सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य, हिन्दी भाषा के विकास में योगदान, डॉ० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, श्री राहुल सांस्कृत्यायन एवं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी पर अपभ्रंश के प्रभाव को दिखलाने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
सर्वप्रथम नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भाग दो में गुलेरीजी ने बहुत जोर देकर कहा नर कि अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी ही मानना चाहिए। अपभ्रंश भाषा के ग्रन्य बहुत समय तक अप्राप्य रहे तथा जर्मन के विद्वान् पिशेल के मतानुसार यह बहुत दिनों तक दुहराया जाता रहा कि अपभ्रंश का साहित्य एकदम खो गया है। 1913-14 ई० में अहमदाबाद जैन मंडार में 'भविष्यत्त-कहा' तथा राजकोट में 'नेमिनाथ धरित' नामक ग्रन्थ जर्मन पं० डॉ० हरमन याकोबी को मिले। फिर तो सन्देश रासक, बज स्वामिचरित्र, चच्चरी, भावनासार, परमात्म प्रकाश, भविष्यत्त कहा, पउमसिरी चरिउ, हरवंश पुराण, जसहरि चरिउ, जायकुमार चरिउ, फरकण्ड चरिउ, पाहुड़ दोहा आदि अनेक अपभ्रंश पुस्तकों का पता जैन ग्रन्थ भंडारों से लगा तथा वे सम्पादित एवं प्रकाशित भी हुई। इनमें से अधिकांशतः अन्ध जैन कवियों द्वारा लिखे गये हैं तथा जैन भंडारों से प्राप्त भी हुए है। जैन धर्म की महिमा गाई जाने पर भी इनका साहित्यिक महत्व कम असर नहीं है। महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन ने इसी महत्त्व को स्वीकार करते हुए स्वयंभू तथा पुष्ययनत की हस्तलिखित पोथियों से कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाओं का संग्रह कर हिन्दी काव्यधारा में प्रकाशित कराया तथा गुलेरीजी के समान ही अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी ही कहा है। हिन्दी साहियकारों और अलोचकों का ध्यान अपभ्रंश साहित्य की और जाना राहुलजी की दृढ़ कण्ठ घोषणा का ही परिणाम था।
'हिन्दी साहित्य की भूमिका' नामक अपनी पुस्तक में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक स्रोत को अविच्छिन्न गति से प्रवाहित होते हुए दिखाकर यह बताने की चेष्टा की है कि अपभ्रंश की अनेक विशेषताओं को परवर्ती हिन्दी साहित्य अपने में धरोहर के रूप में संगठित किए हुए है। अतः हिन्दी भाषा और साहित्य की ओर ध्यान देना आवश्यक है।
'पातंजल महाभाष्य' में अपभ्रंश का प्राचीनतम उल्लेख प्राप्त होता है। शब्द और अपशब्द का विचार करते हुए महामुनि ने विकृत शब्दों के लिए अपभ्रंश का प्रयोग किया है तथा यह भी बताया है कि शब्द कम एवं अपशब्द बहुत है। एक-एक शब्द के अनेक अपभ्रंश हैं। स्पष्ट है कि अपभ्रंश का प्रयोग पतंजलि ने किसी भाषा के लिए नहीं किया। भारत के एक नाट्य सूत्र पर विचार करते हुए अपभ्रंश का सम्बन्ध भाषा-वैज्ञानिकों ने आभीरों की भाषा से जोड़ा है।
इस प्रकार यह विवाद का विषय रहा है कि अपभ्रंश किसे कहें? परन्तु आज यह पूर्णतः स्वीकृत हो चुका है कि ग्यारहवीं शती में एक शिष्ट जन समूह की भाषा थी, उसका साहित्य उच्च कोटि का था। अपभ्रंश काव्य के अन्तर्गत ही हेमचन्द, सिद्ध कवियों एवं जैन कवियों की कृतियाँ आती हैं।
मध्यकालीन अपभ्रंश भाषाओं से ही भारत की आधुनिक भाषाओं में से अधिकांश का सम्बन्ध रहा है। शौरसेनी तथा अर्धमागधी अपभ्रंश के द्वारा ही हिन्दी भाषा का विकास हुआ है। अतः अपभ्रंश का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर होना स्वाभाविक ही है। हिन्दी साहित्य के विभिन्न अंग-कथा साहित्य, काव्य छन्द और काव्य रूप पदि विकासोन्मुख अपभ्रंश के प्रभाव से प्रभावित हुए, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। का एक हिन्दी साहित्य के आदिकाल' में इसी बात पर बल देते हुए डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है "परवर्ती हिन्दी साहित्य के काव्य रूप के अध्ययन में ये पुस्तके बहुत सहायक है।"
अपभ्रंश का प्रभाव हिन्दी के आदि महाकाव्य "पृथ्वीराज रासो" पर स्पष्ट दिखाई देता है। यह चरित काव्य के साथ ही साथ 'रासक' काव्य भी है, क्योंकि उस पर अपभ्रंश के चरित काव्यों एवं रासो काव्यों का भी प्रभाव पड़ा है। संदेशरासक का आरम्म जिस ढंग से हुआ, उसी ढंग से रासो का भी।
अपभ्रंश काज्यों की प्रेम सम्बन्धी सभी काव्य सढ़ियों का समावेश योजनापूर्वक 'रासी' में देखने को मिलता है। कवि ने जिस बाह्य प्रकृति के व्यापारों का वर्णन संदेशरासक में किया है, वह कवि प्रथा के अनुसार 'रासो' के ही समान है। शशिव्रता विवाह के प्रसंग में विरहजन्य दुःख को तीव्र बनाने के लिए रासोकार ने ऋतु-वर्णन का सहारा लिया है। विरह की अनुभूति उसी प्रकार यहाँ भी चित्रित की गयी है जैसे संदेशराक्सक में या ढोला मारूरा दोहा में। तुलसी के रामचरित मानस की रचना शेली व स्वयंभू की 'जैन रामायण' एक-दूसरे से मिलती है।
जैन साहित्य में 'रास' नामक अनेक रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में मिलती है, जैसे श्वेताम्बर साधुकृत 'गौतमरास', धर्म सूरि लिखित 'जंगूस्वामी रास'। इसी प्रकार संदेशरासक नामक अपभ्रंश काव्य भी उच्च कोटि का प्रबन्ध काव्य है। हिन्दी काव्यों के लिए अपभ्रंश के में काव्य रीढ़ के समान रहे हैं। अपभ्रंश के इन्हीं चरित काव्यों के आधार पर हिन्दी के प्रेमाख्यानक कवियों ने अपने प्रेमाख्यानों को लिखा है। यही कारण है कि हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों और अपभ्रंश काव्यों में पर्याप्त साम्य मिलता है। उदाहरण के लिए, हिन्दी के सूफी प्रेमाद्यमानक काव्य-पद्मावत, मधुमालती, मृगावती तथा अपभ्रंश के भविष्यत कहा, जसहरि चरित, करकण्ड चरित आदि में अनेक बातों में समानता देखी जा सकती है- प्रेम कथा में गुण श्रवण या चित्र दर्शन से प्रेम का आरम्भ विवाह से पूर्व नायक के प्रयत्न, सिंपल पात्रा, शुक का संदेश ले जाना, आध्यात्मिक संकेत आदि। आध्यात्मियता के तत्व दोनों में पाये जाते हैं, जिन्हें जनजीवन की प्रेम-लीला के साथ प्रस्तुत किया गया है। निजंघरी कथाओं के प्रयोग सदियों तथा विषय-वस्तु की दृष्टि से अपभ्रंश काव्यों का पर्याप्त प्रभाव हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों पर पड़ा है।
हिन्दी के सन्त-कवियों पर सिद्धों और नाथपंथियों के अपभ्रंश भाषा में लिखित काव्य का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। सिद्धों और नाथों ने अपने काव्य में जिन रूढ़ियों, मान्यताओं एवं छन्दों का प्रयोग किया है, हिन्दी के सन्त कवियों ने भी लगभग उन्हीं रूढ़ियों, मान्यताओं एवं छन्दों को अपने काव्यों ने प्रयुक्त किया है। कबीर आदि सन्तों की रचनाओं में बौद्ध गानों की पद रचना मुखरित हुई है। इसलिए डॉ० हमारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-"वे ही पद, ये ही राग रागनियों, वे ही दोहे, वे ही चौपाइयाँ कबीर आदि ने व्यवहार की है, जो उक्त मत मानने वाल उनके पूर्ववती सन्तों ने की थी ।"
इतना ही नहीं, हिंगल काव्य परम्परा के माध्यम से भी अपभ्रंश का प्रभाव कबीर आदि पर पड़ा है। 'दौला मारूरा शेडा' राजस्थानी भाषा में अत्यन्त ही विकसित एवं समूख काव्य है तथा वियोग एवं संयोग के बड़े ही सुन्दर चित्र इसमें उपलब्य होते हैं। कबीर की साखी में जगह-जगह पर विरह की बड़ी ही मार्मिक व्यंजना देखने को मिलती है। विद्वानों का मत है कि कबीर के दोहे हिंगल काव्य के वर्णन से अत्यधिक प्रभावित है, लेकिन कबीर ने अपनी प्रतिभा से उन्हें साज-सँवार दिया है।
रामकथा पर आधारित जैन अपभ्रंश साहित्य में स्वयंभू रचित 'पऊम चरिउ' एक प्रसिद्ध मान्य ग्रन्य है। उसके आरम्भ में गुरु वंदना के बाद रामकथा को नदी की समता प्रदान की गयी है तथा अपनी अयोग्यता का विनयपूर्वक निवेदन कवि ने किया है। तदुपरान्त उसमें दुर्जनों की बन्दना तथा सज्जनों की प्रशंसा की गयी है। तुलसी के रामचरित पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अपभ्रंश के इस काव्य का प्रभाव अवश्य पहा है, क्योंकि तुलसी ने भी प्रारम्भ में गुरु वन्दना के बाद रामकथा की तुलना दुर्जनों और सज्जनों के सम्बन्ध में लिखकर सरीवर से की है। अपभ्रंश की तरह ही कथान्तररूप में भी पूर्व कथा की योजना तथा श्रोता-पक्ता के कई जोड़े उपस्थित है। केशव की 'रामचन्द्रिका' महाकाव्य तो नहीं, फिर भी वह एक सुन्दर काव्य है। रामचन्द्रिका को विविध छन्दों से मुक्त काव्य स्वयं ही केव
ने कहा है, छन्द परिवर्तन के लिए केशव अपभ्रंश काव्य 'जिन दत्त चरित' के ऋणी है, क्योंकि उसमे भी छन्द परिवर्तन जल्दी-जल्दी ही होता है। सूरदास के गेय पद 'गाथा सप्तसती' से तो कुछ मिलते ही है, साथ ही हेमचन्द्र के दोहों से भी उनके दोहे बहुत कुछ मिलते हैं।
अपभ्रंश लोकगीत परम्परा से मीरा की बाणी बहुत निकट है। अपभ्रंश काव्य के प्रभाव की द्योतक नायक-नायिका भेद तथा अन्य शैलीगत विशेषताएँ हैं। अपभ्रंश के गुणानुवाद प्रधान चरित काव्यों के अनेक लक्षण विद्यापति की 'कीर्तिलता' से मिलते हैं। सारांश यह है कि अपभ्रंड काव्य से चन्दबरदाई से लेकर मीरा तक बहुत-से हिन्दी कवि प्रभावित है। अपभ्रंश के चरिया गीतों का प्रभाव हिन्दी साहित्य के आदि युग ने
वीर गीतों की परम्परा पर है। उस समय के प्रवन्य काम्यों के शृंगारिक अंश अपभ्रंश काव्य के ऋणी है। अपभ्रंश के श्रृंगार काव्यों से मध्य कालीन हिन्दी कविता भी अत्यधिक प्रभावित रही है। अपभ्रंश श्रृंगार काव्यों से हिन्दी का रीति कालीन
श्रृंगारी काव्य जिनमें ग्राम वधूटियों की श्रृंगार चेष्टाएँ, नायिकाओं के क्रिया-कलाप, उनके हदयगत भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति प्रभावित है ।
रीतिकालीन अनेक कवितयों बिहारी, देव, मतिराम आदि की श्रृंगारिक भावनाओं पर तत्कालीन लक्षण प्रन्थों पर 'गाथा सप्तसती' का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। बिहारी सतसई में 'गाथा. सप्तसती' से अनेक स्थलों पर भावसाम्य है।
अपभ्रंश का प्रभाव हिन्दी काव्य का ही विषय नहीं, उनकी रचना-शेली और छन्दों पर भी स्पष्ट देखा जाता है। अपभ्रंश काव्य के शेली की छाया जायसी के 'पद्मावत' का बारहमासा के 'मानस' में देखने को मिलती है। अपभ्रंश के काव्य कहवकबद्ध है। कवि एक पत्ता का ध्रुवक पंझटिका या अरिल्ल छन्द की कई पंक्तियाँ लिखकर देता है। कई पंझटिका, अरिल्ल या ऐसे ही किसी छोटे छन्द को देकर अन्त में पता का ध्रुवक यह कडवक है। इसी कडवक पद्धति को आठ या कुछ कम ज्यादा चौपाइयों के बाद दोहा का पत्ता देकर तुलसी के 'मानस' में स्वीकार किया गया है। तुलसी रामायण के इन कड़वकों को दोहा धत्तक कड़वक कह सकते है, क्योंकि उसमें दोहा छन्द का प्रयोग थत्ता के स्थान पर किया गया है। अवधी के प्रबन्ध काव्यों में दोहा के स्थान पर परवर्ती काल में अन्य छन्दों के रखने की प्रवृत्ति भी मिलती है; जैसे-'अनुराष
बाँसुरी' में नूर मोहम्मद ने दोहा के स्थान पर बरवे का प्रयोग किया है। अपभ्रंश के कई छन्दों का प्रयोग सूर साहित्य में हुआ है, दीनदयाल की कुण्डलियाँ भी अपभ्रंश छन्द की ऋणी है। अपभ्रंश के वर्णन
वृत्तों का सफल प्रयोग रासो ग्रन्थों और केशव की 'रामचन्द्रिका' में हुआ है। अपभ्रंश का दूहा छन्द का परिवर्तित रूप हिन्दी का दोहा छन्द है। अपभ्रंश से ही सोरठा नामक छन्द भी लिया गया है। हिन्दी में चीपाई के रूप में अपभ्रंश का 'अडिल्ल' छन्द प्रयुक्त किया जाता है। जिनो में रोला अपभ्रंश के 'उल्लाला' का परिवर्तित रूप है। इस प्रकार अपभ्रंश से ही हिन्दी के अनेक छन्द लिए गये हैं।
हिन्दी अपभ्रंश की अलंकारों के क्षेत्र में भी ऋणी है। अपभ्रंश की दार्शनिक, बुद्धिवादी परम्परा से ही हिन्दी में प्रस्तुत में अप्रस्तुत विधान करना रूपक के सहारे अथवा सांकेतिक भाषा में नवीन भावों को प्रस्तुत करना लिया गया है। हिन्दी में अपभ्रंश के द्वारा ही ध्वन्यात्দর शब्दों के प्रयोग भी किये गये हैं। अपभ्रंश की अनेक लोकोक्तियों, मुहावरे, कथानक, सढ़ियों आदि भी हिन्दी के कवियों ने ग्रहण की है। इस प्रकार भाव-पक्ष व कला-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से हिन्दी साहित्य अपभ्रंश काव्य से प्रभावित है। अपभ्रंश ने जिस प्रकार संस्कृत से उत्तद्यापेका के रूप में बहुत कुछ पाया, उसी प्रकार हिन्दी ने भी अपभ्रंश से परम्परा के रूप में बहुत कुछ लिया है।
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