भारत की नारियां- रानी दुर्गावती Rani Durgavati

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भारत की नारियां- रानी दुर्गावती Rani Durgavati



  •  रानी दुर्गावती ने अपने असाधारण पराक्रम से  सम्राट अकबर की विशाल सेना के छुड़ा दिए थे छक्के
आज जिसे मध्य प्रदेश कहा जाता है, उस राज्य में जबलपुर शहर भी है। इसी जबलपुर के पास गढ़ामंडला का एक किला है। सोलहवीं सदी में इस किले के पास पड़ोस में गोंड लोगों का राज्य था। राज्य के इस भू-भाग को गोंडवाना कहा जाता था। इसी गोंडवाना राज्य के राजा दलपत शाह की वीर पत्नी रानी दुर्गावती अपने असाधारण पराक्रम के कारण सम्राट अकबर की विशाल सेना के छक्के छुड़ा कर भारत की महान नारियों में अपना नाम अमर कर गई हैं।


दलपत शाह के पिता संग्राम शाह पराक्रमी राजा king थे। जब वे सिंहासन पर बैठे तब गढ़ामंडला एक छोटा-सा राज्य था। उसमें केवल चार किले थे। संग्राम शाह ने अपनी बहादुरी के बल पर इन किलों की संख्या 52 तक पहुंचा दी। इस प्रकार गढ़ामंडला का राज्य भी काफी बड़ा हो गया। सन् 1541 में संग्राम शाह की मृत्यु हो गई और उनके सुपुत्र दलपत शाह गद्दी पर बैठे। तब तक गढ़ामंडला की राजधानी चौरागढ़ किले में थी। किंतु चौरागढ़ विशाल गोंडवाना राज्य का कारोबार चलाने के लिए केंद्रीय स्थान नहीं था। अतः राजा दलपत शाह ने अपने लिए नई राजधानी बनाई और सिंगौरगढ़ का नया किला उसमें बनाया, जो जबलपुर शहर से करीब 51 किलोमीटर दूर है।


इस गोंडवाना राज्य के पास ही बुंदेलखंड में चंदेले राजपूतों का राज्य था। उसकी राजधानी महोबा थी। वहां का राजा कीर्ति सिंह था। उसकी बेटी का नाम था दुर्गावती। वह बहुत रूपवती तथा नाना कलाओं में निपुण थी। उसके पिता उसकी सुंदरता के अनुरूप उसे लिखा-पढ़ा कर योग्य बनाना चाहते थे। किंतु दुर्गावतीRani Durgavati का ध्यान किताबें पढ़ने की ओर कम ही रहता था। एक बार कीर्ति सिंह ने दुर्गावती को पढ़ाने के लिए एक पंडितजी को नियुक्त किया था। ये पंडितजी जब उसे पढ़ाने के लिए आते तो दुर्गावती उनसे कहा करती थीं कि वह क ख ग घ लिखना सिखाने के बजाय उसे रामायण का युद्धकांड तथा महाभारत की कहानी सुनाएं। पंडितजी इससे प्रसन्न तो होते थे किंतु बरबस उससे कुछ लिखाई-पढ़ाई भी करवा ही लेते थे। जब भी फर्सत मिलती, दुर्गावती कभी घोड़े की सवारी करती तो कभी तीर-कमान पर हाथ आज़माती, कभी तलवार-भाला चलाकर देखती, तो कभी बंदूक तमंचे पर भी उंगली चलाकर देखती थीं।


एक किस्सा है कि एक दिन उसने अपने पिता कीर्ति सिंह के हाथी पर अंबारी कसवाई और महावत से कहने लगी कि वह खुद हाथी चलाएगी। महावत कीर्ति सिंह का पुराना नौकर था। उसने रानी-बेटी से कहा कि वह उसे भी अपने साथ हाथी पर बैठने दे। किन्तु दुर्गावती Rani Durgavati नहीं मानी। जिद करके वह अकेली बैठ गई। आखिर महावत स्वयं घोड़े पर चढ़ा और दुर्गावती को हाथी पर बैठने दिया। उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि एक बार भी अंकुश का प्रयोग किए बिना ही नन्हीं दुर्गावती हाथी को जहां मर्जी घुमा कर सकुशल वापस लौट आई। दुर्गावती के रूप तथा बुद्धिमानी कला तथा हथियार दोनों में निपुण होने की बात गोंडवाना और पूरे बुंदेलखंड में फैल गई। बड़े-बड़े राजा उसे अपनी रानी बनाने के सपने देखने लगे। गढ़ामंडला का तरुण राजा दलपत शाह भी उनमें एक था। उसने तो मन ही मन निश्चय कर लिया था कि विवाह करेगा तो दुर्गावती से ही।


लेकिन उस जमाने में यह बातें आसान नहीं थीं। कीर्ति सिंह दुर्गावती का विवाह किसी राजपूत घराने में करना चाहते थे, क्योंकि वे स्वयं राजपूत थे। इधर दलपत शाह ने दुर्गावती Rani Durgavati से विवाह करने का अपना इरादा एक पत्र द्वारा कीर्ति सिंह को सूचित किया। बात यह थी कि दलपत शाह का पराक्रम, उसकी लोकप्रियता तथा अन्य गुणों की प्रसिद्धि महोबा में राजा कीर्ति सिंह के कानों तक भी पहुंच चुकी थी। उसके बाद दलपत शाह की चिट्ठी भी पहुंची। किंतु दलपत शाह एक गोंड यानी भील परिवार में पैदा हुए थे, जबकि दुर्गावती एक राजपूत कन्या थी। अतः कीर्ति सिंह ने दलपत शाह को लिख भेजा कि उनके जैसे गोंड युवक को एक राजपूत क्षत्राणी से विवाह करने की कामना नहीं करनी चाहिए। हां, यदि दलपत शाह महोबा की सेना के साथ लड़ाई में जीत जाएं तो दुर्गावती को जीत कर उसके साथ विवाह कर सकेंगे। अन्यथा यह विवाह संभव नहीं है।


यह एक कठिन चुनौती थी। महोबा का राज्य बड़ा था। उसकी सेना बड़ी थी। उसके सैनिकों के पास हथियार अच्छे थे। राजा कीर्ति सिंह भी इस सत्य को भली-भांति जानते थे। उन्होंने इसीलिए यह असंभव शर्त दलपत शाह के सामने रखी थी। वह जानते थे कि दलपत शाह इसे पूरा नहीं कर सकता। इसीलिए राजा कीर्ति सिंह ने दुर्गावती का विवाह अपनी मर्जी के अनुसार किसी राजपूत परिवार में कराने की सोची और वैसा प्रबंध करना आरंभ भी कर दिया। लेकिन दलपत शाह की कीर्ति स्वयं दुर्गावती Rani Durgavati के कानों तक भी पहुंच गई थी। उसने मन ही मन निश्चय कर रखा था कि वह उन्हीं के साथ शादी करेगी। घर में शादी की तैयारियां जारी देखकर दुर्गावती ने दलपत शाह को एक पत्र लिखकर अपना निश्चय बता दिया और कहा कि राजपूत परंपरा के अनुसार युद्ध करके आप मुझे पाने के अधिकारी बनें।


वैसे तो दलपत शाह युद्ध की तैयारी में लग ही गए थे, दुर्गावती Rani Durgavati का पत्र पाकर उन्होंने अधिक उत्साहित होकर तैयारी पूरी कर ली और 1544 ईसवी में दल-बल के साथ महोबा पर चढ़ाई कर दी। घमासान युद्ध हुआ और अंत में दलपत शाह के रण-कौशल तथा युद्धनीति के कारण कीर्ति सिंह की सेना हार गई, दलपत शाह विजयी हुए। किसी-किसी इतिहासकार का यह भी कहना है कि दलपत शाह के रूप, गुणों और वीरता पर कीर्ति सिंह स्वयं मुग्ध थे। जब उन्हें अपनी कन्या और दलपत शाह के प्रेम का पता चला तो उन्हें सारी योजना समझा कर वह राजधानी से चले गए और योजना के अनुसार दुर्गावती सुरंग के मार्ग से दलपत शाह के साथ चली गई। दलपत शाह दुर्गावती से विवाह करने के लिए उसे लेकर सिंगौरगढ़ वापस गए। गढ़ामंडला में दीपावली मनाई गई और बड़ी धूम-धाम के साथ दुर्गावती दलपत शाह की पत्नी और गढ़ामंडला की रानी बनीं।

किंतु रानी दुर्गावती Rani Durgavati की यह सुखी गृहस्थी अधिक दिन नहीं चल सकी। विवाह के दो साल बाद उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम वीरनारायण रखा गया। वह बालक अभी चार साल का भी नहीं हुआ था कि दलपत शाह की अचानक किसी बीमारी के कारण मृत्यु हो गई। रानी दुर्गावती पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। किंतु वह एक महान क्षत्राणी थीं, विपत्तियों से हारने वाली नहीं थी। उन्होंने तय किया कि वह महाराजा दलपत शाह के अधूरे कार्य को पूरा करेंगी तथा अपनी प्रजा को हर तरह से सुखी करने का प्रयास करेंगी।


गढ़ामंडला के राज्य को दलपत शाह ने भी एक अच्छा आदर्श राज्य बनाना आरंभ कर दिया था। लोग सुखी थे। राजसिंहासन पर उनकी अपार निष्ठा थी, अटूट श्रद्धा थी। किंतु दलपत शाह के निधन के बाद अनेक ललचाई आंखें गढ़ामंडला का राज्य हड़पने की ओर लगी थीं। रानी दुर्गावती ने स्थिति को अच्छी तरह से समझ लिया और अपने पुत्र वीरनारायण के नाम पर उसने राज्यसत्ता का सारा कारोबार अपने हाथ में ले लिया। लोगों को राहत पहुंचाने का कार्य रानी दुर्गावती ने पूरी लगन के साथ और जोर से जारी रखा। दुर्गावती Rani Durgavati ने पति के देहांत के बाद गोंडवाना राज्य को सुव्यवस्थित किया, मांडो के राजा बाजबहादुर को बार-बार हराया और पड़ोस के अन्य शासकों से भी लोहा लेती रहीं।


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उन्होंने अपने राज्य में दूर-दूर तक लोगों के लिए पानी के कुंएं खुदवाए, तालाब बनवाए, सरायें बनावाईं। राज्य में अच्छी सड़कें बनाने का कार्य प्रारंभ किया। इन सब बातों का परिणाम यह हुआ कि गढ़ामंडला की ओर उठी हुई ललचाई आंखें धरी की धरी रह गईं। सभी नागरिक रानी दुर्गावती की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। किंतु इसी कारण मुगल बादशाह अकबर को गढ़ामंडला के राज्य का मोह व्यापा। आगरा में गढ़ामंडला को फतह करने के इरादे से कई योजनाएं बनने लगीं। अकबर पर यह धुन सवार थी कि किस प्रकार गढ़ामंडला पर कब्जा कर लिया जाए। रानी दुर्गावती Rani Durgavati के सुंदर रूप का वर्णन उसने सुना था, उसके अच्छे राजकाज की कीर्ति भी उसके कानों तक पहुंची थी।


रानी दुर्गावती Rani Durgavati इससे बड़ी सतर्क हो गई थीं। अकबर से लोहा लेने की बात जहां तक हो सके, वह टालना चाहती थीं। इधर अकबर दुर्गावती को देखना चाहता था। उसने पहले तो रानी दुर्गावती को एक उपहार भेजा। इसे नजराना कहा जाता था। दुर्गावती के दरबारियों ने जब उस नजराना ने के पिटारे को खोला, तो उसमें से एक चरखा निकला। दुर्गावती इसका मतलब समझ गई कि बादशाह अकबर इस चरखे के द्वारा यह सूचित करना चाहता है कि औरतों का काम तो बस घर में बैठकर चरखे पर सूत कातना ही है, इसे करो, राजकाज से आपको क्या लेना-देना है। रानी का चेहरा गुस्से से तांबा बन गया। दरबारियों के हाथ एक-दम म्यान से तलवार खींचने को मचले। किंतु रानी दुर्गावती जोश में होश खोने वालों में से नहीं थीं।


उसने सरदारों को शांत रहने को कहा और अपने मंत्री से मंत्रणा कर बादशाह अकबर को जवाब में एक नजराना भेजने को कहा। रानी के सैनिक हैरानी में पड़ गए। किंतु उन्हें अपनी रानी पर पूरा भरोसा था। अतः चुपचाप उन्होंने नज़राने की पेटी उठाई और आगरा की ओर चल पड़े। अकबर बादशाह की ओर से आया नज़राना तो एक छोटी पेटी में आया था। किंतु रानी दुर्गावती Rani Durgavati की ओर से भेजा गया नज़राना एक बहुत लंबी पेटी में रखा था और काफी भारी भी था। जब यह नजराना आगरा में अकबर के सामने रखा गया, तो अकबर ने पूछा, इसमें क्या है- रानी दुर्गावती के सरदारों ने जवाब दिया,  बाददशाह, हमारी रानी दुर्गावती ने आपके लिए जवाबी नज़राना भेजा है।


अकबर ने पेटी खुलवाई तो उसमें से एक बढ़िया धुनक निकला। रुई के लिए पिंजारियों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला खास सोटा भी उसमें था। अब हैरान होने की बारी अकबर की थी। वह समझ गया कि रानी दुर्गावती Rani Durgavati ने उनकी शरारत का मुंहतोड़ जवाब दिया है कि तुम तो पिंजारे हो, रुई की पिंजाई करते रहो, राजकाज से तुम्हें क्या वास्ता अकबर तो झेंप ही गया था। रानी दुर्गावती की इस धृष्टता के कारण अकबर के दरबारी तक आग बबूला हो गए। वह समझ गया कि रानी बहुत चतुर है।


इधर रानी भी समझ गई थी कि उसके जवाबी नज़राने का अर्थ युद्ध ही होगा। उसके राज्य की सारी सेना में दुर्गावती Rani Durgavati का बड़ा मान था। रानी का अनुमान भी ठीक ही निकला। अकबर ने आसफखान सरदार को विशाल सेना देकर गढ़ामंडला पर चढ़ाई करने के लिए रवाना किया। आसफखान को हिदायत दी कि किसी महिला या बच्चे को कोई कष्ट न पहुंचाए तथा निहत्थे नागरिकों को तंग न करे। अकबर ने आसफखाने से यह भी कहा था कि जहां तक बने युद्ध न करके ही रानी को समझा-बुझा कर आगरा लेता आए ताकि हम उनकी खूबसूरती, बहादुरी और चतुराई की उचित इज्जत कर सकें। आसफखान बहुत बहादुर सेनानी था। उसने बादशाह अकबर से कहा कि हुजूर, और तीन गुनी सेना मुझे दें ताकि मैं इस मुहिम को फतह करके ही हाजरी दूं।


अकबर ने आसफखान को डांटा और कहा- बुजदिल एक औरत को हराने के लिए तीन गुनी सेना और चाहते हो,  लेकिन मन ही मन अकबर भी हार के लिए कोई गुंजाइश छोड़ना नहीं चाहता था। उसने आसफखान की बात मान ली और गढ़ामंडला की सारी सेना से चार गुनी सेना गरजती हुई सिंगौरगढ़ की ओर चल पड़ी। दलपत शाह के मरने के बाद रानी दुर्गावती 14 साल राज्य कर चुकी थीं। राजकुमार वीरनारायण भी  18 साल का हो चुका था। उसने भी मां के साथ समरभूमि में उतरने का निश्चय किया। रानी Rani Durgavati के साथ हमदर्दी रखने वाले पास-पड़ोस के राजा अपनी सेना लेकर उसकी सहायता के लिए आने से कतरा गए, क्योंकि कोई नहीं चाहता था कि अकबर जैसे बादशाह से लोहा लिया जाए। रानी ने अकेले अपनी ही सेना के बल पर अकबर की सेना का सामना करने की ठानी और 1564 ईसवी में युद्ध प्रारंभ हो गया।


युद्ध प्रारंभ करने से पहले आसफखान ने रानी दुर्गावती को सन्देश भेजा कि यदि वह बादशाह की अधीनता स्वीकार कर लेती है तो उनके आधीन गढ़ामंडला का पूरा राज्य उन्हें इनाम में दिया जा सकता है और अन्य कई इलाके भी उन्हें उपहार के रूप में दिए जा सकते हैं। इस संदेश का जो उत्तर रानी दुर्गावती Rani Durgavati ने आसफखान को भेजा वह ओजपूर्ण, वीरता और देशभक्ति से भरा था। उसने जवाब दिया, यदि तुम्हारी यही पेशकश थी तो इतनी सारी सेना को साथ क्यों लाए हो, तुम अकबर का साथ छोड़ कर, मेरे राज्य में अधीन सरदार बन जाओ, तो मैं तुम्हें बहुत बड़ा वजीर बना दूंगी।फिर क्या था, आसफखान खीझ उठा और उसने सेना को हमला करने का आदेश दिया। किंतु रानी दुर्गावती की सेना छापामार युद्ध में बहुत प्रवीण थी। आसफखान की सेना को उसने एक बार नहीं, तीन बार खदेड़ दिया। इससे आसफखान के क्रोध और अपमान का ठिकाना नहीं रहा। उसने रानी की सेना में गद्दारी कराने की चेष्टा की। किंतु रानी को इसका पता चलते ही उसने एक-एक गद्दार को मौत के घाट उतारा और चौथी बार खुद आसफखान से लड़ने के लिए मैदान में उत्तर आईं।


आसफखान ने लड़ाई के लिए गढ़ा से पश्चिम में भेड़ा घाट से नर्मदा के चढ़ाव की ओर एक मोर्चा लगाया। गढ़ा के दक्षिण पूर्व में बरेला गांव में जो मोर्चा जमाया गया, उसका संचालन आसफखान ने स्वयं अपने हाथ में लिया। यहीं पर अंतिम लड़ाई लड़ी गई। आसफखान रानी का वह रणचंडी रूप देखकर कांप गया। रानी के दुर्भाग्य से उसकी सेना पीछे से गढ़ामंडला की नदी और बाकी तीनों ओर से आसफखान की सेना से घिर गई। तभी अचानक बेमौसम ही नदी में बाढ़ आ गई। वीरनारायण इस लड़ाई में घायल हो गया। रानी ने उसे अपने विश्वासी सरदारों के संरक्षण में चौरागढ़ पहुंचने का आदेश दिया। उसके बाद दुर्गावती Rani Durgavati अपने बचे हुए 300 सिपाहियों को लेकर मोर्चे पर डट गई। खूब डट कर लड़ाई हुई। शत्रु की सेना चौगुनी थी। अचानक एक तीर सनसनाता हुआ आया और रानी की एक आंख में घुस गया। रानी ने उसे दूसरे हाथ से जोर से खींचकर निकाल तो अवश्य लिया किंतु उसकी नोक आंख में ही रह गई। असीम वेदना सहते हुए रानी ने अपने घोड़े की बाग दांतों में ले ली और दोनों हाथों से तलवार चलाकर मार-काट करती निकलीं। 

आसफखान रानी की वीरता का कायल हो गया था। तभी एक और तीर सन्नाता हुआ आया और रानी Rani Durgavati की गर्दन में घुस गया। तभी रानी ने देखा कि आसफखान विकट हंसी हंसता हुआ उसकी ओर बढ़कर उसे जीवित ही पकड़ लेना चाहता है। रानी लपक कर दूर हो गई और अपनी देह की पवित्रता को बनाए रखने के लिए उन्होंने अपनी छुरी निकाल कर अपने पेट में घोंप ली। इस प्रकार रानी दुर्गावती वीरगति को प्राप्त हुई। उसने अपने प्राण दे दिए किंतु अपना सम्मान नहीं बेचा। अपना बलिदान कर दिया किंतु देशाभिमान नहीं छोड़ा।


आज भी बरेला गांव में दुर्गावती की समाधि बनी हुई है। सफेद पत्थर की इस समाधि पर दर्शन के लिए जाने वाला हर व्यक्ति रानी दुर्गावती Rani Durgavati की वीरता की स्मृति में एक छोटा सफेद पत्थर उस पर चढ़ाता है और बुंदेलखंड गोंडवाना के लोग तो आज भी गढ़ामंडला की उस नदी पर कोसने वाले लोकगीत गाते हैं, जो बेमौसम ही बाढ़ लेकर आई थी और रानी दुर्गावती की हार का कारण बन गई थी। रानी की इस बहादुरी की दाद स्वयं अकबर ने भी दी, उसने उसकी वीरगाथा आसफखान से सुनी थी। आज भी गोंडवाना के लोग इसे बड़े अभिमान से गाते हैं, जिसका भावार्थ है-

जब दुर्गावती रण को निकली 

हाथों में थीं तलवारें दो 

गुस्से से चेहरा तांबा था। 

आंखों से शरारे उड़ते थे 

घोड़े की बागें दांतों में 

हाथों में थी तलवारें दो।

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