प्रसिद्ध व्यवसायी रायचन्द को भाई श्रीमद्जी के नाम से अधिक जाना जाता था। कहा जाता है कि महात्मा गांधी भी उनकी उदार वृत्ति के प्रशसंक थे। उनके सद्गुणों की छाप गुजरात में आज भी अमिट है। रायचन्द बम्बई में हीरे-जवाहरात का व्यापार करते थे। उनका एक जौहरी से हीरे खरीदने का सौदा हुआ। इसी बीच, भाव बहुत बढ़ गए। सो, श्रीमद्जी को लगभग पचास हजार रुपये का लाभ तय था। उधर, बेचारे देनदार के तो गले में फांसी थी ही। श्रीमद्जी उसकी हालत से भली-भांति परिचित थे। वे समझते थे कि उस पर क्या बीतती होगी? कुछ सोच-विचार कर श्रीमद्जी उस जौहरी के घर गए। लेनदार को अपने घर देखकर देनदार बुरी तरह सकपका गया।
फिर भी, साहस बटोर कर बोला,‘‘मेरी नीयत खराब नहीं है। लेकिन स्थिति काबू से बाहर हो गई है। अत: आप धैर्य रखें। मैं सारे हीरे कुछ ही दिनों बाद अवश्य दे दूंगा।’’ श्रीमद्जी ने आव देखा न ताव। कारोबारी समझौते के कागजात को फाड़ दिया और बोले,‘‘मेरे लिए व्यवसाय ही सब कुछ नहीं है। मानवीय उदारता भी कोई चीज होती है। परिस्थितियों के कारण कीमत में आई उछाल का फायदा उठाना मेरे उसूल के खिलाफ है।’’ देनदार रायचंद को विस्मित होकर देखता रह गया।
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