगाजल डाला तो वह मरा हुआ युवक जीवित हो गया।


कबीरदास जी कमाल की ये बात सुनकर हैरान थे। उनकी हैरानी और बढ़ गई जब कमाल ने आगे कहा कि आप बहुत दिनों से कह रहे थे कि आप तीर्थ यात्रा पर जाना चाहते है तो आप चले जाइए, यहां काम मैं संभाल लूंगा।


कबीरदास जी समझ गए कि मेरे बेटे को घमंड हो गया है। जो साधनाएं इसने की हैं, उनका परिणाम देखकर इसका घमंड जाग गया है। कबीरदास जी ने एक चिट्ठी लिखी और कमाल को दे दी। उन्होंने कहा कि इसे खोलना मत।


कबीरदास जी ने कमाल को चिट्ठी के साथ एक संत के पास भेजा। कमाल उस संत के पहुंचा तो उस संत ने चिट्ठी खोली। उसमें कबीर जी ने लिखा था कि कमाल भयो कपूत, कबीर को कुल गयो डूब।


उस संत के यहां भी बीमार लोगों की लाइन लगी हुई थी। संत ने गंगाजल कई लोगों पर एक साथ डाला तो वे सभी ठीक हो गए। कमाल को लगा कि ये तो मुझसे भी बड़े चमत्कारी हैं। वह संत थे सूरदास जी।


सूरदास जी ने कमाल से कहा कि जाओ पीछे नदी में एक युवक डूब रहा है, उसे बचा लो।


कमाल तुरंत नदी की ओर गया तो देखा कि वहां एक लड़का डूब रहा है, कमाल ने उसे बचा लिया।


लड़के को बचाकर कमाल सूरदास के पास लौटा तो वह चौंक गया कि ये तो देख ही नहीं सकते, मेरे पिता का पत्र भी नहीं पढ़ सकते, मैंने इन्हें जो बताया वह ठीक है, लेकिन मेरे बारे में ये सब कुछ जान गए। जब कमाल ने अपने पिता कबीरदास का लिखा हुआ पत्र पढ़ा तो वह जान गया कि मेरे पिता ने मेरा घमंड दूर करने के लिए मुझे यहां भेजा है। सिद्धि, साधनाएं कई लोगों के पास हैं, लेकिन वे इन साधनाओं का गलत इस्तेमाल नहीं करते हैं।


कबीरदास की सीख


इस किस्से में संत कबीर ने संदेश दिया है कि हमें कभी भी अपनी योग्यता का घमंड नहीं करना चाहिए। घमंड की वजह से योग्यता खत्म हो सकती है।


जीवन की महिमा 


जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय |

मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||



अर्थ : जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो। मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है। शरीर रहते-रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना - विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं।

 

मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत |

मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ||



अर्थ : भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ। मरने के बाद भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है। 

 

भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय |

रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ||



अर्थ : जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे संत भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त - अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी लाख योनियों के बाज़ार में बिकने जा रहे हैं। 

 

मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ |

जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ||



अर्थ : संसार - शरीर में जो मैं - मेरापन की अहंता - ममता हो रही है - ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो। अपना अहंकार - घर को जला डालता है।

 

शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल |

काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ||



अर्थ : गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है। उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता।

 

जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय |

काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ||



अर्थ : जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता। इसलिए शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रूपी मैदान में विराजना चाहिए।

 

मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वास |

साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस ||



अर्थ : मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब धोखा नहीं देगा। असावधान होने पर वह फिर से चंचल हो सकता है इसलिए विवेकी संत मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में सांस चलती है। 

 

कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास |

कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश ||



अर्थ : ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो। अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा। 

 

अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार |

घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार ||


संत कबीर द्वारा लिखे दोहे देश भर में प्रसिद्ध हैं। तो, चलिए शुरू करते हैं संत कबीर दोहे और उनके ज्ञान से।


तब साहब हूँ कारिया, ले चल अपने धाम।

युक्ति संदेश सुनाई हौं, मैं आयो यही काम॥


पूरब जनम तुम ब्राह्मण, सुरति बिसति मौहि।

पिछली रीति के कारने, दरसन दीनो तोहि॥


गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।


बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल।

हरि का सिमरन छोडि़ के, घर ले आया  माल॥


कहत कबीर सुनहु रे लोई।

हरि बिन राखन हार न कोई॥


नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार।

जब जानी तब परिहरि, नारी महाविकार॥


मसि कागद छुयौ नहीं, कलम गह्यौ नहीं हाथ।

चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात॥


पाहन पूजे हरि मिलैं तो मैं पूजौं पहार।

ता ते तो चाकी भली, पीस खाय संसार॥


Kabir ke Dohe - 1


कबीर के दोहे – 1

चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।

दो पाटन के बीच में साबुत बचा न  कोय॥


  

कस्तूरी कुंडल  बसै, मृग ढूँढ़े वन माहिं।

ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं॥


दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करै  न कोय।

जो सुख में सुमिरन करै, तो दुख काहे को होय॥


जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥


पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥


हेरत-हेरत हे सखी, गया कबीर  हिराई।

बूँद समानी समद में, सोकत हरि जाई॥


ऊँचे कुल क्या जननियाँ, जे करणी ऊँच न होई।

सोवन कलस सुरै भरया, साधु निंदा सोई॥


हिंदू तरुक की एक राह में, सतगुरु है बताई। कहै कबीर सुनहु हो संतों,राम न कहेउ खुदाई॥

सोई हिंदू सो मुसलमान, जिनका रहे इमान।

सो ब्राह्मण जो ब्राह्म मिलाया, काजी सो जाने रहमान॥


जहाँ दया वहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।

जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ आप॥


कबिरा खड़ा बजार में, सबकी माँगे खैर।

ना काहूकबिरा खड़ा बजार में, लिये लुकाठी हाथ।

जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ॥


 

कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।

जो पर पीर न जाने, सो काफिर बेपीर॥



मोको कहाँ ढूँढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।

ना देवल में ना मस्जिद में, ना काबे-कैलास में॥

खोजि होय तो तुरंत मिलि हौं, पल भर की तलाश में।

कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब साँसन की साँस  में॥

  

मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।

पीछे-पीछे  हरि फिरें, कहत  कबीर-कबीर॥

  

राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।

अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएँगे छूट॥



जो तोको काँटा बोये, ताहि बोय तू फूल।

तो ही फूल के फूल है, बाको है त्रिशूल॥

निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥


सुखिया सब संसार है, खाए और सोए।

दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए॥


दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।

बिना जीव की साँस सो, लौह भसम होइ जाय॥


बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥


दिन को रोज रहत है, रात हनत हो जाय।

मेहि खून यह बंदगी, क्यों कर खुश खुदाय॥


खुलि खेलो संसार में, बाँधि सकै न कोइ।

घाट जागति का करै, जो फिर बोझा न होइ॥


कबीर के   बेहतरीन दोहे : देते हैं जिंदगी का असली ज्ञान

रे दिल गाफिल, गफलत मत कर,

एक दिन जम (यम) आवेगा।

सौदा करने या जग आया, प्रेम लाया, मूल गँवाया।

प्रेम नगर का अंत न पाया, ज्यों आया यों जाएगा॥


कबीर के दोहे अर्थ सहित: Kabir ke Dohe in Hindi With meaning

विस्तृत विवरण के साथ कुछ कबीर दोहे निम्नलिखित हैं। विस्तार से व्याख्या ऊपर जोड़े गए दोहे का अनुसरण कर रही है।


न्हाए धोए क्या भया, जो मन मैला न जाय।

मीन सदा जल में रहै, धोए बास न जाय॥


पवित्र नदियों में शारीरिक मैल धो लेने से कल्याण नहीं होता। इसके लिए भक्ति-साधना से मन का मैल साफ करना पड़ता है। जैसे मछली हमेशा जल में रहती है, लेकिन इतना धुलकर भी उसकी दुर्गंध समाप्त नहीं होती।


राम-रहीमा एक है, नाम धराया दोय।

कहै कबीरा दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय॥


कबीर को किसी से कुछ नहीं चाहिए था, वे तो देने आए थे लोगों को—ज्ञान का संदेश, विवेकशीलता, भाईचारा, सौहार्द; लेकिन इसके बावजूद अनेक लोग उनके दुश्मन बन गए थे।


हिंदू मैं हूँ नाहीं, मुसलमान भी नाहिं।

पंचतत्त्व को पूतला, गैबि खेले माहिं।


उन्होंने कोई पंथ नहीं चलाया, न किसी को शिष्य बनाने की कोशिश की। वे तो सरल और सच्चे शब्दों में अपने दिल की बात कह देते थे।


ज्यों तिल माहीं तेल है, ज्यों चकमक में आगि।

ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं॥


कबीरदास अहिंसा के प्रबल समर्थक थे। जीव-हत्या को वे सहन नहीं कर सकते थे, इसलिए जब भी ऐसी घटना की खबर मिलती, वे वहाँ पहुँचकर उसे रुकवाने की कोशिश करते थे।


श्रम ही ते सब होत है, जो मन राखे धीर।

श्रम ते खोदत कूप ज्यौं, थल में प्रकटे नीर॥


वे कर्म क्यों करते हैं? क्योंकि वे जानते हैं कि कर्म से ही भोजन मिलता है और भोजन से ही शरीर भजन करने में समर्थ होता है।


निरमल गुरु के नाम सों, निरमल साधू भाय।

कोइला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय॥


सत्गुरु के सत्य-ज्ञान से निर्मल मनवाले लोग भी सत्य-ज्ञानी हो जाते हैं, लेकिन कोयले की तरह काले मनवाले लोग मन भर साबुन मलने पर भी उजले नहीं हो सकते—अर्थात् उन पर विवेक-बुद्धि की बातों का असर नहीं पड़ता।


काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खान।

कबीर मूरख पंडिता, दोनों एक समान॥


जब तक शरीर में काम, क्रोध, लोभ, मद और मोह जैसे विकारों का भंडारण है, कबीर कहते हैं कि तब तक मूर्ख और पंडित दोनों एक जैसे हैं। अर्थात् जिसने सत्य-ज्ञान से इन विकारों को जीत लिया, वह पंडित है और जो इनमें फँसा रहा, वह मूर्ख।


स्वारथ कूँ स्वारथ मिले, पडि़-पडि़ लूंबा बूंब।

निस्प्रेही निरधार को, कोय न राखै झूंब॥


कई स्वार्थी लोग जब आपस में मिलते हैं तो एक-दूसरे की खूब प्रशंसा करते हैं, एक-दूसरे को खूब खुश करने की कोशिश करते हैं; लेकिन जो व्यक्ति निष्काम और निस्स्वार्थ होते हैं, लोग शब्दों से भी उसका आदर नहीं करते।


सुख के संगी स्वारथी, दुःख में रहते दूर।

कहैं कबीर परमारथी, दुःख सुख सदा हजूर॥


स्वार्थी लोग केवल सुख के साथी होते हैं, दुःख आने पर वे भाग खड़े होते हैं। कबीर कहते हैं कि जो सच्चे परमार्थी होते हैं वे दुःख हो या सुख—सदा आपके साथ होते हैं।


शीलवंत सुर ज्ञान मत, अति उदार चित होय। लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय॥


शीलवान और दैवी गुणवाले लोग अति उदार होते हैं। ये लोग विनम्र, निष्कपट और कोमल होते हैं, जो सच्चे शिष्य कहलाते हैं और अपने साथ-साथ जगत् का भी कल्याण करते हैं।


ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत।

सत्यवान परमारथी, आदर भाव सहेत॥


ऐसे लोग जो ज्ञानी होते हैं, उनको अभिमान छू भी नहीं पाता। वे सभी से प्रेम करते हैं; सच्चे, परोपकारी और सबका मान-सम्मान करनेवाले होते हैं।”


गुरु मूरति गति चंद्रमा, सेवक नैन चकोर।

आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥


जैसे चकोर पक्षी चंद्रमा को निहारता रहता है, वैसे ही सच्चा सेवक नित्य-प्रति गुरु की भक्ति में रत रहता है।


पकी खेती देखि के, गरब किया किसान।

अजहूँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान॥


फसल पक जाने पर किसान बहुत खुश होता है। उसे अपनी मेहनत पर बहुत गर्व होता है। लेकिन उसे पता नहीं होता कि उसके घर आने तक बहुत सी मुश्किलें आती हैं। समय का कोई भरोसा नहीं, पता नहीं कब काल आ जाए।


हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलावन हार।

कौतिक हारा भी जले, कासों करूँ पुकार॥


श्मशान में हड्डियाँ जल जाती हैं, लकडि़याँ जल जाती हैं और एक दिन उन्हें जलानेवाला भी जल जाता है। जो दाह-कर्म को देखता है, वह भी जल मरता है। फिर कहाँ पुकार की जाए? अर्थात् मृत्यु से कोई नहीं बच सकता। वह अटल है।


मौत बिसारी बावरी, अचरज कीया कौन।

तन माटी में मिल गया, ज्यौं आटा में लौन॥


वे पागल लोग हैं, जो मृत्यु को भूल जाते हैं और जब यह आती है तो अचंभे में पड़ जाते हैं। अरे लोगो! मौत आने पर यह शरीर वैसे ही मिट्टी में मिल जाता है जैसे आटे में नमक।


कहा भरोसा देह का, बिनसि जाय छिन माँहि।

साँस साँस सुमिरन करो, और जतन कछु नाँहि॥


मिट्टी के इस शरीर का कोई भरोसा नहीं है, पता नहीं कब यह हमें छोड़कर चल दे। इसलिए हर साँस के साथ राम-नाम का स्मरण करो। मुक्ति का यही एकमात्र उपाय है।


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काया खेत किसान मन, पाप-पुन्न दो बीव।

बोया लूनै आपना, काया कसकै जीव॥


यह शरीर खेत की तरह है और मन किसान की तरह। इसमें पाप और पुण्य दो बीज हैं। आप इस खेत में जो बीज बोते हैं, उसी की फसल काटते हैं। अर्थात् पाप करने से बुरा फल मिलेगा और पुण्य करने से अच्छा।


मनुवा तू क्यों बावरा, तेरी सुध क्यों खोय।

मौत आय सिर पर खड़ी, ढलते बेर न होय॥


हे मेरे नादान मन! तू क्यों पगला रहा है? क्यों विषयों में उलझकर सुध-बुध भूले बैठा है। अब तो मौत भी तेरे सिर पर मँडराने लगी है। यह तुझे नष्ट करने में जरा भी देर नहीं लगाएगी। अर्थात् वक्त रहते चेत जाएँ।


kabir ke dohe 2

अति हठ मत कर बावरे, हठ से बात न होय।

ज्यूँ-ज्यूँ भीजे कामरी, त्यूँ-त्यूँ भारी होय॥

अरे पागल! जिद मत कर। जिद से काम बनते नहीं, बिगड़ जाते हैं, जैसे कंबल भीग-भीगकर और भारी होता जाता है। इसलिए हठ त्याग करके ज्ञानीजन की वाणी के अनुसार काम करना चाहिए।


आशा तजि माया तजे, मोह तजै अरु मान।

हरष शोक निंदा तजै, कहैं कबीर संत जान॥


जिसने आशा, माया, मोह और मान-अपमान को त्याग दिया हो; जो हर्ष, शोक, निंदा आदि से परे हो—कबीर कहते हैं कि ऐसा आदमी ही सच्चा संत हो सकता है।


What are some popular Kabir ke Dohe? | कबीर के कुछ लोकप्रिय दोहे कौन से हैं?

संत कबीर के कुछ सबसे प्रसिद्ध दोहे निम्नलिखित हैं।


काल करे सो आज कर, आज करै सो अब।

पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब॥

 

  

आछे दिन पाछे गए, गुरु सों किया न हेत।

अब पछितावा क्या करै, चिडि़याँ चुग गईं खेत॥ 

  

आया प्रेम कहाँ गया, देखा था  सब कोय।

छिन रोवै छिन में हँसै, सो तो प्रेम न होय॥


दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप।

जहाँ क्षमा तहाँ धर्म है, जहाँ दया तहाँ आप॥


जाति हमारी आत्मा, प्रान हमारा नाम।

अलग हमारा इष्ट है, गगन हमारा ग्राम॥


भय से भक्ति करैं सबै, भय से पूजा होय।

भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय॥


एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाँहि।

घर की नारी को कहै, तन की  नारी जाँहि॥


प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज दंभ विचार।

उदर भरन के कारन, जन्म गँवाए सार॥


ऊँचा देखि न राचिए, ऊँचा पेड़ खजूर।

पंखि न बैठे छाँयड़े, फल लागा पै दूर॥


प्रेम पंथ में पग धरै,देत न शीश डराय।

सपने मोह व्यापे नहिं, ताको जन्म नशाय॥


यह कलियुग आयो अबै, साधु न मानै कोय।

कामी क्रोधी मसखरा, तिनकी पूजा होय॥


कबीर का बीज मंत्र?

मसि कागद छुयो नहीं, कलम गहो नहीं हाथ  वाले कबीर ने यहां भगवान गोस्वामी को जो बीज मंत्र दिया वही बीजक कहलाया है।


कबीर दास जी के गुरु मंत्र क्या है?

कबीर दास जी का गुरु मंत्र ‘राम राम’ ही मेरा गुरुमंत्र है और आप मेरे गुरु हैं।


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