नूरजहां बादशाह जहांगीर की एक रानी थी, नूरजहां का जहांगीर पर काफी प्रभाव था और शासन के काम-काज में वह उपने पति का हाथ बटाती थी, जैसी बातें प्रायः हर विद्यार्थी जानता है। लेकिन यदि गहराई में उतरकर देखा जाए, तो पता चलता है कि हिंदुस्तान पर मुगल-शासन के इतिहास में नूरजहां की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण और बड़ी है। जहांगीर के शासन को तो एक प्रकार से नूरजहां का शासन ही कहा जा सकता है।
इसके अलावा, नूरजहां ने अपनी लंबी आयु में मुगल-शासन की उथल-पुथल में जो प्रत्यक्ष भाग लिया, उसकी कहानी निराली ही है। नूरजहां ने अपनी आंखों से अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब-इन चार मुगल बादशाहों को देखा था। इसलिए नूरजहां का परिचय प्राप्त करने का अर्थ है-मुगल-शासन के एक अर्से की कहानी को भी जानना। असलियत तो यह है कि नूरजहां और उसके परिवार ने हिंदुस्तान के मुगल-शासन को एक नई दिशा प्रदान की।
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नूरजहां के पिता और दादा ईरान के रहने वाले थे। उसके दादा ख्वाजा मुहम्मद शरीफ खुरासान (पूर्वी ईरान) के सुलतान के वजीर थे। वे इस्लाम के शिया संप्रदाय के अनुयायी थे और विद्वान ही नहीं, कवि भी थे। उनके दो भाई भी ईरान के शासन में उच्च अधिकारी थे। सारांश यह है कि, ईरानी शासन में यह परिवार नामी था। मुहम्मद शरीफ के एक बेटे का नाम था-गियासबेग। यही थे नूरजहां के पिता। गियासबेग का दूसरा नाम मिर्जा गियासुद्दीन मुहम्मद भी था। पाश्चात्य ग्रंथकार उसे प्रायः अयाझ का नाम देते हैं। गियासबेग की पत्नी भी सुसंस्कृत कुल की थी।
गियासबेग के पिता की 1577 ईसवी में मृत्यु हुई, तो उसके परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। उस समय हिंदुस्तान पर अकबर बादशाह का शासन था। अकबर के सुशासन की कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी। गियासबेग ने हिंदुस्तान आकर नौकरी करने का निश्चय किया और पत्नी तथा अपने तीन बच्चों को लेकर वह हिंदुस्तान की ओर चल पड़ा। यह सन् 1578-79 की बात है। रास्ते में गियासबेग को डाकुओं ने लूटा और उसके पास केवल
दो खच्चरों के अलावा कुछ न बचा। इन्हीं पर बारी-बारी से सवारी करके बड़े कष्ट सहते हुए गियासवेग का परिवार कांधार पहुंच गया। कांधार तब हिंदुस्तान की सीमा में था। कांधार में ही गियासबेग की पत्नी ने एक बच्ची को जन्म दिया। इस बच्ची का नाम रखा गया मेहरुन्निसा यानी स्त्रियों में सूर्य। यही मेहरुन्निसा बाद में जहांगीर की बेगम बनकर नूरजहां के नाम से मशहूर हुई।
लेकिन ऐन वक्त पर यदि सहायता नहीं मिलती तो बचपन में ही नूरजहां की जीवन-लीला समाप्त हो जाती। गियासबेग की हालत इतनी दयनीय थी कि उसने अपनी नवजात बच्ची मेहरुन्निसा को रास्ते में ही छोड़ देने का निश्चय कर लिया था। लेकिन ऐन मौके पर भारत की ओर आ रहे मलिक मसूद नाम के एक व्यापारी ने उसकी सहायता की। उसी व्यापारी के साथ गियासबेग अपनी पत्नी और बच्चों सहित फतेहपुर सीकरी पहुंचा। उसी व्यापारी ने गियासबेग का अकबर से परिचय कराया और गियासबेग को अकबर के दरबार में नौकरी मिल गई। गियासबेग अपने पिता की तरह ही विद्वान था। कुशल पत्र-लेखक और मधुर वक्ता होने के कारण दरबार में उसने जल्दी ही सम्मान प्राप्त कर लिया। 1585 में अकबर ने उसे काबुल का दीवान नियुक्त किया।
जिस समय गियासबेग भारत पहुंचा, लगभग उसी समय अलीकुली इस्ताज्लू नाम का एक अन्य ईरानी नौकरी की तलाश में हिंदुस्तान आया था। वह अकबर के एक सेनापति खानखाना की फौज में भर्ती हो गया। बाद में खानखाना ने अकबर से उसका परिचय कराया। इसके तुरंत बाद गियासबेग की लड़की मेहरुन्निसा के साथ अलीकुली का व्याह हुआ। उस समय मेहरुन्निसा की उम्र थी कुल 17 साल। मेहरुन्निसा अपने माता-पिता की तरह गुणी और चतुर थी। उसे चित्र बनाने और कशीदा काढ़ने का शौक था। इसके अलावा, वह फारसी भाषा में कविता भी करती थी।
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अकबर ने 1599 ईसवी में अलीकुली को सलीम यानी जहांगीर के साथ मेवाड़ की चढ़ाई पर भेजा। वहां अलीकुली ने एक बाघ को मारा, इसलिए सलीम ने उन्हें 'शेर-अफगन' यानी बाघ को पछाड़ने वाला, का खिताब दिया। बाद में सलीम ने तख्त पर बैठने पर शेर-अफगन को बंगाल में बर्दवान की जागीर बहाल की। लेकिन वहां वह विद्रोहियों के गुट में मिल गया था। उसे बंदी बनाने के लिए जहांगीर ने अपने एक प्रिय सरदार कुतुबुद्दीन को बर्दवान भेजा। 1607 ईसवी के मार्च महीने में कुतुबुद्दीन ने बर्दवान को घेर लिया। कुतुबुद्दीन और अलीकुली का आमना-सामना हुआ। दोनों आहत हुए। अलीकुली तो उसी समय मर गया।
दूसरे दिन कुतुबुद्दीन भी मर गया। अलीकुली की बेगम मेहरुन्निसा अपनी लड़की लाडिली बेगम के साथ अपने बाप के पास आगरा चली आई। कुछ समय बाद अकबर की एक रानी सुलतान सलीमा बेगम की सेवा में मेहरुन्निसा की नियुक्ति हुई। इसी समय 1611 के मार्च महीने में वसंतोत्सव के प्रसंग में मेहरुन्निसा पर जहांगीर की नजर पड़ी। उसी साल मई महीने में दोनों का ब्याह हुआ। मेहरुन्निसा को पहले नूरमहल और बाद में नूरजहां के नए नाम मिले।
जहांगीर बचपन से ही नूरजहां की ओर आकर्षित था, जहांगीर ने ही नूरजहां के पहले पति की हत्या करवाई, आदि बातें कभी-कभी पढ़ने को मिलती हैं। परंतु ये बातें सच नहीं हैं। डा. वेणीप्रसाद ने अपनी पुस्तक 'जहांगीर' में नूरजहां के आरंभिक जीवन के बारे में खोजपूर्ण जानकारी दी है। जहांगीर अपनी पहली पत्नी से बहुत प्रेम करता था। स्वयं जहांगीर ने लिखा है "उसकी मृत्यु से मुझे इतना अधिक दुख हुआ है कि अब जीवन शुष्क लगने लगा है। चार दिन और रात मैंने न कुछ खाया, न पिया।"
अकबर की मृत्यु 1605 ईसवी के बाद जहांगीर गद्दी पर बैठा। अकबर के सामने ही 15 साल की आयु में आमेर के राजा की कन्या मानबाई से सलीम का पहला ब्याह हुआ था। मानबाई से ही जहांगीर का पहला लड़का खुसरो पैदा हुआ। 1604 में अफीम खाकर मानबाई ने आत्महत्या की थी। सलीम का दूसरा ब्याह 1586 में बीकानेर के राजा की कन्या जोधाबाई से हुआ। खुर्रम उर्फ शाहजहां इसी जोधाबाई का बेटा था। शाहजहां का जन्म लाहौर में 5 जनवरी, 1592 को हुआ था। मानबाई और जोधाबाई के अलावा जहांगीर ने तेरह और औरतों से ब्याह किया। इसमें अंतिम थी-मेहरुन्निसा उर्फ नूरजहां।
1611 ईसवी में जहांगीर की अंतिम मलिका बनने के बाद से, न केवल नूरजहां के जीवन में, बल्कि मुगल-शासन के इतिहास में नए अध्याय का आरंभ होता है। अकबर के दरबार में राजपूतों का बहुत सम्मान था। उन्हें शासन के ऊंचे-ऊंचे पद मिले हुए थे। परंतु जहांगीर के समय से मुगल-शासन में ईरान के शिया परिवारों का बोलबाला होता चला गया। मुगल दरबार में ईरानी प्रभाव को मजबूत बनाने में नूरजहां के परिवार ने सबसे अधिक योग दिया। जहांगीर से शादी होने पर नूरजहां के कुटुंब का फिर से भाग्योदय हुआ। उसका बाप मुख्य वजीर बना और छह हजार की मनसबदारी मिली। 1622 में गियासबेग की मृत्यु होने के बाद उसका दूसरा बेटा यानी नूरजहां का भाई आसफखां बहुत प्रसिद्ध हुआ।
उसका सालाना वेतन चालीस लाख रुपये था और 1642 में मृत्यु के समय उसकी संपत्ति ढाई करोड़ रुपये थी। आसफखां के बेटे मिर्जा अबू तालीब ने औरंगज़ेब के शासनकाल में खूब नाम कमाया। आसफखां की बेटी मुमताज महल शाहजहां से ब्याही थी। इसी मुमताज महल की स्मृति में शाहजहां ने आगरा में ताजमहल का निर्माण किया। जहांगीर और शाहजहां विलासी बादशाह थे, इसीलिए लगभग पचास साल तक नूरजहां के परिवार ने मुगल-शासन को आसानी से अपने कब्जे में रखा।
शादी के बाद जहांगीर पूरी तरह से नूरजहां के कब्जे में आ गया। नूरजहां ने अपने रिश्तेदारों को ऊंची-ऊंची नौकरियां दीं। उसकी मर्जी के बिना किसी को भी जागीर नहीं मिलती थी। सिक्कों पर जहांगीर के साथ उसने अपना नाम भी खुदवाया। सारे फरमानों पर बादशाह के दस्तखत के साथ उसके दस्तखत होते थे। जनानखाने पर तो उसका एकछत्र राज्य था। संक्षेप में कहें तो जहांगीर नाम-मात्र का बादशाह था, असली शासक थी-नूरजहां। स्वयं जहांगीर ने लिखा है "औरत की सच्ची योग्यता मुझे पहले मालूम नहीं थी। नूरजहां से शादी होने के बाद से ही मुझे मालूम हुई। मैंने सारे काम-काज उसके सुपुर्द कर दिए हैं। हर रोज मुझे यदि एक सेर शराब और आधा सेर कबाब मिलता रहे, तो उतने ही से मैं संतुष्ट
जहांगीर ने अन्यत्र लिखा है "रानी की योग्यता का वर्णन करना संभव नहीं है। किसी भी अभाव को वह फौरन दूर कर देती है।" जहांगीर बीमार पड़ता, तो कहता, "वैद्य को क्या अकल है? नूरजहां जैसा चातुर्य और अनुभव उसमें बिल्कुल नहीं है।" नूरजहां ने जहांगीर के स्वच्छंद स्वभाव पर भी काफी अंकुश लगाया। वह दिन में बादशाह को शराब न पीने देती, रात में भी वह उसे सीमा से अधिक न पीने देती।
सभी जानते हैं कि अकबर का काल मुगल-शासन का स्वर्णयुग है। जहांगीर एक सुसंपन्न एवं सुव्यवस्थित राज्य का उत्तराधिकारी बना था। आरम्भ में जहांगीर ने भी खूब दक्षता दिखाई। तख्त पर बैठने के बाद प्रजा के हित के लिए उसने जो बारह फरमान निकाले थे, उनसे उसकी योग्यता का सबूत मिलता है। किसी भी व्यक्ति को बादशाह से उचित न्याय मिले, इसलिए उसने अपने महल के बाहर सोने की जंजीर टांग रखी थी, जिसमें साठ घंटियां बंधी हुई थी। घंटी बजाने पर हर आदमी के लिए बादशाह के सामने अपनी फरियाद पेश करना संभव था।
लेकिन जहांगीर की यह आरंभिक सुव्यवस्था अधिक दिन तक नहीं चली। अपने एक फरमान में उसने देश में शराब बनाने और उसकी बिक्री पर पाबंदी लगा दी थी। किंतु स्वयं जहांगीर शराब के नशे में हमेशा धुत रहता था। शासन की बागडोर नूरजहां को सौंपने पर तो वह और अधिक मनमौजी बन गया। शराब के साथ उसे अफीम का चस्का लग गया। बाद में उसकी ढलती उम्र में जब बेटों में उत्तराधिकारी के लिए कलह मचा, तो वह और अधिक पंगु बन गया। जब तक यह कलह शुरू नहीं हुआ था, तब तक नूरजहां ने भी अपनी योग्यता का खूब परिचय दिया। प्रजा ने भी उसे खूब सराहा।
किंतु बाद में नूरजहां के दुर्गुण उस पर हावी हो गए। जहांगीर के अपनी अन्य बेगमों से चार बेटे थे- खुसरो, खुर्रम (शाहजहां), परवेज़ और शहरयार। जहांगीर के बाद उसकी गद्दी का असली हकदार था, उसका बड़ा बेटा खुसरो। लेकिन जिस प्रकार जहांगीर ने अपने बाप से बगावत की थी, उसी प्रकार जहांगीर के तख्त पर बैठने के बाद खुसरो ने बाप के विरुद्ध बगावत शुरू कर दी। खुसरो बंदी बना लिया गया और उसके साथियों को जहांगीर ने बड़ी निर्दयता से मरवा डाला। बाद में खुसरो के प्रति जहांगीर का दिल नरम पड़ गया था। लेकिन नूरजहां के भाई आसफखां की बेटी मुमताज महल का ब्याह जहांगीर के दूसरे बेटे खुर्रम से हुआ था, इसलिए नूरजहां और आसफखां का यही प्रयत्न रहा कि जहांगीर के बाद खुर्रम ही गद्दी का हकदार बने। नूरजहां ने यह भी कोशिश की कि खुसरो उसकी दूसरी बेटी के साथ शादी कर ले, परंतु खुसरो ने साफ इंकार कर दिया।
खुसरो सहिष्णु स्वभाव का था। राजपूत सरदारों से उसका अच्छा मेल-मिलाप था। अकबर भी यही चाहता था कि उसकी गद्दी का वारिस, खुसरो ही बने। यह भी सच है कि खुसरो यदि जहांगीर के बाद गद्दी पर बैठता, तो मुगल शासन में अकबर की परंपरा टिकी रहती। तब हिंदुस्तान का इतिहास कुछ दूसरा ही होता। शाहजहां के बाद उसका बड़ा बेटा दाराशिकोह यदि गद्दी पर बैठता, तब भी मुगल शासन को एक दूसरी ही दिशा मिलती। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ। नूरजहां और खुर्रम ने खूब प्रयत्न किए कि खुसरो का पत्ता कट जाए। अंत में खानखाना के हुकुम से 1621 में खुसरो का खून कर दिया गया।
जहांगीर का तीसरा बेटा परवेज़ बेहद शराबी और घमंडी था, इसलिए उसके हक में कोई महत्वपूर्ण बात नहीं हुई। चौथा लड़का था शहरयार। नूरजहां ने अपनी बेटी का व्याह शहरयार से भी करने की कोशिश की। इससे वह तीनों बड़े बेटों की दुश्मन बन गई। भाई आसफखां से भी उसकी अनबन हो गई, क्योंकि आसफखां की बेटी मुमताज महल का व्याह खुर्रम से हो चुका था। इसके अलावा, खुर्रम ने खानखाना की नतनी से ब्याह करके इस प्रभावशाली सरदार को भी अपनी ओर मिला लिया था। महावतखान भी इस कलह में शामिल हो गया। खुसरो का खून हो जाने के बाद महावतखान भी नूरजहां के विरुद्ध हो गया।
इस प्रकार मुगल शासन के तीन बड़े सरदार आसफखां, खानखाना और महावतखान नूरजहां के शत्रु बन गए। खुर्रम यानी शाहजहां बहुत चतुर और धूर्त था, इसलिए इस कलह में अंतिम विजय उसी की हुई और जहांगीर के बाद तख्त पर बैठा। व्यसनों में धुत रहने के कारण जहांगीर में अब कोई शक्ति शेष नहीं रह गई थी। नूरजहां की मुट्ठी में वह किसी तरह अपने जीवन के अंतिम दिन काट रहा था। वह अधिकतर लाहौर में रहता और गर्मी के दिनों में कश्मीर चला जाता था।
जहांगीर से ब्याह होने के बाद कुछ साल तक नूरजहां का खूब गौरव बढ़ा। लेकिन उत्तराधिकार के झगड़ों में पड़कर उसने अपना सारा सम्मान खो दिया। बड़े-बड़े सरदार उसके शत्रु बन गए। चूंकि, बादशाह कब्जे में था, इसलिए उसने महावतखान जैसे सरदारों का अपमान करने की भी कोशिश की। अंत में महावतखान ने अपने अपमान का बदला लेने का निश्चय कर लिया। बादशाह की फौज लाहौर से काबुल के लिए रवाना हो रही थी। जहांगीर झेलम नदी पार करके अपनी बेगमों और बच्चों सहित दूसरी तरफ पहुंच चुका था।
इस समय महावतखान ने जहांगीर को घेरकर बंदी बना लिया। लेकिन वह नूरजहां को बंदी नहीं बना सका। वह नौका से दूसरे किनारे पर पहुंच गई। वहां से बादशाही फौज को लेकर वह महावतखान पर चढ़ आई। इस लड़ाई में उसने कमाल का शौर्य दिखाया किंतु राजपूत फौज के सामने उसकी हार हो गई। अतल में महावतखान बादशाह के प्रति वफादार था, इसीलिए पहले उसने नूरजहां और बाद में जहांगीर को भी मुक्त कर दिया।
अब जहांगीर 60 साल का हो रहा था और उसके शासन का यह 22वां साल चल रहा था। सारी सत्ता नूरजहां के हाथ में थी। महावतखान नासिक जाकर खुर्रम के साथ मिल गया था। सन् 1627 ईसवी की बात है। जहांगीर और नूरजहां लाहौर में थे। गर्मी में जहांगीर कश्मीर गया, तो लौटते समय रास्ते में 28 अक्तूबर को उसका देहांत हो गया। पति की मृत्यु होते ही नूरजहां के हाथ की सारी सत्ता बहुत जल्दी लुप्त हो गई। पति के शव को छोड़कर सूतक की अवस्था में वह कुछ कर भी नहीं सकती थी। उधर खुर्रम उर्फ शाहजहां
आगरा पहुंच गया और 5 फरवरी को गद्दी पर बैठा। गद्दी पर बैठने से पहले ही शाहजहां ने शहरयार और खुसरो के बेटों का वध करवा दिया था। पति की मृत्यु के बाद नूरजहां को अपने भाई की बंदिनीं बन कर, एक मामूली औरत के समान दिन बिताने पड़े। यह सही है कि उसके जीवित रहते ही उसके निकट के रिश्तेदार, शाहजहां के शासन में ऊंचे पदों पर आसीन थे। परंतु जहांगीर के बाद भी शासन को अपनी मुट्ठी में रखने के नूरजहां के जो सपने थे, वे पूरे नहीं हो सके। अंत में 1646 ईसवी में 69 साल की वृद्धावस्था में नूरजहां की मृत्यु हो गई। नूरजहां ने शाहजहां के शासन को अपनी आंखों से देखा। उसके सामने ही उसके भाई आसफखां की लड़की और शाहजहां की प्रिय पत्नी मुमताज महल का देहांत 1631 ईसवी में हुआ। उसी के सामने 1643 ईसवी में ताजमहल बनकर पूरा हुआ। उसने औरंगज़ेब को बाप के विरुद्ध बगावत करते हुए भी देखा।
जहांगीर के समय में पहली बार अंग्रेज भारत आए। कैप्टन हाकिन्स और सर टामस रो इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम के दूत बनकर जहांगीर के दरबार में आए थे। अंग्रेज लेखकों ने जहांगीर के दरबार के बारे में विस्तृत वृतांत लिखे हैं। इन वृतांतों से नूरजहां के चरित्र के बारे में भी जानकारी मिलती है। एक अंग्रेज लेखक व्हीलर ने लिखा है "जहांगीर कितना भी क्रूर और व्यसनी क्यों न रहा हो, फिर भी जेम्स प्रथम से नालायक नहीं था। उसकी मलिका नूरजहां और इंग्लैंड की रानी एलिजाबेथ इन दोनों के कृतित्व में काफी साम्य है।
फर्क सिर्फ इतना ही है कि पहली को अपने प्रयासों में असफलता मिली, तो दूसरी को सफलता। नूरजहां के टक्कर की दूसरी समकालीन स्त्री संसार में देखने को नहीं मिलती। उसकी तुलना करने का ख्याल मन में आते ही एलिजाबेथ का स्मरण हो आता है। अपने समय की वह सारे एशिया में ही नहीं, सारी पृथ्वी पर एक महान स्त्री थी, इस बात में कोई संदेह नहीं।"
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