मुमुक्षु मेघना जैन ने बताया कि जैन धर्म में दीक्षा लेना यानी सभी भौतिक सुख-सुविधाएं त्यागकर एक सन्यासी का जीवन बिताने के लिए खुद को समर्पित कर देना है। जैन धर्म में इसे ‘समायिक चरित्र‘ या ‘महाभिनिष्क्रमण‘ भी कहा जाता है। दीक्षा समारोह एक कार्यक्रम होता है जिसमें होने वाले रीति रिवाजों के बाद से दीक्षा लेने वाले लड़के साधु और लड़कियां साध्वी बन जाती हैं।
दीक्षा लेने के साथ ही सभी को इन पांच महाव्रतों के पालन के लिए भी समर्पित होना पड़ता है। जिसमें पहला अहिंसा किसी भी जीवित प्राणी को अपने तन, मन या वचन से हानि ना पहुंचाना, दूसरा सत्यः हमेशा सच बोलना और सच का ही साथ देना, तीसरा अस्तेयः किसी दूसरे के सामान पर बुरी नजर ना डालना और लालच से दूर रहना, चैथा ब्रह्मचर्यः अपनी सभी इन्द्रियों पर काबू करना और किसी से साथ भी संबंध ना बनाना और पांचवां अपरिग्रहः जितनी जरुरत है उतना ही अपने पास रखना, जरूरत से ज्यादा संचित ना करना है। दीक्षा लेने के लिए और उसके बाद सभी साधुओं और साध्वियों को अपना घर, कारोबार, महंगे कपड़े, ऐशो-आराम की जिंदगी छोड़कर पूरी तरह से सन्यासी जीवन में डूब जाना पड़ता है।
इस प्रक्रिया का आखिरी चरण पूरा करने के लिए सभी साधुओं और साध्वियों को अपने बाल अपने ही हाथों से नोचकर सिर से अलग करने पड़ते हैं। दीक्षा लेने यानी सन्यासी जीवन में पदार्पण के बाद जैन साधु और साध्वियों का जीवन बहुत संतुलित और अनुशासित हो जाता है। सूर्यास्त के बाद जैन साधु और साध्वियां पानी की एक बूंद और अन्न का एक दाना भी नहीं खाते हैं। सूर्योदय होने के बाद भी ये लोग करीब 48 मिनट का इंतजार करते हैं, उसके बाद ही पानी पीते हैं।
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