एक व्यक्ति संन्यासी से पास जाकर बोला, ‘‘बाबा! बहुत गरीब हूं , कुछ दो।’’ संन्यासी ने कहा, ‘‘मैं अकिंचन हूं, तुम्हे क्या दे सकता हूं? मेरे पास अब कु छ भी नहीं है।’’ संन्यासी ने उसे बहुत समझाया, पर वह नहीं माना। तब बाबा ने कहा, ‘‘जाओ नदी के किनारे एक पारस का टुकड़ा है, उसे ले जाओ। मैंने उसे फें का है। उस टुकड़े से लोहा सोना बनता है।’’ वह दौड़ा-दौड़ा नदी के किनारे गया। पारस का टुकड़ा उठा लाया और बाबा को नमस्कार कर घर की ओर चला। सौ कदम गया होगा कि मन में विचार उठा और वह उल्टे पांव संन्यासी के पास लौटकर बोला, ‘‘बाबा! यह लो तुम्हारा पारस, मुझे नहीं चाहिए।’’
संन्यासी ने पूछा, ‘‘क्यों?’’ उसने कहा, ‘‘बाबा! मुझे वह चाहिए जिसे पाकर तुमने पारस को ठुकराया है। वह पारस से भी कीमती है, वही मुझे दीजिए।’’ जब व्यक्ति में अंतर की चेतना जाग जाती है तब वह कामनापूर्ति के पीछे नहीं दौड़ता, वह इच्छापूर्ति का प्रयत्न नहीं करता!
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