भारत की नारियां : पन्ना धाय Indian woman Panna Dhay

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भारत की नारियां : पन्ना धाय Indian woman Panna Dhay

 


 भारत की नारियां :  पन्ना धाय  Indian woman Panna Dhay 

अब से चार सौ साल पुरानी कहानी है। उस समय दिल्ली में मुगल बादशाह हुमायूं का शासन था। राजस्थान की अलग-अलग रियासतों में राजपूतों का शासन था। राजपूतों की वीरता से तो इतिहास के पन्ने आज भी जगमगा रहे हैं। ऐसे ही जगमगाते पृष्ठों पर पन्ना धाय की कहानी लिखी हुई है।

 

उस समय चित्तौड़ पर विक्रमाजीत सिंह का शासन था। ये महाराणा संग्राम सिंह सांगा के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराणा सांगा की वीरता से भला कौन परिचित न होगा ? लेकिन उनका पुत्र विक्रमाजीत सिंह अपने पिता के गुणों के बिल्कुल विपरीत था। वह ऐय्याश तबियत का 



उधर बनवीर राज्य का शासन ठीक से चला रहा था। उसने शासन के सारे दांव-पेंच सीख लिए थे। सभी उसकी आज्ञा मानते थे। इससे उसके मन में धीरे-धीरे शासन के प्रति लोभ बढ़ने लगा। वह सोचने लगा कि क्यों न वही उस राज्य का राजा बन जाए? आखिर उसमें किस बात की कमी है ? बस रास्ते के दो कांटे ही तो साफ करने होंगे।

 

और यह सोचते ही उसकी आंखों के सामने दोनों कांटों की सूरतें उभर आतीं- एक थी विक्रमाजीत सिंह की और दूसरी उदय सिंह की। उसने मन ही मन इन दोनों की हत्या करने का निश्चय किया। लेकिन यह काम उसने किसी और से कराने का नहीं बल्कि स्वयं करने का निश्चय किया।

 

बस, एक दिन अवसर देखकर बनवीर ने तलवार उठाई और सीधे विक्रमाजीत सिंह के कमरे में जाकर उसके दो टुकड़े कर दिए। विक्रमाजीत सिंह का नौकर उसके इस कार्य को देख रहा था। उसने पल भर में बनवीर की नीयत समझ ली। वह तुरंत वहां से भाग कर सीधे पन्ना के पास आया।

 

रात हो चुकी थी। पन्ना कुंवर उदय सिंह के कमरे में सो रही थी। उदय सिंह ऊपर पलंग पर सोया हुआ था और नीचे पन्ना तथा उसका पुत्र वण्या सोए थे। नौकर ने आने ही पन्ना को झकझोर कर जगा दिया। उसने विक्रमाजीत सिंह की हत्या का समाचार सुनाते हुए कहा "लगता है उस नीच के मन में राज्य हड़पने की बात आ गई है। उसने एक कांटा तो साफ कर दिया है। अब यह हो सकता है उदय सिंह पर भी

 

"शी....है....है...." कहते हुए पन्ना ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया, "ऐसे अपशकुन भरे शब्द मत बोलो।"

 

"लेकिन अब करना क्या है, यह बताओ?"

 

"बताती हूं। चित्तौड़ के राजवंश पर में आंच नहीं आने दूंगी। जब तक पन्ना धाय जिंदा है, उदय सिंह पर कोई आंख नहीं उठा सकता।"

 

"यह तो ठीक है। पर जो कुछ करना है, जल्दी करो। समय बहुत कम है।"

 

"हूं।"-कुछ सोचते हुए पन्ना ने कहा- "तुम उदय सिंह को उठाओ और एक टोकरी में छिपाकर फौरन नदी के उस पार हो जाओ। वहां मेरा इंतजार करना। में इधर संभाल लूंगी।" यह कहकर उसने उदय सिंह को अपने बेटे की पोशाक और टोपी पहना दी।

 

नौकर तुरंत उदय सिंह को लेकर कमरे से बाहर चला गया। इधर पन्ना ने अपने वण्या पर एक बार प्यार भरी दृष्टि डाली। आखिर यह उसकी मां थी। जैसे ही उसे मन का निश्वाद याद आया तो उसकी आंखें छलछला आई। लेकिन तभी उसके मन ने कहा-जल्दी कर पन्ना ! यह वक्त ममता का नहीं, दृढ़ता और बलिदान का है। तुझे आज चित्तौड़ के राजवंश की रक्षा के लिए अपने बेटे का बलिदान करना है।

 

पन्ना ने एक क्षण में ही अपने हृदय को पत्थर बना लिया। उसने बड़ी तत्परता से पप्पा को उठाकर उदय सिंह के बिस्तर पर लिटा दिया। सिर पर उदय सिंह की टोपी और गले में हार पहना दिया। ऊपर से उसे चादर ओढ़ा दी।

 

दूसरे ही क्षण सीढ़ियों पर किसी के आने की आहट हुई।

 

"कौन है ?' पन्ना ने कड़क कर पूछा।

 

 

"मैं हूं-चित्तौड़ का राजा बनवीर।" वह जोर से ठहाका लगा कर हंस रहा था। उसके हाथ में खून से डूबी तलवार थी। पन्ना को लगा जैसे साक्षात राक्षस खड़ा है। उसका जी चाहा कि वह झपटकर उसका मुंह नोंच ले। लेकिन तभी ख्याल आया कि अगर उसे कुछ हो गया तो उदय सिंह की रक्षा कौन करेगा?

 

"कहां है उदय सिंह ?" बनवीर ने दहाड़ते हुए पूछा।

 

बेटे की ममता और कर्तव्य की तराजू पर बैठी पन्ना एक शब्द भी न बोल सकी। फटी-फटी आंखों से बनवीर को देखते हुए उसने उंगली से इशारा कर दिया। बनवीर झपटा। तलवार चली। एक नन्हीं चीख निकली और सब कुछ ठंडा हो गया।

 

दीवार की ओर मुंह किए पन्ना विकल होकर रो रही थी। बनवीर ने अपना काम किया और चला गया। पन्ना काफी देर तक रोती रही। फिर उसने बप्पा को कपड़े में लपेटा और महल से बाहर आई।

 

पन्ना ने नदी के किनारे पहुंच कर लाश को पानी में बहा दिया और उदय सिंह की रक्षा के लिए नदी के उस पार गई। उस समय उसके मन में अपने पुत्र के बलिदान का दुख न था, बल्कि उदय सिंह की रक्षा का दृढ़ संकल्प था।

 

वह उदय सिंह को लेकर रातों-रात चित्तौड़ की सीमा से बाहर हो गई। वह अब कोई ऐसा स्थान खोजने लगी जहां उदय सिंह को छिपाकर रख सके। लेकिन बनवीर के डर से कोई तैयार न हुआ। अंत में मेवाड़ के एक सरदार ने उन्हें अपने यहां शरण दी।

 

जब उदय सिंह बड़े हो गए तो लोगों को पता लगा कि अभी राणा संग्राम सिंह का वंश जीवित है। वे उन्हें बहुत सम्मान के साथ चित्तौड़ लाए और सिंहासन पर बिठाया। पन्ना यह देखकर अपने को धन्य समझने लगी। वह अपने बेटे का बलिदान करके भी खुश थी, क्योंकि उसने राज्य की रक्षा के लिए एक वीर मां का कर्तव्य पूरा किया था। उदय सिंह उसका बहुत सम्मान करते थे। पन्ना को उन्होंने माता से भी अधिक सम्मान दिया।

 

धन्य है पन्ना जैसी वीर मां, जिसने अपने पुत्र का बलिदान करके अपना कर्तव्य निभाया। आज भी चित्तौड़ में पन्ना धाय के इस बलिदान की कहानी माताएं गर्व के साथ अपने बच्चों को सुनाती हैं।

था। स्वभाव और कर्मों से अत्याचारी था। उसके अत्याचारों और अन्यायपूर्ण कार्यों से लोग बहुत दुखी थे। उसे सेना का संगठन करना भी न आता था, उल्टे उसने सैनिकों को परेशान कर रखा था, जिससे सेना भी उसके विरुद्ध हो गई थी। अतः जय विरोध बहुत बढ़ गया तो उन्हें गद्दी से उतार दिया गया।

 

अब समस्या यह थी कि राज्य का शासन-भार कौन संभाले? राणा संग्राम सिंह का छोटा बेटा उदय सिंह अभी बहुत छोटा था। उसे गद्दी पर नहीं बिठाया जा सकता था। इसलिए अंत में यह तय हुआ कि जब तक उदय सिंह बड़ा नहीं होता, राज-काज चाचा बनवीर संभालें। बनवीर वास्तविक चाचा न था। किंतु वह राणा संग्राम सिंह के दरबार में बहुत दिनों से था।

 

उदय सिंह की माता का भी देहांत हो जाने के कारण उनकी देख-रेख पन्ना नाम की एक धाय किया करती थी। पन्ना खीची नामक राजपूत वंश की क्षत्राणी थी। वह बहुत पवित्र आचरण वाली वीर महिला थी। स्वभाव की अत्यंत मधुर और कोमल थी। किंतु उसकी नसों में वीरता का रक्त भी प्रवाहित था। उसका एक पुत्र था। नाम था बप्पा। बप्पा देखने में बहुत सुंदर था। बिल्कुल राजकुमारों जैसा लगता था। उदय सिंह की उससे बहुत मित्रता थी। 



दोनों लगभग एक ही उम्र के थे। दोनों दिन भर साथ-साथ खेलते थे। कई बार तो ऐसे खेल भी खेलते कि उदय सिंह नौकर बन जाता और बप्पा महाराणा । जबकि स्थिति यह थी कि उदय सिंह कीमती कपड़े पहनता और मुलायम बिस्तर पर सोता था और बप्पा मोटे कपड़े पहनता तथा चटाई बिछाकर जमीन पर सोता। लेकिन ये सब बातें उन दोनों की मित्रता और प्रेम में कभी बाधक नहीं बनीं। दोनों खूब खुश होकर खेलते। पन्ना उन्हें इस तरह मग्न होकर खेलते देखती, तो मन ही मन फूली न समाती। वह उन दिनों की कल्पना करने लगती जब उदय सिंह युद्धभूमि में जाएगा और बप्पा उसका अंगरक्षक बन कर उसके साथ जाएगा। उसने बालक उदय सिंह को सदैव चित्तौड़ के भावी राणा के रूप में देखा। उसे वीरता भरी अनेक कहानियां सुनाती। उसका साहस बढ़ाती।

 

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