आध्यात्मिक कहानियों का सार और शिक्षा spiritual story

Advertisement

6/recent/ticker-posts

आध्यात्मिक कहानियों का सार और शिक्षा spiritual story

 


आध्यात्मिक कहानियों का सार और शिक्षा spiritual story

 

 दक्षिण दिशा के एक जनपद में पाटलिपुत्र नामक नगर था। वहां मणिभ नामक एक सेठ रहता था। पूर्वजन्मों के पापकर्मों के कारण उस सेठ की सारी सम्पत्ति नष् हो गई। इससे वह सेठ अत्यधिक दुःखी रहने लगा। एक रात उस सेठ को स्वप्न पद्मनिधि ने दर्शन देकर कहा कि मैं तुम्हारे पूर्वजों के द्वारा संचित धन पद्मनिधि हूं। कल दिन में मैं तुम्हें दर्शन दूंगा। तब तुम मेरे सिर पर डंडे से प्रहार करना। तब में अक्षय धन बन जाउँगा और तुम्हारा मनोरथ पूरा कर दूंगा।

 

प्रातः काल अपने वचन के अनुसार सेठ के सामने क्षपणक प्रकट हो गया। सेठ ने उसके निर्देशानुसार उसके सिर पर डंडे के द्वारा प्रहार किया। तब वह क्षपणक अत्यधिक स्वर्ण के रूप में परिवर्तित हो गया। तब वह सेठ सुखपूर्वक रहने लगा।

 

एक दिन उस सेठ ने अपने एक सेवक नाई से यह भेद बता दिया। नाई ने सोचा कि किसी भी क्षपणक के सिर पर प्रहार करने से वह धन देता होगा। यह विचार कर उसने अनेक साधुओं को भोजन के लिए घर पर आमन्त्रित किया और घर आए साधुओं को भोजन के लिए घर पर आमन्त्रित किया और घर आए साधुओं के सिर पर डंडे से प्रहार करने लगा। कुछ साधु उसी समय मर गये और कुछ घायल हो गए।

 

जब उस नगर के राजा को नाई के द्वारा की गई साधुओं की हत्या का ज्ञान हुआ तो उसने अपने सिपाहियों के द्वारा उस नाई को पकड़कर कारागार में डाल दिया और अन्त में उसे फांसी की सजा दे दी।

 

शिक्षा -- बिना सोच विचार कर किया गया कार्य अनिष्टकारी होता है।

 

 


 

दूसरी कथा

किसी नगर में एक ब्राह्मण के चार पुत्र रहते थे। उनमें तीन शिक्षित थे परन्तु व्यवहार शून्य थे। चौथा ब्राह्मणपुत्र विद्याशून्य था। परन्तु व्यवहार कुशल था। एक बार वे एक वन में घूम रहे थे। उन्हें एक मृत सिंह का अस्थिपंजर दिखाई पड़ा। उन सभी ने उस जीव को अपनी विद्या के बल पर जीवित करने का निश्चय किया।

 

प्रथम ब्राह्मणकुमार ने अपने विद्याबल से मृत जीव की अस्थियों का संचय किया और ढांचा खड़ा कर दिया। दूसरे ने अपने ज्ञान की सहायता से उस पंजर में चमड़ी व रक्त आदि का निर्माण किया। तीसरा ब्राह्मण कुमार उस मृत जीवित करने का उद्योग करने लगा तो चौथा ब्राह्मण कुमार उसे ऐसा करने से मना करने लगा। वह शास्त्रज्ञान से रहित होते हुए भी बुद्धिमान् था। परन्तु वे सभी उसका उपहास करने लगे।

 

जाने के पश्चात् तब वह ब्राह्मण कुमार शीघ्र एक वृक्ष पर चढ़ गया। उसके वृक्ष प पर चढ़ तृतीय ब्राह्मण कुमार ने मृतसंजीवनी विद्या के प्रयोग से उस मृत शरीर में प्राणों का संचार कर दिया। जीवित होते ही उस शेर ने उन तीनों ब्राह्मण कुमारों को खा लिया।

 

शिक्षा- बिना विचारे किया गया कार्य अहितकर होता है।


लोभाविष्ट चक्रधर कथा का सार

किसी स्थान पर चार ब्रहाण रहते थे। वे अत्यधिक निर्धन थे। धन कमाने की इच्छा से वे दूसरे देश को घूमने चल पड़े। शीघ्र ही वे अवन्ती नगर में पहुँच गये। वहाँ उन्हें एक भैरवानन्द नामक योगी मिला। उसने उन्हें मन्त्रसिद्ध चार वटियाँ देकर कहा कि जहाँ पर एक वटी गिर जाए, वहाँ भूमि को खोद कर धन प्राप्त कर लेना।

 

चारों ब्राह्मणकुमार वटियाँ लेकर चल पड़े। सर्वप्रथम एक वटी गिर पड़ी। उन्होंने वहाँ खोदा तो ताम्बा प्राप्त हुआ। प्रथम ब्राह्मण उस ताम्चे को लेकर वापिस लौट गया तथा तीन आगे चल पड़े।

 

थोड़ा आगे चलने पर दूसरी वटी गिर पड़ी। वहाँ उन्हें अत्यधिक चाँदी प्राप्त हो गई। चाँदी को लेकर दूसरा ब्राह्मण वापिस लौट गया। परन्तु दो ब्राह्मण लालचवश आगे चल पड़े। आगे चलकर एक वटी गिर गई। वहां खोदने पर सोना प्राप्त हुआ। तीसरा व्यक्ति वहीं बैठकर चौथे की प्रतीक्ष्य करने लगा।

 

लालच के वशीभूत होकर चौथा व्यक्ति आगे चल पड़ा। आगे चलकर उसे कुछ प्राप्त न हुआ अपितु वह एक घोर संकट में फंस गया.



लोभाविष्ट चक्रधर कथा का सार

किसी स्थान पर चार ब्रहाण रहते थे। वे अत्यधिक निर्धन थे। धन कमाने की इच्छा से वे दूसरे देश को घूमने चल पड़े। शीघ्र ही वे अवन्ती नगर में पहुँच गये। वहाँ उन्हें एक भैरवानन्द नामक योगी मिला। उसने उन्हें मन्त्रसिद्ध चार वटियाँ देकर कहा कि जहाँ पर एक वटी गिर जाए, वहाँ भूमि को खोद कर धन प्राप्त कर लेना।

 

चारों ब्राह्मणकुमार वटियाँ लेकर चल पड़े। सर्वप्रथम एक वटी गिर पड़ी। उन्होंने वहाँ खोदा तो ताम्बा प्राप्त हुआ। प्रथम ब्राह्मण उस ताम्चे को लेकर वापिस लौट गया तथा तीन आगे चल पड़े।

 

थोड़ा आगे चलने पर दूसरी वटी गिर पड़ी। वहाँ उन्हें अत्यधिक चाँदी प्राप्त हो गई। चाँदी को लेकर दूसरा ब्राह्मण वापिस लौट गया। परन्तु दो ब्राह्मण लालचवश आगे चल पड़े। आगे चलकर एक वटी गिर गई। वहां खोदने पर सोना प्राप्त हुआ। तीसरा व्यक्ति वहीं बैठकर चौथे की प्रतीक्ष्य करने लगा।

 

लालच के वशीभूत होकर चौथा व्यक्ति आगे चल पड़ा। आगे चलकर उसे कुछ प्राप्त न हुआ अपितु वह एक घोर संकट में फंस गया और पश्चाताप

 

मूर्खपण्डित कथा का सार

 

किसी नगर में चार ब्राह्मण पुत्र रहते थे। वे मित्र थे। वे विद्या प्राप्त करने के

 

लिए कन्नौज नगर गये। बारह वर्ष तक घोर परिश्रम करने के पश्चात् उन्होंने सभी शास्त्रों को पढ़ लिया। परन्तु मूलः मूर्ख ही रहे। एक दिन एक शव को लेकर लोग जा रहे थे। उसे देखकर उन्होंने निम्नलिखित श्लोक पढ़ा और उनके साथ चल पढे।

 

'महाजनो येन गतः सःयन्थाः ।'

 

वे सभी श्मशाम पहुँच गये और उन्होनें वहाँ एक गधे को देखा। तब वे कहने गले- श्मशाने यस्तिष्ठति सः बान्धवः । अतः यह गधा हमारा सच्चा मित्र है। तब वे उस गधे को गले मिलने लगे। तब उन्हें एक ऊँट दिखाई पड़ा। वे मूर्ख इष्टं धर्मेण योजयेत्' का पाठ करके गधे को ऊंट के साथ बांध दिया। उन्होंने मूर्खतावश ऊँट को धर्म समझ लिया था क्योंकि उन्होनें धर्मस्य त्वरिता गतिः श्लोक पढ़ था।

 

इसी बीच गधे का स्वामी यह समाचार सुनकर दौड़कर वहाँ आया और उन्हें पीटने लगा। तब वे मूर्ख वहाँ से भाग गये। मार्ग में उन्हें एक नदी मिली उस नदी के जल में चलाश का पता तैर रहा था। उनमें से एक मूर्ख यलाश के पत्ते को पकड़ कर नदी को पार करने लगा तो जल प्रवाह में डूब गया। शेष मूखों ने 'अर्ध त्यजति पण्डितः ।' श्लोक का पाठ करके उस मूर्ख के शिर को काट लिया। इस प्रकारवे सभी मूर्खतावश दुःख पाते रहे।

 

 

 

मेंढ़क की कथा का सार

 

 किसी तालाब में शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि नामक दो मछलियां रहती थी। उसी तालाब में एकबुद्धि नामक मेंढ़क रहता था। वे तीनों परस्पर प्रेम से रहते थे।

 

एक दिन उस तालाब के पास से गुजरते हुए धीवरो ने कहा- 'आज सांझ हो गई है। इस तालाब में अत्यधिक मछलियां है। अतः कल आकर यहां पानी में जाल लगायेंगे। यह सुन कर तीनों मित्र घबरा गये और परस्पर विचार करने लगे।

 

सहस्रबुद्धि मछली ने कहा कि हमें किसी के कथन मात्र पर चिन्तित नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह आवश्यक नहीं है कि कल धीवर अवश्य आयें। शतबुद्धि मछली ने भी उसका समर्थन कर दिया तब मेंढ़क भावी संकट की आशंका से अपने परिवार सहित दूसरे तालाब में चला गया।

 

दूसरे दिन प्रातः काल धीवरों ने आकर तालाब में जाल लगा दिया। सहस्रबुद्धि तथा शतबुद्धि मछलियां अपने परिवार सहित जाल में फंस गई परन्तु मेंढक सकुशल बच गया। शिक्षा अधिक बुद्धि की अपेक्षा निश्चित बुद्धि का होना आवश्यक है।

 

 

 

 

 

 रासभशृगाल-कथा (गधे और गीदड़ की कथा का सार)

 

किसी स्थान पर उद्धत नामक गीदड़ रहता था। वह घास खाने के लिए का में जाता था। वन में उस गधे को एक गीदड मिल गया। उन दोनों की प्रगाढ़ मैत्री हो गई। वे साथ-साथ घास खाते तथा साथ-साथ रहते थे।

 

एक दिन वे दोनों एक खेत में ककड़ी खाने लगे। उद्धत ने गीदड़ से कहा कि तुम मेरा गीत सुनो। मैं सुन्दर गीत गाना चाहता हूं। गीदड ने कहा कि हमें चुपचाप ककड़ी वा लेनी चाहिए। यहां पर गीत गाना उचित नहीं है क्योंकि हमारी आवाज को सुनकर खेत का स्वामी यहां आ जायेगा और हमें लाठी से मारेगा।

 

गधे ने गीदड़ की बात पर क्रोध करते हुए कहा कि तुम जंगली व गंवार हो। इसलिए सगीत के मिठास को नहीं जानते हो। मैं साहित्य व सगीत के मर्म को जानता हूं। अह मैं गीत अवश्य गाऊंगा। उसकी हठ देखकर गीदड़ चुपचाप खेत से बाहर चला गया। तब गई ने अपने कटुस्वर हा गीत गाना शुरू किया। उसकी आवाज को सुनकर खेत का स्वामी दौड़

 

कर वहां आया और लाठी से गधे को अधमरा कर दिया। शिक्षा अनुचित व्यवहार अहितकर होता है।

 

 

 

 मन्थरकौलिक-कथा (मन्थर जुलाहे की कथा का सार)

 

 

किसी स्थान पर मन्थरक नामक जुलाहा रहता था। एक बार उसके औजारका प्राप्त करते समय नष्ट हो गये। मन्थरक वन में गया। उसने एक शीशम के पेड़ को काटने लग उस शीशम के पेड़ पर एक यक्ष रहता था। वह कहने लगा कि इस पेड़ पर मैं सुखपूर्वक विश्राम करता हूं। अतः इसे न काटो । जुलाहे ने यक्ष की बात को काटते हुए कहा कि इस पेड़ को मैं अवश्य काटूंगा क्योंकि इसे काटे बिना मेरे औजार नहीं बन पायेंगे।

 

 

 

यक्ष ने जुलाहे को अभीष्ट वर मांगने के लिए कहा। जुलाहे ने इस विषय में अपने मित्र व पत्नी से विचार विमर्श किया। उत्तके मित्र ने उसे यक्ष से राज्य मांगने के लिए प्रेरित किया और पत्नी ने यक्ष से अतिरिक्त दो हाथ और एक सिर मांगने के लिए कहा। जुलाहे ने यह से अतिरिक्त सिर और हाथ माग लिए। यक्ष ने उसकी इच्छापूर्ति का वर दे दिया और अन्तरि हो गया। अब जुलाहे के दो सिर व चार हाथ हो गये। यह देखकर जुलाहा अत्यधिक प्रसन हो गया परन्तु लोगों ने उसे राक्षस समझ कर पीट-पीट कर मार डाला।

 

शिक्षा - अधिक लोभ नाश का कारण होता है।

 

 

 

 

 

(सोम शर्मा के पिता की कहानी) सोमशर्मपितृ कथा का सार

उत्तर-किसी नगर में एक ब्राहाण रहता था। वह एक भाव से अति कृपण था। वह अपनी भिक्षा में से थोड़ा-थोडा बचा लेता था। इस प्रकार उसने सतुओं से एक घड़ा भर लिया। इसे देखकर वह कल्पना लोक में चला गया।

 

वह सोचने लगा कि आकाल पड़ने पर मेरे सत्तु मंहगे हो जायेंगे तब इन्हें बेचकर एक बकरी से आऊँगा। भैंस का दूध बेचकर एक घोड़ी ले आऊँगा तब अनेक घोड़े बेचने से मुझे सोना प्राप्त हो जायेगा।

 

इस प्रकार मैं धनी हो जाऊँगा। तब कोई ब्राह्मण अपनी सुन्दर कन्या का विवाह मेरे साथ कर देगा। तब मेरे घर में एक पुत्र उत्पन्न होगा। मैं उसका नाम सोमशर्मा रखूंगा। वह बालक अनेक लीलाएँ करेगा। जिन्हें देखकर मै प्रसन्न हूँगा।

 

कभी वह बालक घुटनों के बल रींगता हुआ मेरे पास आने का प्रयास करेगा। मैं अपनी

 

पत्नी के बच्चे को गोद में उठाने के लिए कहूंगा। परन्तु काम में व्यस्त होने के कारण वह

 

मेरी बात न सुनेगी। तब में क्रोध में भर कर उसे लात मारूँगा। इस प्रकार मग्न होकर उस ब्राह्मण ने घड़े पर लात मारी जिससे घड़ा फूट गया और वह पश्चाताप करने लगा।

 

 

 

 

 चन्द्रभूपति-कथा  (चन्द्र नामक राजा की कथा का सार)

 

 

 

किसी नगर में चन्द्र नामक राजा रहता था। उसके पुत्र बन्दरों को भोजन दिया करते थे। बन्दरों का सरदार अत्यधिक बुद्धिमान था। वह सभी बन्दरों को पढाया करता था। राजकुमार भेड़ों की सवारी भी करते थे। उनमें से एक भेडा जीम का लालची था। उसके लालब को देखकर बन्दरों के स्वामी ने सोचा कि यह कभी न कभी हमारे विनाश का कारण बनेगा। अतः उसने सभी बन्दरों को वहां से अन्यत्र चलने के लिए कहा। बन्दरों ने उसकी बात को स्वीकार न किया।

 

एक दिन भेड़े को डराने के उद्देश्य से रसोइये ने जलती लकड़ी के द्वारा उसे मारा। भेड़े के बालों में शीघ्र आग लग गई। तब वह भागा-भागा घुडसाल में प्रवेश कर गया। इस कारण वहां अनेक घोड़े जल गये और अनेक घायल हो गये। उन घायल घोड़ों के उपचार के लिए बन्दरों को मार डाला गया।

 

बन्दरों की हत्या का समाचार पाकर उनका सरदार प्रतिशोध की आग में जलने लगा। एक दिन उसे एक राक्षस मिला। उस राक्षस ने उसे एक रत्नों की माला दी। वह बन्दर वह माला लेकर चन्द्र राजा के पास गया और कहने लगा कि अमुक तालाब में एक गुप्त खजाना है। इस प्रकार राजा उसके प्रलोभन में आकर परिवार सहित तालाब में घुस गया। तब वह

 

राक्षस उन सभी को खा गया। शिक्षा बुराई का अन्त बुरा ही होता है।

 

 

 

 

(राक्षस तथा बन्दर की कहानी का सार) विकाल-वानर-कथा का सार लिखिए।

 

उत्तर-किसी नगर में भद्रसेन नामक राजा रहता था। उसकी कन्या का नाम रत्नवती था। एक राक्षस रात में आकर उस कन्या से सहवास करता और उसका अपहरण करने का प्रयास करता था।

 

एक दिन एक अन्य राक्षस उस कन्या के अपहरण के लिए आया। वह घोड़े का रूप धारण करके घोड़ों के बीच बैठ गया। तब आधी रात के समय राजमहल में कोई चोर घुत्त गया। वह घोड़े के रूप में जो राक्षस था उस पर चढ़ गया। चोर ने उसके मुंह में लगाम डालने की चेष्टा की परन्तु उस राक्षस ने उसका कहना मानने से मना कर दिया। चोर ने उसकी पिटाई कर दी। घोड़ा तीव्र गति से भागने लगा।

 

मार्ग में वह चोर एक पीपल की टहनी से लटक गया। उस वृक्ष पर राक्षस का मित्र एक बन्दर रहता था। बन्दर ने सारा भेद खोलते हुए कहा कि यह तो मनुष्य है जिसे तुन खाने में समर्थ हो। ऐसा सुनते ही चोर ने प्रतिशोध स्वरूप बन्दर की पूंछ दातों से चबा डाली। ऐसा देखकर डरकर राक्षस भी वहां से भाग गया।

 

शिक्षा - बुद्धि मनुष्य का सबसे बड़ा बल है।

 

 

(भारुण्ड नामक पक्षी की कहानी)   मारुण्डपक्षि कथा का सार

 

किसी तालाब मे एक 'भारुण्ड' नामक पक्षी रहता था। वह एक विलक्षण था। उसके दो शिर तथा एक पेट थे। वह एक बार समुद्र तट पर घूम रहा था। उसे वहाँ अ के समान मीठा फल मिला। जब वह उस फल को खाने लगा तो एक मुख ने कहा- आज तक ऐसा फल नहीं खाया है। दूसरे ने कहा- थोड़ा मुझे भी दे दो।

 

पहले शिर ने कहा कि हमारा पेट एक ही है। अत फल को मैं ही खाऊँगा। इस तुम्हारी भी सन्तुष्टि हो जायेगी। अतः हमें यह फल अलग अलग नहीं खाना चाहिए। ऐस कहकर उसने उस फल को खा लिया तथा शेष फल अपनी पत्नी भारुण्डी को दे दिया। उन फल के स्वाद से तृप्त होकर उसकी पत्नी उस एक मुख के प्रति अधिक आकर्षित हो ग जिससे दूसरा मुख अप्रसन्न रहने लगा।

 

एक दिन दूसरे मुख को एक जहरीला फल प्राप्त हो गया। वह उसे खाने लगा त पहला मुख कहने लगा- यह जहरीला फल है। इसे मत खाना। परन्तु दूसरा मुख पहले मुख से बदला लेना चाहता था। अतः वह उस फल को खा गया। उस फल के खाने से वे दोनों नष्ट हो गये।

 

स्वार्थ मनुष्य का अहित करता है।

 

 

(ब्रह्मदत्त तथा केंकड़े की कथा) ब्रह्मदत्तकर्कटक-कथा का सार

 

 किसी स्थान पर ब्रह्मदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था। एक दिन वह किसी दूसरे गांव जा रहा था। उसकी मां ने उसे अकेला जान एक केकड़ा उसके साथ भेज दिया। उसने मां के कथन के अनुसार उस केंकड़े को साथ ले लिया और उसे एक कपूर की थैली में रख लिया।

 

रास्ते में ब्रह्मदत्त एक वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहा था तो उसे नीद आ गई। इसी बीच एक सर्प वहां आया। कपूर से आकर्षित होकर साप ने उस थैली को फाड़ कर खाना प्रारम्भ कर दिया। तब केंकडे ने उस सर्प को मार डाला।

 

तत्पश्चात् उस ब्राह्मण की आंख खुली तो देखता है कि एक सर्प पास में मरा पड़ा है। शीघ्र ही सारी बात उस ब्राह्मण की समझ में आ गई। वह ब्राहाण प्रसन्न होकर कहने लख कि मेरी मां ने उचित ही कहा था कि अकेले मार्ग में नहीं जाना चाहिए। शिक्षा कभी-कभी दुष्ट व्यक्ति भी हितकर सिद्ध होता है।

 

 

 

 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ