जाने जाट एंग्लो स्कूल ऊर्फ ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया के बारे में.....

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जाने जाट एंग्लो स्कूल ऊर्फ ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया के बारे में.....

विद्यालय की स्थापना 9 अगस्त1917 को हुई||



शिक्षा संत बीरमा ढाका ऊर्फ केशवानंद स्वामी और बहादुर सिंह भोबिया को नमन |

फाजिल्का की गुरुगद्दी त्याग कर स्वामी जी ने सन् 1917 में अबोहर-फाजिल्का क्षेत्र में समाज सुधार और हिन्दी-भाषा-प्रचार का कार्य आरम्भ किया था। उसी वर्ष अविद्या और रूढ़िवादी मान्यताओं से घिरे बीकानेर के गांवों की दशा सुधारने का संकल्प लेकर वहां शिक्षा प्रचार के लिए चौ. बहादुर सिंह भोबिया ने 9 अगस्त 1917 को जाट एंग्लो-संस्कृत मिडिल स्कूल संगरिया की नींव डाली। श्रीगंगानगर (तत्कालीन रामनगर) के निवासी चौ. हरिश्चन्द्र नैण वकील भी अविद्या के कारण इलाके के गांव-वासियों की दुर्दशा और पिछडे़पन से दुःखी थे, अतः वे भी शिक्षा-प्रचार के शुभ कार्य में चौ. बहादुर सिंह का पूरा साथ देने लगे। उनके प्रयत्नों से पन्नीवाली के ठाकुर गोपाल सिंह राठौड़ से संगरिया में 14 बीघा 3 बिस्वा भूमि दान में प्राप्त कर वहां 5 कच्चे कमरों और दो कच्ची बैरकों का निर्माण हुआ और विद्यालय एवं छात्रावास का संचालन होने लगा। विद्यालय का सब प्रकार का व्यय गांवों से दान-संग्रह करके पूरा किया जाता था। छात्रों की शिक्षा निःशुल्क थी। सन् 1923 तक जाट विद्यालय संगरिया के प्रबन्ध में गोलूवाला, घमूड़वाली और मटीली में भी शाखा प्राथमिक-शालाएं प्रारम्भ कर दी गईं। जून सन् 1924 में चौ. बहादुर सिंह का देहावसान हो गया और विद्यालय संचालन का भार प्रमुखतः चौ. हरिश्चन्द्र नैण पर रहा। अगले आठ वर्ष तक संगरिया के निकटवर्ती गांवों एवं स्थानीय सज्जनों की एक प्रबन्ध समिति गठित करके और स्वयं संचालन सचिव रह कर वे आर्थिक संकट से जूझते हुए विद्यालय का संचालन ही नहीं करते रहे बल्कि उन्होंने मानकसर, हरीपुरा, दीनगढ़, पन्नीवाली, नगराना, नुकेरा, कुलार और चौटाला गांवों में भी शाखा-प्राथमिक शालाएं खुलवाईं। स्वामी केशवानन्द जी भी अबोहर के साहित्य सदन के संचालन के लिए दान-संग्रह के सिलसिले में संगरिया के आस-पास के गांवों में आते-जाते जाट विद्यालय में रुककर यहां के कार्य को देख चुके थे। जब आर्थिक संकट काबू से बाहर हो गया, तो जाट विद्यालय की प्रबन्ध समिति ने जाट स्कूल को बंद करने का मन बनाकर, उस पर निर्णय लेने के लिए 18 दिसम्बर 1932 को शिक्षा-प्रेमी सज्जनों की एक बैठक बुलाई और उसमें स्वामी केशवानन्द जी को भी आंमत्रित किया। विद्यालय बंद करने का प्रस्ताव सामने आते ही स्वामी जी ने उसका विरोध किया और साहित्य सदन अबोहर का कार्यभार अपने ऊपर होते हुए भी उपस्थित सज्जनों के अनुरोध पर उसके संचालन का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। स्वामी जी का यह निर्णय इलाके के गांवों के लिए कालान्तर में वरदान सिद्ध हुआ। स्वामीजी विद्यालय की दशा सुधारने में जी-जान से जुट गए और उन्होंने इलाके से दान-संग्रह करके सन् 1935 तक, पहले के पांच कच्चे कमरों के स्थान पर मुख्य पक्का विद्यालय-भवन सरस्वती-मंदिर, औषधालय-रसायनशाला, पुस्तकालय-भवन और यज्ञशाला, व्यायामशाला, ‘‘आर्यकुमार आश्रम’’ छात्रावास और दो पक्के जलाशयों (कुण्डों) से युक्त सुन्दर शिक्षा-उपनिवेश खड़ा कर दिया। सन् 1943 तक विद्यार्थी-आश्रम-छात्रावास व सभा-भवन, गौशाला-भवन, पांच अध्यापक-निवास, अतिथिशाला, स्नानागार और एक कुण्ड और निर्मित करवाकर विद्यालय को हाई स्कूल में उन्नत कर दिया गया। सन् 1948 तक वहां आयुर्वेद शिक्षा, वस्त्र-निर्माण और सिलाई, काष्ठ-कला और धातु-कार्य आदि उद्योगों की शिक्षा चालू कर संस्था का नाम ‘‘ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया’’ कर दिया गया। जाट स्कूल की दशा सुधारने के पश्चात् स्वामी जी का ध्यान बीकानेर राज्य के उन मरूस्थलीय गांवों में शिक्षा-प्रचार की ओर गया, जहां उन्होंने जीवन के प्रथम सोलह वर्ष बिताए थे। जाट विद्यालय के लिए दान-संग्रह के सिलसिले में भी उन्होंने अनेक बार उन गांवों के पैदल चक्कर लगाए थे, अतः वे वहां की हर समस्या से परिचित थे। उस अनुभव के आधार पर उन्होंने वहां शिक्षा-प्रचार की एक विस्तृत योजना बनाई और उसे ‘‘मरू-भूमि सेवा-कार्य’’ नाम दिया। इस योजना को गांवों तक ले जाने के लिए उन्होंने गांवों से जुड़े कर्मठ कार्यकत्ताओं का सहयोग लिया, जिनमें प्रमुख थे चौ. दौलतराम सारण, चौ. हसंराज आर्य, लोक कवि सरदार हरदत्त सिंह भादू, चौ. रिक्ताराम तरड़, व्यायामाचार्य श्री रामलाल काजला ओर श्री लालचंद पूनिया। योजना का संचालन-कार्यालय ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया में रखकर उन्होंने सन् 1944 से 1959 तक के वर्षों में ‘‘त्रैमासिक शिक्षा योजना’’, ‘‘ग्रामोत्थान पाठशाला योजना’’ और ‘‘समाज शिक्षा-योजना’’ के अन्तर्गत मरूभूमि के गांवों में 287 शिक्षा-शालाओं की स्थापना और संचालन किया। इस कार्य में उन्होंने ग्रामवासियों तथा मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी कलकता का भरपूर सहयोग लिया। इन शालाओं में छात्र-छात्राओं की शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा और गांव वालों की प्राथमिक चिकित्सा का प्रबन्ध रहता था। इन शिक्षा-योजनाओं से बीकानेर, लूनकरणसर, सूरतगढ़, हनुमानगढ़ नोहर, भादरा, राजगढ़, चूरू, रतनगढ़, सुजानगढ़, डूंगरगढ़, नापासर और सरदारशहर तहसीलों के गांवों में शिक्षा प्रचार का इतना कार्य हुआ कि वहां जागृति की लहर उठ खड़ी हुई और लोगों में उन्नति की चाह और उत्साह पैदा हो गया। स्वामी जी की शिक्षा प्रचार की इन योजनाएं के महत्व को समझकर प्रोफेसर ब्रजनारायण कौशिक ने स्वामी जी को ‘शिक्षा-सन्त’ विशेषण देते हुए उनकी प्रथम जीवन गाथा ‘‘शिक्षा संत स्वामी केशवानन्द’’ सन् 1968 में लिखी थी।

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