Informative Short Story दोपहर के समय एक विद्वान संत कबीर जी के पास आया और बोला, ‘‘महाराज, मैं गृहस्थ बनूँ या साधु?’’ कबीर जी ने सवाल का जवाब दिए बिना अपनी पत्नी से कहा, ‘‘दीपक जलाकर ले आओ।’’ फिर कबीर उस विद्वान को लेकर एक वृद्ध साधु के घर गए और आवाज दी, ‘‘मेहरबानी कर नीचे आ जाइए, मुझे आपके दर्शन करने है।’’ साधु ऊपर से नीचे उतर आए और दर्शन देकर चले गए। वह ऊपर पहुँचे ही थे कि कबीर जी ने फिर पुकारा, ‘‘एक काम है।’’
साधु नीचं आए, तब कबीर जी ने कहा, ‘‘एक सवाल पूछना था, लेकिन भूल गया।’’ साधु मुस्कराते हुए बोले, ‘‘कोई बात नहीं, याद कर लीजिए।’’ यह कहकर वे ऊपर चले गए। कबीर जी ने कई बार उन्हें नीचे बुलाया और वह आए। तब कबीर जी ने विद्वान से कहा, ‘‘अगर इन साधु जैसी क्षमा रख सकते हो तो साधु बन जाओ और यदि मेरी जैसी वितनी स्त्री मिल जाए, जो बिना तर्क किए कि दिन में दीये की क्या जरूरत है, तुम्हारे कहने पर दिन में भी दीया जलाकर ले आए तो गृहस्थ जीवन अच्छा है।’’
2. पद्धति और शिल्प
प्रवचन करते हुए महात्माजी कह रहे थे कि आज का प्राणी मोह-माया के जाल में इस प्रकार जकड़ गया है कि उसे आध्यात्मिक चिंतन के लिए अवकाश नहीं मिलता। प्रवचन समाप्त होते ही एक सज्जन ने प्रश्न किया, ‘‘महाराज, आप ईश्वर संबंधी बातें लोगों को बताते रहते हैं, लेकिन क्या आपने स्वयं कभी ईश्वर के दर्शन किए है?’’ महात्माजी बोले, ‘‘मैं तो प्रतिदिन ईश्वर के दर्शन करता हूँ। तुम भी प्रयास करो तो तुम्हें भी दर्शन हो सकते हैं।’’ वह व्यक्ति बोला, ‘‘महाराज, मैं तो कई वर्षों से पूजा कर रहा हूँ, लेकिन आज तक ईश्वर के दर्शन नहीं कर पाया।’’
महात्मा मुस्कराते हुए बोले, ‘‘ईश्वर को प्राप्त् करना एक पद्धति नहीं, बल्कि एक शिल्प है।’’ उस व्यक्ति ने जिज्ञासा प्रकट की, ‘‘आखिर पद्धति और शिल्प में क्या अंतर है?’’ महात्मा ने समझाते हुए कहा, ‘‘मान लो, तुम्हें कोई मकान या पुल बनवाना है तो उसके लिए तुम्हें किसी वास्तुकार से नक्शा बनवाना पड़ता है, लेकिन तुम उस नक्शे को देखकर मकान या पुल नहीं बनवा सकते, क्योंकि वह नक्शा तुम्हारी समझ से परे है।’’
तुम फिर किसी अभियंता या राज मिस्त्री की शरण में जाते हो। वह नक्शे के आधार पर मकान या पुल बना देता है, क्योंकि वह उस शिल्प को समझता है। नक्शा मात्र एक पद्धति है। ईश्वर के पास पहँुचने का रास्त तो सभी लोग दिखाते हैं, लेकिन शिल्प शायद ही कोई जानता है।
3. शिक्षा और संस्कार
संत तिरुवल्लुवर जहाँ भी जाते, लोगों की भीड़ उन्हें घेर लेती थी और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए उनके प्रवचन सुनती। एक बार किसी नगर में उनका प्रवचन चल रहा था। इसी बीच नगर के एक धनाढ्य सेठ हाथ जोड़कर खड़े हुए, बोले, ‘‘महाराज, मैंने जीवन भर धन एकत्रित किया, यह सोचकर कि मेरा इकलौता बेटा मेरे इस धन से सुखपूर्वक जीवनयापन करेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब वह मेरी खून-पसीने की कमाई को पानी की तरह दुर्व्यसनों में लुटा रहा है। बताइए, मैं क्या करूँ? ’’सेठ की बात सुनकर संत ने पूछा, ‘‘अच्छा तुम यह बताओ, क्या तुमने अपने बेटे को अच्छा-संस्कारवान बनने के लिए शिक्षा दी है?’’
सेठ बोला, ‘‘नहीं महाराज, मुझे तो यह ध्यान ही नहीं रहा। मैं तो बस धन कमाने को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझता रहा।’’ तब संत ने सेठ को समझाया, ‘‘एक पिता का सबसे पहला कर्तव्य है कि वह अपनी संतान को शिक्षा दिलाए और अच्छे संस्कारों से जोड़े। शिक्षा और संस्कार जुड़ गए तो धन तो वह कमा ही लेगा। यदि आज भी तुमने इधर ध्यान दिया तो बेटे का भविष्य तुम्हारे अनुकूल बन सकता है, क्योंकि समय पर उठाया गया सही कदम हमें सही रास्ते की ओर ले जाता है। बाकी ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए।’’
4. श्रेष्ठ कौन?
एक बार एक विरक्त महात्मा जंगल में बैठे भगवान का भजन कर रहे थे। तभी एक कुत्ता वहाँ आया और उनके पास बैठ गया। कुछ देर में उधर से कुछ युवक गुजरे उनमें से एक ने महात्मा से व्यंग्यपूर्ण ढंग से कहा, ‘‘बाबा, आप गाँव भर में घूम-घूमकर माँगकर खाते हैं और निठल्ले रहते हैं, जबकि आपके बराबर में बैठा यह जानवर लोगों का दिया खाता तो जरूर है, मगर बदले में गाँव की चौकीदारी भी करता है। अब आप ही बताएँ कि श्रेष्ठ कौन है?’’
उस युवक की बात सुनकर महात्मा मुस्कराकर बोले, ‘‘वत्स, यदि मैं ईश्वर का भजन करने के साथ-साथ दीन-दुखियों की सेवा करने के लिए भी हर पल तत्पर रहता हूँ, तब तो इस पशु से मैं श्रेष्ठ हूँ और यदि मैं केवल अपने भोग-विलास के लिए ही जीवन जीता हूँ और दीन-दुखियों की सेवा से विमुख रहता हूँ तो निश्चय ही यह मुझसे श्रेष्ठ है।’’ महात्मा के इस विनम्र व स्पष्ट उत्तर ने युवकों का शर्मिंदा कर दिया, उन्होंने भविष्य में बिना सोचे-समझे किसी भद्रजन पर व्यंग्य न करने का संकल्प लिया।
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5. अक्लमंद की पहचान
मुहम्मद जफर सादिक एक महान संत थे। एक दिन उन्होेंन एक व्यक्ति से पूछा, ‘‘अक्लमंद की क्या अलामत है?’’ वह व्यक्ति बोला, ‘‘जो नेकी और बदी में तमीज कर सके।’’ संत सादिक ने इस पर कहा, ‘‘यह काम तो जानवर भी करते हैं, क्योंकि जो उनकी सेवा करते हैं, उन्हें वे नहीं काटते और जो उन्हें कष्ट व नुकसान पहुँचाते हैं, उन्हें वे नहीं छोड़ते।’’ संत की बात सुनकर वह व्यक्ति बोला, ‘‘महाराज, तब आप ही अक्लमंद व्यक्ति की पहचान बताइए।’’
तब संत ने कहा, ‘‘वत्स, अक्लमंद वह है, जो दो अच्छी बातों में यह जान सके कि ज्यादा अच्छी बात कौन-सी है और दो बुरी बातों में यह बता सके कि ज्यादा बुरी बात कौन-सी है? यदि उसे अच्छी बात बोलनी हो तो वह उस बात को कहे, जो ज्यादा अच्छी हो और बुरी बात कहने की लाचारी पैदा हो जाए तो जो कम बुरी है, उसे बताए और बुड़ी बुराई से बचें।’’संत सादिक द्वारा अक्लमंद की दी गई परिभाषा से वह व्यक्ति सहमत हो गया।
7. संत का प्रेम
एक बार एक संत किसी जंगल से गुजर रहे थे। उनके पीछे-पीछे एक आदमी उन्हें गालियाँ देते हुए चला आ रहा था। संत उसे बिना कुछ कहे शांत भाव से अपनी राह चलते रहे। जब जंगल खत्म होने को आया और दूर से बस्ती दिखने लगी तो संत वहीं ठहर गए। फिर प्रेमभाव से उस आदमी से बोले, ‘‘भाई, मैं यहाँ रुका हुआ हूँ। जितना जी चाहे, तू मुझे गालियाँ दे ले।’’ यह सुनकर वह आदमी बड़ा हैरान हुआ। उसने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों?’’ संत बोले, ‘‘ऐसा इसलिए क्योंकि बस्ती के लोग मुझे मानते हैं। यदि उनके सामने तुम मुझे गालियाँ दोगे तो वे सह नहीं पाएँगे, तुम्हारी पिटाई कर सकते हैं।’’
उस आदमी से आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘‘तो इससे आपको क्या?’’ संत ने सहज भाव से समझाया, ‘‘तुम्हें तंग किया जाएगा तो मुझे दु:ख होगा। चार कदम कोई संत के पीछे चले तो संत का ह्रदय उसकी भलाई चाहने लगता है। फिर तू तो काफी समय से मेरे पीछे चला आ रहा है। अत: मुझे तुमसे स्रेह हो गया है।’’ संत की वाणी सुनते ही वह दुष्ट आदमी संत के चरणों में गिर पड़ा और उसने हाथ जोड़कर माफी माँगी। वे संत समर्थ रामदास थे।
8. चार दिन की दुनिया
संत बहलोल जिस राज्य में रहे थे, वहाँ का शासक बेहद लालची और अत्याचारी था। एक बार वर्षा अधिक होने के कारण कब्रिस्तान की मिट्टी बह गई। कब्रों में हड्डियाँ आदि नजर आने लगी। संत बहलोल वहीं बैठकर कुछ हड्डियों को सामने रख उनमें से कुछ तलाश करने लगे। उसी समय बादशाह की सवारी उधर आ निकली। राजा ने संत बहलोल से पूछा, ‘तुम इन मुर्दा हड्डियों में क्या तलाश रहे हो?‘’
संत बहलोल ने कहा, ‘‘राजन्, मेरे और आपके बाप-दादा इस दुनिया से जा चुके हैं। मैं खोज रहा हूँ कि मेरे बाप की खोपड़ी कौन-सी है और आपके अब्बा हुजूर की कौन सी?’’ यह सुनकर बादशाह हँसते हुए बोला, ‘‘क्या नादानों जैसी बातें कर रहे हो? भला मर्दा खोपड़ियों में कुछ फर्क हुआ करता है, जो तुम इन्हें पहचान लोगे।’’
संत बहलोल ने कहा, ‘‘तो फिर हुजूर, चार दिन की झूठी दुनिया की चमक के लिए बड़े लोग मगरूर होकर गरीबों को छोटा क्यों समझते हैं?’’ बहलोल के ये शब्द बादशाह के दिल पर तीर की तरह असर कर गए। बहलोल को धन्यवाद देते हुए उस दिन से बादशाह ने जुल्म करना बंद कर दिया।
9. आध्यात्मिक कमाई
किसी गाँव में दो युवक रहते थे। एक जहाँ सत्संग प्रेमी था, वहीं दूसरे को साधु-संतों पर तनिक भी विश्वास न था। एक दिन गाँव में एक महात्मा आए। सत्संग प्रेमी युवक उनके पास जाने लगा। उसने अपने मित्र से भी चलने को कहा। उसके मित्र ने सोचा कि आज महात्माजी की परीक्षा ली जाए। यह सोचकर वह भी चल पड़ा।महात्माजी के पास पहुँचकर उसने कहा, ‘‘क्यों महाराज, दुनियादारी के कर्तव्य नहीं निभा पाए तो साधु बन गए।
हम संसारी लोगों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, तब जाकर पेट भरता है, जबकि साधु तो मुफ्त का माल खाते हैं।’’यह सुनकर महात्माजी मुस्कराते हुए बोले, ‘‘हम आध्यात्मिक कमाई करते हैं। हम लोगों का जो खाते हैं, उसे उपदेश के रूप में ब्याज सहित लौटा भी देते हैंं। मुफ्त का खाना तो नहीं हुआ।’’ महात्मा की बात सुनकर युवक निरुत्तर हो गया।
10. पहले खुद को सुधारो
एक गाँव में एक ढोंगी बाबा बैठा-बैठा लोगों को प्रवचन देता थ। वह एब ही बात कहता, ‘‘कभी किसी पर क्रोध मत करो।’’ एक दिन एक महात्मा वहाँ से गुजरे। लोगों से बाबा की बात सुन वे स्वयं उनके पास गए और बोले, ‘‘बाबा, मुझे ऐसा सरल सूत्र बताएँ, जिससे मैं हमेशा खुश रहूं। ’’ बाबा बोला, ‘‘बस एक काम करो, कभी किसी पर क्रोध मते करना।’’ महात्मा ने थोड़ा कम सुनने का नाटक किया और पुन: पूछा, ‘‘क्या कहा? मैंने सुना नहीं।’’ बाबा थोड़ा जोर देकर बोला, ‘‘क्रोध मत किया कर।’’
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महात्मा ने पुन: कहा, ‘‘थोड़ा ठीक से एक बार और बताइए।’’ उस महात्मा ने फिर न सुनने का नाठक करते हुए चौथी बार पूछा तो बाबा ने क्रोध में आकर छड़ी उठा ली और उस महात्मा के सिर पर दे मारी। तब महात्मा ने मुस्कराकर कहा, ‘‘जब क्रोध न करना जीवन में शांति और सफलता का मंत्र है, तो फिर आपने मुझ पर क्रोध क्यों किया? पहले आप स्वयं क्रोध से मुक्त हों फिर दूसरों को सिखाएँ।’’ ढोंगी बाबा समझ गया कि उसके सामने कोई सामान्य व्यक्ति नहीं बल्कि एक सिद्ध महात्मा खड़े हैं। वह लज्जित होकर उनके चरणों में गिर पड़ा।
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