एक बार एक व्यक्ति ने किसी संत से कहा,‘‘महाराज मैं बहुत नीच हूं, मुझे कुछ उपदेश दीजिए।’’ संत ने कहा, ‘‘ अच्छा जाओ, जो तुम्हें अपने से नीच, तुच्छ और बेकार वस्तु लगे उसे ले आओ।’’ वह व्यक्ति गय और उसने सबसे पहले कुत्ते को देखा। कुत्ते को देखकर उसके मन में विचार आया कि मैं मनुष्य हूं और यह जानवर, इसलिए यह मुझे से जरूर नीच है। लेकिन तभी उसे ख्याल आया कि कुत्ता तो वफादार जानवर है और मुझसे तो बहुत अच्छा है। फिर उसे एक कांटेदार झाड़ी दिखाई दी और उसने मन में सोचा कि यह झाड़ी तो अवश्य ही मुझसे तुच्छ और बेकार है परंतु फिर ख्याल आया कि कांटेदार झाड़ी तो खेत में बाड़ लगाने के काम आती है और फसल की रक्षा करती है। मुझसे तो यह भी बेहतर है। आगे उसे गोबर का ढेर दिखाई दिया।
उसने सोचा, गोबर अवश्य ही मुझसे बेकार है। परंतु सोचने पर उसे समझ में आया कि गोबर से खाद बनती है, और वह चौका तथा आंगन लीपने के काम आता है। इसलिए यह मुझसे बेकार नहीं है। उसने जिस चीज को देखा वही उसे खुद से अच्छी लगी। वह निराश होकर खाली हाथ संत के पास गया और बोला, ‘महाराज, मुझे अपने से तुच्छ और बेकार वस्तु दूसरी नहीं मिली।’ संत ने उस व्यक्ति को शिष्य बना लिया और कहा कि जब तक तुम दूसरों के गुण और अपने अवगुण देखते रहोगे तब तक तुम्हें किसी के उपदेश की जरूरत नहीं।
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