एक कुख्यात डाकू था। उसके नाम से सब डरते थे। एक बार नगर में एक महात्मा आए। उनके पास हीरे जवाहरातों से जड़ी सोने की मूर्तियां थी। जिनकी वह प्रतिदिन पूजा करते थे। यह बात डाकू को मालूम हुई। तो उसी रात डाकू महात्मा के पास पहुंचा और तलवार दिखाकर रौब से कहा, ‘हे सन्यासी! सुना है तुम्हारे पास कीमती मूर्तियां हैं, जल्दी उनको मेरे हवाले कर दो, वरना मैं तुम्हें मौत के घाट उतार दूंगा।’
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महात्मा घबराए नहीं, शांत स्वर में बोले, ‘पहले मेरे एक सवाल का जवाब दो, तुम्हें मूर्तियां अवश्य मिल जाएंगी।’ इस पर डाकू ने कहा, ‘ठीक है, जल्दी पूछो।’ महात्मा ने मंदहास से कहा, ‘मैं एक देश के राजा को जानता हूं, जो अपने पास एक घंटे काम करने के लिए दस हजार स्वर्ण मुद्राएं देता है। लेकिन उनकी शर्त यह है कि वे स्वर्ण मुद्राएं खर्च नहीं की जाएं और देश छोड़ते समय उन्हें साथ भी न ले जाया जाए। क्या तुम उसके पास काम करके कुछ पैसे कमाना चाहोगे?’ इस पर डाकू ने कहा, ‘कौन करेगा ऐसा व्यर्थ श्रम? मैं मूर्ख नहीं हूं।’
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इस पर महात्मा ने पूछा, ‘क्या हम मरते समय इस धन को साथ ले जा सकते हैं? नहीं। फिर यहीं छोड़ देने योग्य इस धन के लिए यह सब कुकर्म, क्या व्यर्थ का श्रम नहीं? चलो, अभी मूर्तियां तुम्हारी हैं, इन्हें ले जा सकते हो।’ इतना कहकर महात्मा ने मूर्तियां उसकी ओर बढ़ाई, लेकिन तब तक डाकू की आंखों से आंसू बहने लगे और वह महात्मा के चरणों में गिर पड़ा।
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