संत रैदास जूते सीकर अपनी रोजी-रोटी चलाते थे। एक बार वे संतों के किसी समागम से जब अपनी दुकान पर लौटे तो उनके एक शिष्य ने शिकायत की, ‘‘गुरुदेव, गऊ घाटवाला रामजतन मुझसे जूते सिलाने आया था। सिलाई के बदले खोटे सिक्के देकर मुझे ठगना चाहता था। मैंने जूते सिलने से मना कर दिया।’’
यह सुनकर संत रैदास ने मुस्कराकर अत्यंत सहज भाव से कहा, ‘‘क्यों नहीं सिल दिए? मुझे तो वह हमेशा ही खोटे सिक्के देता है।’’ शिष्य ने सोचा था कि रैदास कहेंगे कि लौटाकर ठीक किया। लेकिन यह तो उलटी ही बात सुनने को मिली। उसने पूछा, ‘‘गुरुजी, ऐसा क्यों?’’
तब संत रैदास ने उसे समझाया, ‘‘यह सोचकर सिल देता हूँ कि उसे कोई पेरशानी न हो।’’ शिष्य ने पूछा, ‘‘और आप खोटे सिक्कों का क्या करते हैं?’’रैदास ने कहा, ‘‘वत्स, मैं उन्हें जमीन में गाड़ देता हूँ, ताकि कोई और दूसरा उसकी वजह से न ठगा जाए।’’
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2. संतों की संगति
एक बार संत नामदेवजी के सत्संग में गृहस्थ श्यामनाथ अपने पुत्र तात्या को लेकर आए। श्यामनाथजी पक्के धार्मिक और सत्संगी थे, जबकि उनका पुत्र धर्म-कर्म और साधु-संतों क संगत से भी दूर भागता था। श्यामनाथ ने नामदेव को शीश नवाते हुए कहा, ‘‘महाराज, यह मेरा पुत्र तात्या है। सारा दिन कामचोरी और आवारागर्दी में व्यतीत करता है। सत्संग के नाम से भी भागता है। कृपया इसका मार्ग दर्शन कीजिए।’’
यह सुुनकर संत नामदेव उन दोनों को मंदिर के पीछे लंबे-चौड़े दलान में ले गए। वहाँ एक कोने पर एक लालटेन जल रही थी, लेकिन संत उन दोनों को लालटेन से दूर दूसरे अँधेरे कोने में ले गए तो तात्या बोल पड़ा, ‘‘महाराज, यहाँ अँधेरे कोने में क्यों? वहाँ लालटेन के पास चलिए न। वहाँ हमें लालटेन का उचित प्रकाश भी मिलेगा और हम एक-दूसरे को देख भी सकेंगे।’’
यह सुनकर नामदेव मुस्कराते हए बोले, ‘‘पुत्र, तुम्हारे पिता भी तुम्हें रात-दिन यही समझाने में लगे रहते हैं। हमें प्रकाश तो लालटेन के पास जाने से ही मिलता हैं। लेकिन हम अंधकार में ही हाथ-पैर मारते रह जाते हैं। ठीक इसी प्रकार हमें आध्यात्मिक और व्यावहारिक ज्ञान भी संतों की संगति में ही मिलता है। सत्संग हमारे कोरे और मलिन ह्रदयों को चाहिए। संत ही हमारे पथ के दीपक होते हैं।’’ संत नामदेव के सटीक व सहज भाव से दिए गए ज्ञान ने तात्या की आत्मा को भी प्रकाशवान बना दिया।
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3. प्रशंसा और निंदा
एक महात्मा का शिष्य अनेक वर्षों से उनकी सेवा-टहल कर रहा था। वह महात्मा के गुणगान करते न थकता था। लेकिन एक दिन महात्माजी की कोई बात उसे चुभ गई। उस दिन से वह उनका प्रबल विरोधी बन गया। जो पहले दिन-रात उनकी महिमा गाता था, अब हर वक्त निंदा करने लगा। बल्कि महात्मा को बदनाम करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता। निंदा की ये बातें महात्मा जी के कानों तक भी पहुँची, लेकिन वे शांत रहे।
इस पर आश्चर्य जताते हुए एक अन्य शिष्य ने उनसे पूछा, ‘‘गुरुदेव, कल तक तो वह आपका भक्त था, अब वह आपका शत्रु बनकर आपकी घोर निंदा करता है। आप उसकी गलत बातों का खंडन क्यों नहीं करते?’’ महात्मा ने उसकी बात को हँसकर टालते हुए कहा, ‘‘देखो, जैसे प्रशंसा शाश्वत नहीं होती, वैसे ही निंदा भी शाश्वत नहीं होती।
निंदा या प्रशंसा दोनों का ही कोई-न-कोई कारण होता है। अत: इन्हें पाकर हमें हर्ष या शोक नहीं करना चाहिए। और फिर जो भूल एक अज्ञानी करता है, वैसी भूल ज्ञानवान व्यक्ति को नहीं करनी चाहिए। इसीलिए मैं अपने पूर्व शिष्य की बातों का बुरा नहीं मानता।’’महात्मा की ये बातें सुनकर शिष्य का मन शांत हो गया।
4. अतिथि सत्कार
किसी जंगल में एक महात्मा कुटी बनाकर रहते थे। वे बड़े अतिथि-भक्त थे। नित्य-प्रति जो भी पथिक उनकी कुटिया के सामने से गुजरता था, उसे रोककर भोजन दिया करते थे और आदरपूर्वक उसकी सेवा किया करते थे। एक दिन किसी पथिक की प्रतीक्षा करते-करते उन्हें शाम हो गई, लेकिन कोई राही न निकला। उस दिन नियम टूट जाने की आशंका में वे बड़े व्याकुल हो रहे थे कि उन्होंने देखा कि सौ साल का बूढ़ा थका-हारा चला आ रहा है। महात्माजी ने उसे रोका और हाथ-पैर धुलाए, भोजन परोसा।
बूढ़ा बिना भगवान को भोग लगाए और बिना धन्यवाद दिए तत्काल भोजन करने लगा। यह देखकर महात्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ और बूढ़े से इस बात की शंका की। बूढ़े ने कहा, ‘‘मैं तो अग्नि को छोड़कर न किसी ईश्वर को मानता हूँ, न किसी देवता को।’’ महात्माजी उसकी नास्तिकतापूर्ण बातें सुनकर बड़े क्रुद्ध हुए और उसके सामने से भोजन का थाल खींच लिया तथा बिना यह सोचे कि रात में वह इस जंगल में कहाँ जाएगा, कुटी से बाहर कर दिया। बूढ़ा अपनी लकड़ी टेकता हुआ एक ओर चला गया।
रात में महात्मा जी ने स्वप्न देखा। स्वप्न में भगवान कह रहे थे, ‘‘साधु , उस बूढ़े के साथ किए तुम्हारे व्यवहार ने अतिथि सत्कार का सारा पुण्य क्षीण कर दिया।’’ महात्मा ने कहा, ‘‘प्रभु, उसे तो मैंने इसलिए निकाला कि उसने आपका अपमान किया था।’’भगवान बोले, ‘‘ठीक है, वह मेरा नित्य अपमान करता है तो भी मैंने उसे सौ साल तक सहा, लेकिन तुम एक दिन न सह सके।’’ यह कहकर भगवाान अंतर्धा हो गए और महात्मा की आँख खुल गई।
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5. आसान उपाय
एक बार एक डाकू एक संंत के पास आया और बोला, ‘‘महाराज, मैं लूट-मार से पेरशान हो गया हूँ। कोई रास्ता बताइए, जिससे मैं इन बुराइयों से बच सकूँ।’’ संत बोले, ‘‘बुराई करना छोड़ दो, इससे बच जाओगे।’’ डाकू ने उनकी बात मान ली। कुछ दिनों बाद वह फिर लौटकर आया। उसने संत से कहा, ‘‘महाराज, मैंने बुराई छोड़ेन की बहुत कोशिश की, लेकिन छोड़ नहीं पाया। अपनी आदत से मैं लाचार हूँ। मझे कोई और उपाय बताइए।’’
संत ने थोड़ी देर सोचा, फिर बोले, ‘‘अच्छा ऐसा करो कि तुम्हारे मन में जो भी बात उठे, उसे कर डालो, लेकिन अगले दिन उसे दूसरे लोगों से कहा दो।’’संत की बात सुनकर डाकू को बेहद खुशी हुई। उसने सोचा कि अब बेधड़क डाका डालेगा और दूसरों से कह देगा। यह तो बहुत आसान है। वह खुशी-खुशी संत के चरण छूकर घर लौट गया।
कुछ दिन बीते, वह फिर संत के पास आया और बोला, ‘‘महाराज, आपने मुझे जो उपाय बताया था, उसे मैंने बहुत आसान समझा था, लेकिन वह निकला बड़ा मुशिकल। बुरा काम करना जितना कठिन है, उससे कहीं अधिक कठिन है, दूसरों के सामने अपनी बुराइयों को कहाना। मैंने दोनों में से आसान रास्ता चुना है। मैंने डाका डालना ही छोड़ दिया है। ’’
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