रीतिकाल की प्रमुख विशेषताए, रीतिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ Riti kalin kavya
1. लक्षण ग्रन्यों का निर्माण-संस्कृत में रीति साहित्य का पर्याप्त विकास हो चुका था। भामह, उद्भट, मम्मट, विश्वानाथ, पंडित राज जगन्नाथ आदि ने काव्यांगों का विस्तृत विवेचन किया था। हिन्दी के रीति कवियों के आधार ग्रन्थ थे-मम्मट का काव्य प्रकाश, जयदेव का चन्द्रालोक, विश्वनाथ का साहित्य दर्पण।
कवियों के काव्य में श्रृंगार रस की प्रधानता रही। साथ ही अलंकार, ध्वनि आदि के सम्बन्ध में भी काव्य रचना हुई। कुछ कवियों ने नायक-नायिका भेद, नख-शिख तथा ऋतु वर्णन लिखकर उनके उदाहरण भी कविता में लिखे। इन कवियों की काव्य निधि में मौलिकता का अभाव है। डॉ० भगीरथ के शब्दों में- 'वास्तविक तथ्य तो यह है कि इन हिन्दी लक्षणाकारों या रीतिग्रन्थकारों के सामने कोई वास्तविक काव्यशास्त्रीय समस्या नहीं थी। इनका उद्देश्य विद्वानों के लिए काव्य शास्त्र के ग्रन्थों का निर्माण नहीं था। वरन् कवियों और साहित्य-रसिकों को काव्य शास्त्र के विषयों से परिचित कराना था। संस्कृत के आचार्यों की परिपाटी यह नहीं बन पाई थी कि वे अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के विचारों का खण्डन या मण्डन करके किसी सिद्धान्त या काव्यादर्श को आगे बढ़ाते। अतः यह तथ्य है कि हिन्दी काव्य शास्त्र या रीति ग्रन्थों के द्वारा भारतीय काव्य शास्त्र का कोई महत्त्वपूर्ण विकास नहीं हो पाया। फिर भी काव्य क्षेत्र में और हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों के अध्ययन में इस प्रकार के काव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस परम्परा को लेकर लिखे गये ग्रन्थों की संख्या भी बहुत बड़ी थी।'
2. श्रृंगारिकता-श्रृंगार-वर्णन
रीति काव्य का प्रमुख प्रतिपाद्य रहा है। इस काल में भक्तों के ल्या कृष्ण
श्रृंगार कवियों के हाथों में पड़कर साधारण विलासी नायक-नायिका मात्र रह गए। लौकिक
श्रृंगार की यह भावना तीन कारणों से आई है।
1. संस्कृत के स्रोत
साहित्य में वर्णित श्रृंगारिकता, जयदेव के गीत
गोविन्द, विद्यापति की पाक्ली और
सूरदास आदि कृष्ण भक्त कवियों की श्रृंगारपरक भक्ति का प्रभाव। एक आलोचक कथनानुसार
"भक्ति और श्रृंगार का यह सम्मिश्रण भक्तों के लिए तो आध्यात्मिक अनुभूति
प्रदान करने
में समर्थ था
किन्तु जनसाधारण के लिए यह कोरा श्रृंगार था।"
2. संस्कृत के
सप्तशती साहित्य का प्रभाव-आर्यासप्तशती और अमरूकशतक में जीवन के एक चित्रणों ने
भी रीतिकालीन हिन्दी कवियों को प्रेरित किया।
कामशास्त्र का
प्रभाव-नायिका-भेद तथा कामक्रीड़ा आदि के अनेक चित्रों में भी रीतिकवियों कार
प्रेरित किया। वास्तव में 'सोचा जाये जैसा
भी हो रहा हो, इसी दली
श्रृंगारिकता हो।' नाने सुगार के
संयोग और वियोग दोनों रूपों का विशदू वर्णन किया। संयोग वर्णनों में लक्ष्मी
प्रभाकर गाइड एवं गैस पेफा
सुरत, विपरीत रति, हास परिहास का वर्णन करते हुए हिंडोला, तीज, त्यौहार, पावस आदि का भी
वर्णन किया गया है।
इन कवियों ने
वियोग-वर्णन में परम्परागत रूप से ऋतुवर्णन भी किया है, उसके किसा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को नहीं अपनाया गया।
वियोग के वर्णनों में पूर्व राग, मान, प्रवास और करुण का विस्तृत विवेचन किया गया।
बाबू श्याम सुन्दर दास ने इन्हीं कवियों की सृष्टि का मनोमुग्ध कारिणी कहा है।
वास्तव में इन सौन्दर्योपासक प्रेमी कवियों का वर्णन काफी स्वस्थ और मनोरम है।
3. आलंकारिकता-रीति
युग में उचित चमत्कार के द्वारा श्रोता को प्रभावित करने की प्रवृत्ति काफी जोर
पकड़ने लगी थी। विलासी राजाओं में मनोरंजन को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए कवि गण
कल्पना की उड़ान, वाग्वैदग्ध्य,
चमत्कार प्रियता से फारसी और संस्कृत के
साहित्य की भाँति कुछ ऐसे ढंग से कहते थे श्रोता वाह-वाह कर उठें। कवियों ने काव्य
की आत्मा 'रस' को छोड़कर अपनी रचना को अलंकृत करने के लिए
नवीन ढंग अपनाए। डॉ० रमाशंकर रसाल ने इसीलिए इसे 'कालकाल' कहा है। कवियों
के काव्य में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत विधान भाव प्रेषणीयता, गहनता और तरलता के लिए अलंकरण को अपनाया गया। कवियों ने
शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है। बिहारी और केशव की कविता
में ऊहात्मक प्रयोग मिलते हैं। केशव तो अलंकारों के मोह में इतने ग्रस्त थे कि
उन्होंने अपने इष्टदेव राम की तुलना उलूक से कर डाली ("बासर की संपदा उलूक
ज्यों न चितवत") तथा ग्रामीण वालाओं से श्लेष अलंकार में वार्तालाप कराने
लगे। कहीं-कहीं तो इन कवियों की अलंकार बोझिल कविता हास्यास्पद हो गई है और
कहीं-कहीं चमत्कार
प्रदर्शन के लोभ
में काव्य का भाव पक्ष दब गया है।
4. ब्रजभाषा की
प्रधानता-वज्रभाषा इस युग की प्रमुख साहित्यिक भाषा थी। आलंकारिकता प्रधान युग में
भाषा को सजीव और श्रृंगार के सम्बन्ध में कवि को विशेष सतर्कता के साथ काम लेना
पड़ा है। ब्रजभाषा स्वभावतः प्रकृति के मधुर तथा कोमल रसों की अभिव्यक्ति में
सक्षम है। डॉ० नगेन्द्र इस काल के कवि की भाषा में लिखते हैं- भाषा के प्रयोग में
इन कवियों ने एक खास नाजुक मिजाजी बरती है। इनके काव्य में किसी भी ऐसे शब्द की
गुंजाइश नहीं, जिसमें माधुर्य
नहीं है जो माधुर्य गुण के अनुकूल न हो। अक्षरों के गुम्फन में इन्होंने कभी भी
त्रुटि नहीं की।। के रेशमी तारों में इनके शब्द माणिक्य मोती की तरह मुंथे हुए
हैं।" संगीत
मध्यकाल व्रजभाषा
का परमोन्नति का काल है। ब्रजभाषा की मधुरता के कारण हिन्दी में मुसलमान कवियों ने
इसी भाषा का प्रयोग किया। इसमें अवधी, राजस्थानी, फारसी के शब्दों
का समावेश हुआ।
5. नारी
चित्रण-रीतिकाल कवियों की दृष्टि से नारी एकमात्र भोग विलास का उपकरण थी। उनके
सामने नारी का एक ही रूप था और यह था विलासिनी प्रेमिका का। वे केवल नारी के
शारीरिक सौन्दर्य पर रीझते रहे 'तनि तीरथ हरि
राधिका तन दुति करि अनुराग' । ऐसे लगता है कि
मानो बासना ही उनके जीवन का छाना-पाना, ओढ़ना-विछीना सब कुछ है। डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-"यहीं
नारी कोई व्यक्ति वा समाज के संगठन में इकाई नहीं है, बल्कि सब प्रकार की विशेषताओं के बन्धन से यथासम्भव मुक्त
विलास का एक उपकरण मात्र है। देव ने कहा है
"कोन गर्ने पुर वन
नगर कामिनी एक रीति, देखत हरे विवेक
को पित हरे की प्रीति।"
6. प्रकृति-चित्रण-रीतिकाव्य
में प्रकृति का चित्रण आलम्बन और उद्दीपन दीनों रूपों में हुआ है। प्रकृति चित्रण
नायक और नायिका की मानसिक दशा के अनुकूल ही किया गया है। प्रकृति के उद्दीपन रूप
का चित्रण पडू ऋतु और बारहमासे की पद्धति पर हुआ है। संयोग की दशा में प्रकृति का
खिला हुआ उन्मादकारी रूप है और वियोग की दशा में उसका त्रासदायक उद्दीपन करने वाला
रूप है। इस काव्य में स्वतंत्र प्रकृति चित्रण का अभाव है। रीतिकाव्य में प्रकृति
के संश्लिष्ट चित्र नहीं मिलते। प्रकृति चित्रण सम्बन्धी इनके दृष्टिकोण का परिचय
केशव के निम्न शब्दों में भली-भाँति मिल जाता है- "ताते मुख मुखे न कमलौ न
चन्द री।"
7. काव्य रूप-इस युग
का सम्पूर्ण काव्य अधिकतर मुक्तक के रूप में रचा गया क्योंकि उस युग के राजाओं और
रईसों की रसिकता की वृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए मुक्तक काव्य की शैली ही
सर्वचा उपयुक्त थी, इससे मौलिकता का
हास हुआ। इन कवियों ने जीवन के सर्वांगीण चित्रण को प्रधानता नहीं दी केवल केशव की
रामचन्द्रिका जैसे ग्रन्थों में कथा को प्रवन्ध रूप में बाँधने की चेष्टा की गई
थी।
8. भक्ति भाव-रीति
काव्य में भक्ति और नीति सम्बन्धी रचनायें भी मिलती हैं। राम, शिव, दुर्गा, गंगा, राधाकृष्ण आदि देवी-देवताओं की स्तुति इन्होंने
बड़े भक्ति-भाव से की है किन्तु इनकी भक्ति में भी प्रदर्शन का रूप अधिक था यथा-
"आगे के सुकवि
रीझि हैं तो कविताई,
9. वीर काव्य-यह वह
समय था जब मुसलमानी शासन के विरुद्ध मराठे, हिन्दू और सिक्ख राजा विद्रोह करने लगे थे, मुसलमानों के अत्याचारों का विरोध करने के लिए
दक्षिण में शिवाजी, पंजाब में गुरु
गोविन्दसिंह, राजस्थान में
महाराणा राजसिंह और जसवन्त सिंह का सेनापति दुर्गादास तया मध्य प्रदेश में छत्रसाल
जैसे बीर उठ खड़े हुए। भूपण, सूदन, वोधा लाल आदि कवियों ने अपनी जओजस्वी भाषा में
वीर रसात्मक काव्य की सृष्टि की। उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता का स्वर प्रधान है।
रीतिकाल की
उपर्युक्त विशेषताओं के विवेचन से यह स्पष्ट है कि इस काल के कवियों ने जीवन और
यौवन के वास्तविक और रमणीय स्वरूप का चित्रण किया है। डॉ० भागीरथ के शब्दों में
"ऐसे लगता है कि रीति कविता के रचयिता यौवन और बसन्त के कवि हैं। जीवन का
फलता हुआ सुन्दर रूप ही उन्हें प्रिय है।" संक्षेप में हम कह सकते हैं कि यह
रीति-काल शास्त्र की दृष्टि से बाहे महत्त्वपूर्ण न हो कवित्व की दृष्टि से बड़ा
मनोरम है। इस काव्य का साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्त्व निश्चित है।
रीतिकाल का प्रवर्तक आप किसे मानते हैं? केशव को या चिन्तामणि को।
आचार्य शुक्ल ने चिन्तामणि को रीतिकाल का प्रवर्तक माना है। वे केशव को रीतिकाल का प्रवर्तक स्वीकार नहीं करते। इस विषय में वे कहते हैं- 'इसमें सन्देह नहीं कि काव्य रीति का अप्प समावेश पहले-पहल आचार्य केशव ने ही किया था, पर हिन्दी में रीति ग्रन्थों का अविरल और अखण्डित परम्परा का प्रवाह केशव की 'कविप्रिया' के पचास वर्ष पीछे चला और वह भी एक आदर्श को लेकर, केशव के आदर्श का नहीं।' आचार्य शुक्ल केशव को अलंकारवादी मानते हैं। उनके मत में चमका केही केशव का आदर्श था। 'भूषण विनु न विराजई कविता वनिता मित्त नतंवृति के कारण केशव में आमह, दण्डी आदि अलकारवादियों का अनुकरण किया है, साहित्य कोन्नत करने वाले आनन्दवर्धन एवं विश्वनाथ का नहीं।
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