1. स्वामी दयानंद की सीख
बात उन दिनों की है, जिन दिनों स्वामी दयानंद सरस्वती लाहौर में वैदिक धर्म का प्रचार कर रहे थे। एक दिन जब वे एक सत्संग समारोह में पहुंचे तो प्रार्थना उपासना में लीन आर्यजन श्रद्धापूर्वक उठ खड़े हुए। स्वामी जी के स्थान ग्रहण करते ही सभी पुन: बैठ गए। प्रार्थना-उपासना के बाद जब स्वामी जी प्रवचन करने लगे, तो उन्होंने समझाया,‘‘जब हम प्रभु उपासना में लीन हों, तब किसी भी व्यक्ति के लिए उपासना छोड़कर नहीं उठना चाहिए।
मैं सर्वशक्तिमान प्रभु से बड़ा नहीं हूं। आपको प्रभु उपासना छोड़कर मेरा अभिनंदन नहीं करना चाहिए था। भविष्य में प्रभु स्मरण में लीन होने के समय इस प्रकार किसी के स्वागत में कभी न उठना।’’ स्वामी जी की बात सुनकर उनके अनुयायियों ने दयानंद के नए रूप में दर्शन किए।
2. प्रमाद का अर्थ
एक आदमी था। उसे दिन में जो करना होता था उसे सुबह-सुबह कागज पर लिख लेता था। एक दिन उसने अपना आवश्यक कार्य कागज पर लिख लिया। कार्य करने का समय आया। वह इधर-उधर कागज ढूंढने लगा। कागज मिल नहीं रहा था। उसका मित्र वहां आ पहुंचा। उसने पूछा,‘‘क्या कर रहे हो?’’ उस व्यक्ति ने कहा,‘‘मुझे याद नहीं आ रहा है कि मुझे क्या करना है?’’ मित्र ने कहा,‘‘तुमने कागज पर लिख लिया था कि तुम्हें क्या करना है।
कागज उठा कर देख लो। उसने कहा, कागज मैंने कहांं रख दिया, मैं भूल गया हूं। याद नहीं उसे ही ढूंढ रहा हूं।’’ यह मन:स्थिति ही प्रसाद है। प्रसाद का अर्थ है सचेतनता की विस्मृति। यह जब तक व्यक्तित्व का हिस्सा रहेगा, आत्मा का विकास असंभव है।
3. संगति
एक पेड़ पर दो तोते रहते थे। एक का नाम था सुपंखी और दूसरे का नाम था सुकंठी। दोनों एक ही मां की कोख से पैदा हुए थे। दोनों के रंग-रूप, बोली और व्यवहार एक समान थे। दोनों साथ-साथ सोते-जागते, खाते-पीते ओर फूदक ते रहते थे। बड़े सुख के साथ दोनों का जीवन व्यतीत हो रहा था। अचानक एक दिन बिजली कड़कने लगी और आंधी आ गई। ऐसे में सुपंखी हवा के झोेंके से मार्ग भटकता चोरों की बस्ती में जा गिरा ओैर सुकंठी एक पर्वत से टकरा कर घायल होकर ऋषियों के आश्रम में जा गिरा।
धीरे-धीरे कई वर्ष बीत गए। सुपंखी चोरों की बस्ती में पलता रहा और सुकंठी ऋ षियों के आश्रम में। एक दिन वहां का राजा शिकार के निकला । रास्ते में चोरों की बस्ती थी। राजा क ो देखते ही सुपंखी कर्कश वाणी में चिल्लाया, ‘‘मार, मार,मार।’’ भागते-भागते राजा ने पर्वत पर जाकर शरण ली। वहां सुकंठी की मधुर वाणी सुनाई दी, ‘‘राम-राम ... आपका स्वागत है।’’ राजा सोचने लगा कि दो तोेते रंग-रूप में बिल्कुल एक समान, परंतु दोनों की वाणी में कितनी असमानत है। सच है, जैसी संगति में रहोगे, वैसा ही आचरण करोगे।
4. सच्चा विश्वास
कहा जाता है कि ईरान के फजल ऐयाज नामक एक प्रसिद्ध मुस्ल्मि संत पहले डाकुओं के सरदार थे। एक बार उनके गिरोह के डाकुओं ने प्यापारियों के एक दल को घेरकर लूटना शुरु कर दिया। लूटपाट के दौरान एक व्यापारी नजर बचाकर उस तंबू में घुस गया, जहां गिरोह के सरदार फजल ऐयाज फकीर वेश में बैठा हुए थे। फकीर के रूप में फजल को देखकर व्यापारी ने अपनी रुपयों की थैली उनके सामने रखते हुए कहा, ‘‘मैं रुपयों की थैली आपके पास सुरक्षित रख रहा हूं। डाकूओं के जाने के बाद मैं इसे यहां से ले जाऊंगा। तब तक आप इसे अपने पास रखकर मेरे धन की सुरक्षा क ीजिए। लूटपाट थमने के बाद व्यापरी वापस तंबू में लौटा और यह देखकर आश्चर्य में पड़ गया कि वहां वे ही डाकू बैठकर आपस में माल बांट रहे थे और इस बारे में फजल से मशविरा कर रहे थे।
’’ व्यापारी मन ही मन पछताकर वहां से लौटने लगा, तो फजल ऐयाज बोले, ‘‘ऐ मुसाफिर, तुम लौट क्यों रहे हो ? ’’ इस पर व्यापारी ने घबराते हुए कहा, ‘‘हजूर, मैं यहां अपनी रुपयों की थैली लेने आया था। परंतु अब जा रहा हूं? ’’ फजल ऐयाज बोले, ‘‘ठहरो, तुम अपनी धरोहर लेते जाओ।’’ यह देखकर डाकुओं ने सरदार से कहा,‘‘हजूर यह क्या ? आपने हाथ आया हुआ माल वापस क्यों जाने दिया?’’ इस पर फजल ऐयाज बोले, ‘‘तुम्हारी बात ठीक है, विश्वास को मैं चोट कैसे पहुंचा सकता था?’’ फजल का जवाब सुनक र डाकुओं ने ग्लानि से सिर नीचे झुका लिया।
5. इंसान की कीमत
स्वामी विवेकानंद जी अमरीका के एक बगीचे में से गुजर रहे थे उनको इस प्रकार सादे कपड़ों में बिना किसी हैट के खुले सिर देखकर वहां के लोगों क ो बड़ा आश्चर्य हुआ। और वे उनका माखौल उड़ाने लगे, ‘‘होए...होए...होए...’’ करते हुुए वे सब स्वामी जी के पीछे लग गए। स्वामी विवेकानंद आगे-आगे जा रहे थे और मजाक उड़ाने वाले उनके पीछे-पीछे। थोड़ा आगे चलकर विवेकानंद जी थोड़ा-सा रु के और बोले, ‘‘भाइयो! आपके देश में इंसान की कीमत उसके कपड़ों से होती है।’’
6. ज्ञान का दीपक
एक संत गंगा किनारे आश्रम में रहकर शिष्यों को पढ़ाते थे। एक दिन उन्होंने रात होते ही अपने एक शिष्य को एक पुस्तक दी तथा बोले, ‘‘इसे अंदर जाकर मेरे तख्त पर रख आओ। ’’ शिष्य पुस्तक लेकर लौट आया तथा कांपते हुए कहा, ‘‘गुरुदेव, तख्त के पास तो सांप है। ’’ संत जी ने कहा, ‘‘तुम फिर से अंदर जाओ । ओम नम: शिवाय मंत्र का जाप करना, सांप भाग जाएगा। ’’ शिष्य फिर अंदर गया, उसने मंत्र का जाप किया, उसने देखा कि काला सांप वहीं है। वह फिर डरते- डरते लौट आया। अब गुरुदेव ने कहा, ‘‘वत्स! इस बार तुम दीपक हाथ में लेकर जाओ। सांप दीपक के प्रकाश से डरकर भाग जाएगा। ’’
छात्र दीपक लेकर अंदर पहुंचा, तो प्रकाश में उसने देखा कि वह सांप नहीं रस्सी का टुकड़ा था। अंधकार के कारण उसे सांप दिखाई दे रहा था। संत जी को जब उसने रस्सी होने की बात बताई, तो वे मुस्कराकर बोले, ‘‘वत्स, संसार गहन भ्रमजल का नाम है। ज्ञान के प्रकाश से ही इस भ्रमजाल को काटा जा सकता है। अज्ञानतावश ही हम बहुत-से भ्रम पाल लेते हैं। उन्हें दूर करने के लिए हमशा ज्ञानरूपी दीपक का सहारा लेना चाहिए। ’’
7. अपने आवगुण की पहचान
एक बार एक व्यक्ति ने किसी संत से कहा,‘‘महाराज मैं बहुत नीच हूं, मुझे कुछ उपदेश दीजिए।’’ संत ने कहा, ‘‘ अच्छा जाओ, जो तुम्हें अपने से नीच, तुच्छ और बेकार वस्तु लगे उसे ले आओ।’’ वह व्यक्ति गय और उसने सबसे पहले कुत्ते को देखा। कुत्ते को देखकर उसके मन में विचार आया कि मैं मनुष्य हूं और यह जानवर, इसलिए यह मुझे से जरूर नीच है। लेकिन तभी उसे ख्याल आया कि कुत्ता तो वफादार आश्ेर स्वामिभक्त जानवर है और मुझसे तो बहुत अच्छा है। फिर उसे एक कांटेदार झाड़ी दिखाई दी और उसने मन में सोचा कि यह झाड़ी तो अवश्य ही मुझसे तुच्छ और बेकार है परंतु फिर ख्याल आया कि कांटेदार झाड़ी तो खेत में बाड़ लगाने के काम आती है और फसल की रक्षा करती है। मुझसे तो यह भी बेहतर है।
आगे उसे गोबर का ढेर दिखाई दिया। उसने सोचा, गोबर अवश्य ही मुझसे बेकार है। परंतु सोचने पर उसे समझ में आया कि गोबर से खाद बनती है, और वह चौका तथा आंगन लीपने के काम आता है। इसलिए यह मुझसे बेकार नहीं है। उसने जिस चीज को देखा वही उसे खुद से अच्छी लगी। वह निराश होकर खाली हाथ संत के पास गया और बोला, ‘महाराज, मुझे अपने से तुच्छ और बेकार वस्तु दूसरी नहीं मिली।’ संत ने उस व्यक्ति को शिष्य बना लिया और कहा कि जब तक तुम दूसरों के गुण और अपने अवगुण देखते रहोगे तब तक तुम्हें किसी के उपदेश क ी जरूरत नहीं।
8. पारस से भी मूल्यवान
एक व्यक्ति संन्यासी से पास जाकर बोला, ‘‘बाबा! बहुत गरीब हूं , कुछ दो।’’ संन्यासी ने कहा, ‘‘मैं अकिंचन हूं, तुम्हे क्या दे सकता हूं? मेरे पास अब कु छ भी नहीं है।’’ संन्यासी ने उसे बहुत समझाया, पर वह नहीं माना। तब बाबा ने कहा, ‘‘जाओ नदी के किनारे एक पारस का टुकड़ा है, उसे ले जाओ। मैंने उसे फें का है। उस टुकड़े से लोहा सोना बनता है।’’ वह दौड़ा-दौड़ा नदी के किनारे गया। पारस का टुकड़ा उठा लाया और बाबा को नमस्कार कर घर की ओर चला।
सौ कदम गया होगा कि मन में विचार उठा और वह उल्टे पांव संन्यासी के पास लौटकर बोला, ‘‘बाबा! यह लो तुम्हारा पारस, मुझे नहीं चाहिए।’’ संन्यासी ने पूछा, ‘‘क्यों?’’ उसने कहा, ‘‘बाबा! मुझे वह चाहिए जिसे पाकर तुमने पारस को ठुकराया है। वह पारस से भी कीमती है, वही मुझे दीजिए।’’ जब व्यक्ति में अंतर की चेतना जाग जाती है तब वह कामनापूर्ति के पीछे नहीं दौड़ता, वह इच्छापूर्ति का प्रयत्न नहीं करता!
9. चैतन्य महाप्रभु का त्याग
एक बार चैतन्य महाप्रभु बचपन के मित्र रघुनाथ शास्त्री के साथ नाव से यात्रा कर रहे थे। शास्त्री जी विद्वान व संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। उन्हीं दिनों चैतन्य महाप्रभु ने कड़ा परिश्रम करके न्यायशास्त्र पर एक बहुत ही उच्च कोटि का ग्रंथ लिखा था। उन्होंने वह ग्रंथ शास्त्री जी को दिखाया। ग्रंथ को बारीकी से देखने के बाद शस्त्री जी का चेहरा उतर गया और आंखों में आंसू भर आए। यह देखकर चैतन्य महाप्रभु ने शास्त्री जी से रोने का कारण पूछा। बहुत दबाव देने के बाद शास्त्री जी ने कहा, ‘‘मित्र, तुम्हें यह जानकार अचरज होगा कि लगातार वर्षों मेहनत कर मैंने भी न्यायशास्त्र पर एक ग्रंथ लिखा है।
मैंने सोचा था कि इस ग्रंथ से मुझे यश मिलेगा। यह इस विषय पर अब तक के ग्रंथों में बेजोड़ होगा। मेरी वर्षों की तपस्या सफल हो जाएगी। लेकिन तुम्हारे ग्रंथ के आगे तो मेरा ग्रंथ एक टिमटिमाता दीपक भर है। सूर्य के आगे दीपक की क्या बिसात।’’ शास्त्री जी के इस कथन पर चैतन्य महाप्रभु मुस्काराते हुए हुए बोले, ‘‘बस इतनी सी बात के लिए तुम इतने उदास हो रहे हो। लो, मैं इस ग्रंथ को अभी गंगा मैया की भेंट चढ़ा देता हूं।’’ यह कहकर चैतन्य महाप्रभु ने तुरंत उस ग्रंथ के टुकड़े-टुकड़े किए और गंगा में प्रवाहित कर दिया।
10. परमेश्वर की इच्छा
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। लाशों के ढेरों के बीच गज-घंट के नीचे सुरक्षित पक्षी के दो बच्चों क ो देखकर महर्षि शौनक से उनके शिष्यों ने पूछा, गुरुवर बड़े-बड़े योद्धा नष्ट हो गए, किंतु ऐसे घोर संग्राम के बाद भी पक्षी के ये बच्चे जीवित हैं। ऋषि शौनक ने उन्हें ध्यान से देखा फिर कहा, हां, ‘‘पक्षी के अंडे जमीन पर पड़े थे और गजराज का घंट ऊपर से आ गया। बचाने वाले अंतर्यामी परमेश्वर की इच्छा से ही ऐसा हुआ है। उन्हीं अंडों से ये बच्चे निकले है। इन्हें आश्रम ले चलो और दाना-पानी दो।’’
शिष्यों ने जिज्ञासा जताई, ‘‘गुरुवर, जिस परमात्मा ने इनको ऐसे घोर युद्ध में भी सुरक्षित रखा है, वही आगे भी इनकी रक्षा करेगा। हम क्यों इन्हें लेकर चलें?’’ ऋषि शौनक बोले, ‘‘जहां यह बात हमारी नजरों में आ गई, भगवान का काम वहीं पूरा हो गया। भगवान ने ही हमें यहां भेजा है, ताकि इनकी आगे की परवरिश हो सके।’’ शिष्यों को दैवकृपा और मनुष्य के कर्म का भेद समझ में आ गया। वे पक्षी के बच्चों को वहां से उठाकर आश्रम ले आए और उनके लिए दाना-पानी का भी इंतजाम किया।
11. ध्यान या सेवा
एक बार ज्ञानेश्वर महाराज सुबह-सुबह नदी तट पर टहलने निकले। उन्होंने देखा कि एक लड़ा नदी में गोते खा रहा है। नजदीक ही, एक संन्यासी आंखें मूंदे बैठा था। ज्ञानेश्वर महाराज तुरंत नदी में कूदे, डूबते लड़के को बाहर निकाला और फिर संन्यासी को पुकारा। संन्यासी ने आंखें खोली तो ज्ञानेश्वर जी बोले, ‘‘क्या आपका ध्यान लगता है?’’ संन्यासी ने उत्तर दिया, ‘‘ध्यान तो नहीं लगता, मन इधर-उधर भागता है।’’ ज्ञानेश्वर ने फिर पूछा, ‘‘लड़का डूब रहा था, क्या आपको दिखाई नही दिया?’’ उत्तर मिला, ‘‘देखा तो था, लेकिन मैं ध्यान कर रहा था।’’ ज्ञानेश्वर ने समझाया, ‘‘आप ध्यान में कै से सफल हो सकते हैं?
प्रभु ने आपको किसी की सेवा करने का मौका दिया था। यही आपका कर्तव्य भी था। यदि आप पालन करते, तो ध्यान में भी मन लगता। प्रभु की सृष्टि, प्रभु का बगीचा बिगड़ रहा है। बगीचे का आनंद लेना है, तो बगीचे को संवारना सीखें।’’ यदि आपका पड़ोसी भूखा सो रहा है और आप पूजा-पाठ करने में मस्त हैं, तो यह मत सोचिए कि आप द्वारा शुभ कार्य हो रहा है, क्योंकि भूखा व्यक्ति उसी की छवि है, जिसे पूजा-पाठ करके आप प्रसन्न करना या रिझाना चाहते हैं। क्या वह सर्वव्यापक नहीं है?
12. सेवा की परीक्षा
अपने शिष्यों की परीक्षा के उद्देश्य से एक बार गुरु नानक देव ने कांसे का अपना कटोरा कीचड़ से भरे गड्ढे में फेंक दिया। इसके बाद उन्होंने शिष्यों को आदेश दिया कि वे गड्ढे में घुस कर उनका कटोरा वापस लेकर आएं। कीचड़ में सन जाने के डर से कोई शिष्य कटोरा लाने का साहस नहीं कर सका। कोई न कोई बहाना बनाकर वे निकल गए। नानक मुस्कराए और अंत में उन्होंने भाई लहना से कहा कि कटोरा निकाल लाओ।
गुरु-भक्त लहना ने अपने सुंदर लिबास की परवाह नहीं की। वे गड्ढे में उतरे। उनका लिबास काले कीचड़ में सन गया, लेकिन वे गुरु का कटोरा निकाल लाए। नानक के चेहरे पर संतोष की रेखा दिखाई दी। उन्होंने लहना को आशीर्वाद दिया। यही भाई लहना आगे चलकर सिखों के दूसरे गुरु अंगद देव के नाम से प्रसिद्ध हुए।
13. जीवन
एक आदमी जंगल में हीरों की खोज में लगा हुआ था। तभी उसके पीछे एक सिंह लग गया । वह बचाव के लिए बेतहाशा भागा। भागते-भागते वह एक ऐसी जगह पहुच गया, जिसके आगे रास्ता समाप्त हो गया था। नीचे भयंकर गड्ढा था। वापस लौटने का कोई उपाय न था, क्योंकि पीछे सिंह पड़ा था। सामने रास्ता समाप्त हो गया था। आखिरकार घबराहट में उसने वही किया जो निरुपाय आदमी करता है। वह गड्ढे में एक वृक्ष की जड़ों को पकड़कर लटक गया। सोचा, सिंह चला जाएगा तो निकल आएगा। मगर सिंह गया नहीं, ऊपर उसका इंतजार करने लगा। जब उसने देखा कि सिंह जाने का नाम नहीं ले रहा, तो उसने नीचे झांका। नीचे देखा कि एक पागल हाथी चिघांड रहा है। उसे लगा कि अब बचने का शायद कोई उपाय नहीं शेष रहा।
तभी उसने देखा कि उसने जिस शाखा को पकड़ा है, वह कुछ नीचे झुकती जा रही है। ऊपर देखा तो दो चूहे उसकी जड़ों को काट रहे है। उसी समय उसने यह भी देखा कि ऊपर मधुमक्खियों ने एक छत्ता लगा रखा है। और उसमें से एक-एक बूंद टपक रही हैं। यह देख कर उसने अपनी जीभ फैला दी। मधु की एक बूंद जीभ पर आ टपकी। उसने आखें मूंद लीं और बोला, धन्य भाग! बहुत मधुर है। आदमी की वासनाएं भी ऐसी ही है। मन मधु की एक-एक बुंद टपकाता चला जाता है और आंख बंद करके आदमी कहता है कि वह बहुत मधुर है, लेकिन वास्तविकता वह जानता है कि मृत्यु निकट है और प्रति पल जीवन की जड़ें कटती जा रही हैं। इसे भूलकर वह वासनाओं के पीछे पड़ा रहा है।
14. नानक और फकीर
गुरु नानक देव जी एक बार पानीपत गए। वहां शाह सरफ नाम का प्रसिद्ध फकीर रहता था। गुरु नानक देव जी को देखकर उसने पूछा, ‘‘संत होकर आप गृहस्थ जैसे कपड़े क्यों पहने हुए हैं? संन्यासी की तरह सिर क्यों नहीं मुड़वाया?’’ गुरु नानक देव जी ने उत्तर दिया,‘‘मूड़ना तो मन को चाहिए, सिर को नहीं। जो मनुष्य अपने सुख व अंहकार को त्यागकर भगवान की शरण में जाता है वह चाहे तो जीे भी वस्त्र पहने, भगवान उसे स्वीकार करते हैं।’’
इसके बाद शाह सरफ ने पूछा,‘‘आपकी जाति क्या है?’’ आपका धर्म क्या है? गुरु नानक देव जी बोले, ‘‘मेरी जाति वही है जो आग और वायु की है। वह शत्रु और मित्र को एक समान समझती है। मेरा धर्म है सत्य मार्ग। मैं वृक्ष और धरती की तरह रहता हूं। नदी की तरह मुझे भी इस बात की चिंता नहीं है कि कोई मुझ में फूल फेंकता है या कू ड़ा ।’’ यह सुनकर शाह सरफ ने गुरु जी के हाथों को चूम लिया और उनके लिए मंगल कामनाएं कीं।
15. एच. जी. वेल्स की उदारता
एच.जी.वेल्स अंग्रेजी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। लंदन में उन्होंने अच्छा-सा मकान बनवा लिया था। किंतु वे उस मकान के तीसरे माले के एक सामान्य कमरे में ही रह कर अपना जीवन-यापन करते थे। एक बार उनका प्रिय मित्र उनसे मिलने आया। वेल्स जैसे बड़े लेखक को एक सामान्य कमरे में देख मित्र आश्चर्यचकित होकर बोला,‘‘इतने बड़े मकान में रहते हुए तुमने अपने लिए सामान्य से कमरे को ही क्यों चुना? नीचे के खण्ड में तो एक से एक सुविधाजनक कमरे हैं।’’ इस पर वेल्स ने कहा,‘‘तुम ठीक कह रहे हो, निचले खण्ड के कमरे मैंने नौकरों को दे रखे हैं।’’ यह सनुकर तो मित्र और भी चकित हो गया और बोला,‘‘ऐसा करने की आखिर क्या जरूरत थी।
सभी मकान मालिक तो खुद अच्छे कमरों में रहते थे और नौकरों को छोटे कमरे दिया करते हैं, चाहे वे कितने ही असुविधाजनक क्यों न हों।’’ यह सुनकर वेल्स ने कहा,‘‘ऐसा मैंने जान-बूझकर किया है। क्योंकि किसी जमाने में मेरी मां भी नौकरानी का काम करती थी। गंदी कोठरियों का नारकीय जीवन मैंने भी देखा है। इसलिए आज जब मैं समर्थ हूं तो मैंने अपने नौक रों को साफ-सुथरें और सुविधाजनक कमरे दे रखे हैं, ताकि उन्हें किसी तरह का कष्ट न हो। आखिर वे भी तो इन्सान हैं और मेरा क्या है, मेरा काम तो इस छोटे से कमरे से ही चल जाता है।’’ वेल्स का जवाब सुनकर उनका मित्र श्रद्धा से अभिभूत हो गया।
16. मस्ती का राज
राजा अंबरीष वन में कहीं जा रहे थे। उन्होंने रास्ते में देखा कि एक युवक खेत में हल जोत रहा है तथा बड़ी मस्ती से भगवान की भक्ति का भजन गाता जा रहा है। राजा उसकी मस्ती से प्रभावित हुए तथा खेत की मेड़ पर खड़े हो गए। राजा ने पूछा,‘‘बेटा, तुम्हारी मस्ती देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूं। इस मस्ती का कारण क्या है?’’ युवक ने उत्तर दिया,‘‘दादा, मैं अपनी मेहनत की कमाई बांटकर खाता हूं। हर क्षण भगवान को याद कर संतुष्ट रहता हूं, इसलिए सदैव खुश और मस्त रहता हूं। मुझे लगता है कि जैसे भगवान हमेशा मुझ पर कृपा की बरसात करते रहते हैं।’’
राजा ने पूछा,‘‘तुम कितना कमा लेते हो? उसे किस तरह बांटते हो?’’ युवक ने बताया,‘‘मैं एक रुपया रोेज कमाता हूं। उसे चार जगह बांट देता हूं। माता-पिता ने मुझे पाला-पोसा है। कृतज्ञता के रूप में उनको चार आने भेंट करता हूं। चार आने बच्चों पर खर्च करता हूं। मैं किसान होने के नाते यह जानता हूं कि आदमी जो बोता है, वह फसल पकने पर पाता है। इसलिए चार आना मैं गरीबों में, अपाहिजों व बीमारों की सेवा में खर्च करता हूं। असहायों को दान देता हूं। चार आने में अपना व पत्नी का खर्च चलाता हूं।’’ राजा को अनपढ़ किसान युवक की मस्ती का रहस्य समझ में आ गया।
17. पुरुषार्थ
एक राजा अपने मंत्रियों में से प्रधानमंत्री का चुनाव करना चाहता था। तीन उम्मीदवार थे। राजा ने उनकी क्षमताओं की परख के लिए परीक्षा ली। राजा ने तीनों को पास बुलाकर कहा,‘‘देखो यह कोठरी। इसमें आप तीनों उम्मीदवार जाएंगे। बाहर से ताला लगा दिया जाएगा। जो व्यक्ति भीतर से ताला खोलकर बाहर आ जाएगा उसे प्रधानमंत्री बना दिया जाएगा।’’ तीनों उम्मीदवार कमरे के भीतर बंद कर दिए गए। पहले व्यक्ति ने सोचा अंदर से बाहर का ताला खोलना असंभव है। वह अंदर चुपचाप बैठा रहा। कोई कोशिश नहीं की। दूसरा व्यक्ति उठा पर यह सोचकर तत्काल बैठ गया कि इस असंभव शर्त का पूरा होना मुश्किल है।
तीसरे व्यक्ति ने सोचा इस तरह की बेतुकी शर्त में जरू र कोई रहस्य है। शर्त लगाने वाला भी बुद्धिमान आदमी है, राजा है। उठा और उसने दरवाजे पर धक्का दिया। दरवाजा खुल गया। उसमें ताला जरूर लगा था पर उसमें चाभी घमाई नहीं थी। वह बाहर निकल आया। उसे प्रधानमंत्री का पद मिल गया। जो हाथ पर हाथ रखकर बैठने के बजाय समस्या के हल के लिए पुरुषार्थ करता है। वह अपने गंतव्य तक पहुुंचने में सफल होता है।
18. शहद का उपहार
मुस्तफा कमाल पाशा उन दिनों तुर्की के राष्टÑपति थे। राजधानी में उनकी वर्षगांठ धूमधाम से मनाई गई। अनेक लोगों ने उन्हें बहुमूल्य उपहार भेंट किए। उत्सव समाप्त होने पर कमाल पाशा विश्राम के लिए जाने ही वाले थे कि गांव का एक बूढ़ा उनसे मिलने आ पहुंचा। उपहार के रूप में मिट्टी के बर्तन में थोड़ा-सा शहद लाया था। कमाल पाशा ने प्रेम से उसका उपहार स्वीकार किया। अपनी दो उंगलियां शहद के बर्तन में डालीं और उसे चाटकर उसका स्वाद लिया। तीसरी उंगली से शहद निकालकर उन्होंने बूढ़े को खिलाया।
वह निहाल हो गया। बूढ़े को विदा करते हुए कमाल पाशा ने कहा,‘‘बाबा, तुम्हारे द्वारा प्यार से लाया गया शहद मेरे जन्मदिन का सर्वोत्तम उपहार है, क्योंकि इसमें शुद्ध प्यार की मिठास है। तुम्हारी भावना ने मेरे लिए इस उपहार को अमूल्य बना दिया है।’’ उपहार का अपना कोई विशेष मूल्य नहीं होता, मूल्य उसे लाने वाले की भावना का होता है।
19. विद्यार्थी जी की सेवा भावना
गणेश शंकर विद्यार्थी अपने सहयोगियों की विशेष चिंता करते थे। एक बार वे अपने एक सहयोगी के साथ रेल यात्रा कर रहे थे। अचानक रात में उठकर उन्होंने देखा कि उनके सहयोगी के पास ओढ़ने के लिए चादर नहीं है और वे ठंड से सिकुड़ रहे हैं। विद्यार्थी जी ने उन्हें अपना कंबल ओढ़ा दिया और स्वयं हल्की-सी चादर लेकर सो गए। प्रात: नींद खुलने पर सहयोगी बंधु ने देखा कि गणेश शंकर विद्यार्थी सर्दी से सिकुड़ रहे हैं। उन्हें नींद तो आई नहीं थी, बस लेटे हुए ही थे।
विद्यार्थी जी ने अपने सहयोगी से पूछा,‘‘रात क ो नींद तो ठीक से आ गई थी न?’’इस पर सहयोगी ने कहा,‘‘आप रात भर सर्दी से ठिठुरते रहे और मैं ...।’’ ‘‘अरे कुछ नहीं।’’ विद्यार्थी जी ने बीच में टोकते हुए कहा,‘‘मुझे तो ऐसे ही रहने की आदत है।’’ विद्यार्थी जी अपने सहयोगियों का कितना अधिक ध्यान रखते थे, उसका यह छोटा-सा उदाहरण है।
20. सच्ची उदारता
प्रसिद्ध व्यवसायी रायचन्द को भाई श्रीमद्जी के नाम से अधिक जाना जाता था। कहा जाता है कि महात्मा गांधी भी उनकी उदार वृत्ति के प्रशसंक थे। उनके सद्गुणों की छाप गुजरात में आज भी अमिट है। रायचन्द बम्बई में हीरे-जवाहरात का व्यापार करते थे। उनका एक जौहरी से हीरे खरीदने का सौदा हुआ। इसी बीच, भाव बहुत बढ़ गए। सो, श्रीमद्जी को लगभग पचास हजार रुपये का लाभ तय था। उधर, बेचारे देनदार के तो गले में फांसी थी ही। श्रीमद्जी उसकी हालत से भली-भांति परिचित थे। वे समझते थे कि उस पर क्या बीतती होगी? कुछ सोच-विचार कर श्रीमद्जी उस जौहरी के घर गए।
लेनदार को अपने घर देखकर देनदार बुरी तरह सकपका गया। फिर भी, साहस बटोर कर बोला,‘‘मेरी नीयत खराब नहीं है। लेकिन स्थिति काबू से बाहर हो गई है। अत: आप धैर्य रखें। मैं सारे हीरे कुछ ही दिनों बाद अवश्य दे दूंगा।’’ श्रीमद्जी ने आव देखा न ताव। कारोबारी समझौते के कागजात को फाड़ दिया और बोले,‘‘मेरे लिए व्यवसाय ही सब कुछ नहीं है। मानवीय उदारता भी कोई चीज होती है। परिस्थितियों के कारण कीमत में आई उछाल का फायदा उठाना मेरे उसूल के खिलाफ है।’’ देनदार रायचंद को विस्मित होकर देखता रह गया।
21. नाम का पत्थर
जमेशद जी मेहता कराची के प्रख्यात सेठ थे। एक अस्पताल के निर्माण के लिए चंदा एकत्र किया जा रहा था। चंदा देने वालों को यह बताय जाता था कि जो दस हजार रुपये दान में देंगे। उनके नाम के पत्थर अस्पताल के मुख्य द्वार पर लगाए जाएंगे। बहुत से व्यक्तियों ने दस हजार या इससे भी अधिक रुपये दान में दिए, ताकि उनके नाम का पत्थर अस्पताल के मुख्य द्वार पर लग जाए।
परंतु जमशेद जी मेहता ने दस हजार में से चालीस रुपए कम दिए। इस पर किसी ने कहा कि सेठ जी चालीस रुपये और दे दें तो आपके नाम का पत्थर भी लग जाएगा। इस पर सेठ जी ने उत्तर दिया कि सेवा में जो आनंद है,, वह आनंद नाम का पत्थर लगवाने में नहीं हैं।
22. शब्द की सत्ता
एक बार स्वामी विवेकानंद अपने प्रवचन में ईश्वर के नाम की महत्ता बता रहे थे। तभी वहां बैठा एक व्यक्ति प्रवचन के बीच में ही उठ कर बोलने लगा,‘‘शब्दों में क्या रखा है? उन्हें रटने से क्या लाभ?’’ विवेकानंद कुछ देर चुप रहे, फिर उन्होंने उस व्यक्ति को संबोधित करते हुए कहा,‘‘तुम मुर्ख और जाहिल ही नहीं नीच भी हो।’’ वह व्यक्ति तुरंत आग-बबूला हो गया। उसने स्वामी जी से कहा,‘‘आप इतने बड़े ज्ञानी हैं, क्या आपके मुंह से ऐसे शब्दों का उच्चारण शोभा देता है? आपके वचनों से मुझे बहुत दुख पहुंचा है। मैंने ऐसा क्या कहा जो आपने मुझे इस प्रकार बुरा-भला कहा।
’’ स्वामी विवेकानंद ने हंसते हुए उत्तर दिया,‘‘भाई, वे तो मात्र शब्द थे। शब्दों में क्या रखा है। मैंने तुम्हें कोई पत्थर तो नहीं मारे थे।’’ सुनने वालों को समझ में आ गया कि क्यों स्वामी जी ने उस व्यक्ति को अपशब्द कहे थे। स्वामी जी ने प्रवचन को आगे बढ़ाते हुए बताया कि जब अपशब्द क्रोध का कारण बन सकते हैं तो अच्छे शब्द ईश्वर का आशीर्वाद भी दिला सकते हैं। शब्दों की महिमा के द्वारा हम ईश्वर की निकटता का अनुभव कर सकते हैं।
23. संस्कार की खूंटी
ऊंटों का काफिला दिन भर चलता रहा। सांझ के समय विश्राम के लिए ठहरा। पास में थी एक धर्मशाला। काफिले के मुखिया ने खूंटियां गाड़ीं और ऊंटों क ो बांध दिया। एक खूंटी कम रह गई। मुखिया ने धर्मशाला के कर्मचारी से खूंटी मांगी। लेकिन नहीं मिली। कर्मचारी ने कहा,‘‘चलो, मैं खूंटी के बिना ही ऊंट को बांध देता हूं। कर्मचारी मुखिया के साथ आया और हथौडेÞ से उस ऊंट के लिए खूंटी गाड़ने का स्वांग रचा। ऊंट बैठने लगा।
ऊंटों के चले जाने पर भी शून्य में गड़ी हुई खूंटी वाला ऊंट नहीं उठा। मुखिया ने धर्मशाला के कर्मचारी को सारी स्थिति बताई। ’’ उसने ऊंट के पास पहुंचकर खूंटी को उखाड़ने क ा स्वांग रचा। ऊंट तत्काल खड़ा हुआ और अपने काफिले से जा मिला। मनुष्य भी संस्कार की खूंटी से बंधा है। उससे मुक्त होकर भी वह अनेक बार मुक्त नहीं हो पाता, क्योंकि भ्रम की खूंटी में उसका मन अटका रहता है।
24. सच्ची आत्मीयता
गुजरात के एक गांव में किसी प्रसिद्ध संत का प्रवचन चल रहा था। हजारों लोग गांव-गांव से कथा सुनने आ रहे थे। करीब आधा किलोमीटर पैदल चल कर कथा मंडप आता था। मुबई एक नामी व्यापारी शांतिपूर्वक सम्पूर्ण कथा सुनने के बाद राजापुर आया। दोपहर बाद की कथा प्रारंभ होने के समय व्यापारी तेज-तेज कदमों से मंडप की ओर जा रहा था। तभी उसकी चप्पल टूट गई। थोड़ी दूर छतरी की छाया तले एक मोची बैठा था। व्यापारी ने विनती की, भाई, जल्दी से मेरी चप्पल जोड़ दो, वरना कथा में मुझे देर हो जाएगी। मोची ने फटाफट चप्पल जोड़ दी। व्यापारी ने उसे एक रुपए का सिक्का दिया और तेजी से आगे बढ़ गया।
मोची ने पीछे से पुकारा, बाबू आप दूसरे शहर से कथा सुनने आए हैं न? आप यह रुपया वापस ले लें। व्यापारी ने पूछा, मगर क्यों? अत्यंत प्रेमपूर्वक रुपया लौटाते हुए मोची बोला, मैं निर्धन हूं, इसलिए अपना धंधा छोड़कर कथा सुनने नहीं जा सकता। लेकिन आप जैसे कथा सुनने के लिए जाने वाले गृहस्थ की चप्पल पर दो टांके लगाकर मैं रुपया नहीं लूंगा। अगर लूंगा तो मेरा भगवान मुझसे रूठ जाएगा। मैं प्रवचन में इसी तरह खुद को शामिल मानता हूं।
25. भीष्म की अंतिम शिक्षा
मन की कोमलता और व्यवहार में विनम्रता बहुत बड़ी शक्ति है। कोमलता सदा जीवित रहती है और कठोरता का जल्दी नाश होता है। तलवार कठोर से कठोर पदार्थ को काट डालती है, परंतु रूई के ढेर को काटने की ताकत तलवार में नहीं है। महाभारत का प्रसंग है। धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से अन्तिम समय में कुछ जीवनोपयोगी शिक्षा का आग्रह किया। भीष्म पितामह बोले, नदी समुद्र तक पहुंचती है, तो अपने संग पानी के अतिरिक्त बड़े-बड़े ,ऊंचे-लंबे पेड़ साथ ले आती है।
एक दिन समुद्र ने नदी से पूछा, तुम पेड़ों को तो अपने प्रवाह में ले आती हो, परंतु कोमल बेलों और नरम पौधों को क्यों नहीं लातीं? नदी बोली, जब-जब पानी का बहाव आता हैं, तब बेलें झुक जाती हैं और झुक कर पानी को रास्ता दे देती हैं इसलिए वे बच जाती हैं। भीष्म पितामह ने कहा,‘‘जीवन में सदा कोमल बने रहना, क्योंकि कोमल व्यक्ति का अस्तित्व सदा रहता है, कभी समाप्त नहीं होता।’’
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