साधु की वाणी : आध्यात्मिक कहानी राम नाम का चमत्कार, Sadhu Ki Vani: A Spiritual Story, The Miracle of the Name of Ram

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साधु की वाणी : आध्यात्मिक कहानी राम नाम का चमत्कार, Sadhu Ki Vani: A Spiritual Story, The Miracle of the Name of Ram

  


Sadhu Ki Vani: A Spiritual Story, The Miracle of the Name of Ram



एक बार एक गांव में एक साधु रहता था . सारा दिन राम-राम जपता रहता है और ढोलकी बजाकर कीर्तन करता रहता. 



उसकी कुटिया के पास जिस व्यक्ति का घर था, वह उससे बहुत परेशान था. 


एक दिन वह व्यक्ति गुस्से में उस साधु की कुटिया में चला गया और कहने लगा कि तुम क्या दिन -रात राम- राम रटते रहते हो? 


तुम्हें तो कोई काम धंधा नहीं है .हमें तो कमाने जाना पड़ता है. तुम्हारी ढोलकी की आवाज से मैं सो नहीं पाता. 


साधु कहने लगा, "तुम भी मेरे साथ राम राम जप के देखो तब तुम्हें पता चलेगा कितना आनंद आता है." 


वह व्यक्ति ने थोड़ा खींझकर कहा ,"अगर मैं तुम्हारे साथ राम-राम जपता हूं  तो क्या तुम्हारा राम मुझे खाने के लिए रोटी देगा ? 


साधु कहने लगा कि '"मुझे तो राम नाम की लगन लगी है मुझे तो राम जी की कृपा से हर  रोज भोजन मिल ही जाता है.


 तुम भी  राम- राम जप के देख लो मुझे भरोसा है भगवान तुझे खाने को जरूर देगा .


वह आदमी उस साधु को चुनौती देता है कि मैं तुम्हारे साथ आज राम-राम का भजन करता हूं . अगर तुम्हारे राम ने  आज मुझे रोटी खिला दी सारी उम्र राम की भक्ति में लगा दूंगा.  


अगर नहीं खिलाई तो, तुम ढोलकी बजाना बंद कर दोगे .


साधू कहता है कि मैंने तो निष्काम भाव से प्रभु राम की भक्ति की है लेकिन फिर भी मुझे तुम्हारी चुनौती मंजूर है.  


वह व्यक्ति साधु के साथ बैठकर  राम- राम का जाप करता है और मन में निश्चय करता है कि चाहे कुछ हो जाए मैं आज भोजन नहीं करूँगा, देखता हूँ इसका राम मुझे कैसे भोजन कराता है.


राम- राम का भजन करने के बाद वह सोचता है कि अगर अब मैं घर जाता हूं तो मेरी मां और बीवी मुझे खाने को कहेंगे और मुझे रोटी खानी पड़ सकती है.


लेकिन मुझे साधु को चुनौती में हराना है इसलिए वह घर जाने की बजाए गांव के पास के जंगल में चला जाता है .


जंगल में एक पेड़ पर चढ़कर बैठ जाता है. वह सोचता है कि मैं सारा दिन इस पेड़ से उतरूंगा ही नहीं, अन्न का दाना भी नहीं  खाऊंगा .


इस तरह मैं साधु को हरा दूंगा और उसका ढोलकी बजाना बंद हो जाएगा.


कुछ देर बाद उस जंगल से एक बंजारों की टोली गुजरती है .


उन्हें भूख लगी होती है तो बंजारों का सरदार कहता है कि आग जलाकर यहीं पर खाना बना लो .अब खाना खाकर ही आगे बढ़ेंगे .खाना बन कर तैयार हो जाता है.  


बंजारे खाना खाने ही वाले होते हैं, कि इतनी देर में बंजारों को सूचना मिलती है कि पीछे से डाकू आ रहे हैं तो बंजारों का सरदार कहता है कि हमें यहां से चले जाना चाहिए. 


डाकू हमारा सब कुछ लूट सकते हैं . वे बंजारे खाना वही पर छोड़ कर चले जाते हैं .वह आदमी पेड़ पर चढा़ सब कुछ देख रहा था .


कुछ समय बाद डाकू वहां पहुंच जाते हैं .भोजन को देखकर डाकू कहते हैं कि खुशबू तो बहुत अच्छी आ रही है .लेकिन यह भोजन किसने फिर बनाया?  


बनाने के बाद खाया क्यों नहीं? कहीं किसी की चाल तो नहीं हमें फसाने की? हो सकता है इस भोजन में जहर हो. 


उसी समय डाकुओं के सरदार की नजर उस व्यक्ति पर पड़ी. वह उसे नीचे आने का आदेश देता है. 


डाकू उस व्यक्ति से पूछते हैं ,"  हमें मारने के लिए, क्या भोजन तुमने बनाया है ? 


वह बेचारा मिन्नते करता रहता है  कि मैंने यह भोजन नहीं बनाया. इसमें जहर नहीं है. 



यह भोजन बंजारों ने बनाया है आपके आने की खबर सुनकर वह जहां से भाग गए. लेकिन डाकूओं के आगे उसकी एक नहीं चलती.


डाकू से कहते हैं कि अब तुम्हें यह भोजन खा कर दिखाना पड़ेगा. क्योंकि हमें लगता है कि तुमने ही यह भोजन बनाया है और इसमें जहर मिलाया ? 



अब तुम ही  सबसे पहले यह भोजन खाओगे. वह जिद्द पर अड़ा रहता है मैं यह भोजन नहीं खाऊंगा, किसी कीमत पर नहीं खाऊंगा . 


डाकूओं का शक ओर गहरा हो जाता है. वे बंदूक की नोक उसके सिर पर रखकर कहते हैं तुझे यह भोजन खाना पड़ेगा, नहीं तो गोली खानी पड़ेगी.



वह व्यक्ति भोजन कर रहा है और साधु को याद करते करते आंसू उसकी आँखों से बह रहे थे. 


उसने कहा था कि मेरा निश्चय है कि राम नाम जप लेगा तो राम तुझे भोजन भी देंगे. उसके भोजन करने के बाद डाकूओं ने से छोड़ दिया .


अब उसे विश्वास हो गया कि बंजारों को और डाकूओं को राम जी ने ही भेजा है. 



वह सीधा साधू की कुटिया में चला गया और जा कर उनके चरणों में प्रणाम किया और उन्हें सारा  वृतांत सुनाया. 


अब उस साधु से भी ज्यादा उसे राम नाम की लगन लग गई. उसने अपना पूरा जीवन राम जी को समर्पित कर दिया.


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सती सुलोचना ,,,,, 

       #सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी। लक्ष्मण के साथ हुए एक भयंकर युद्ध में मेघनाद का वध हुआ। उसके कटे हुए शीश को भगवान श्रीराम के शिविर में लाया गया था।

      अपने पती की मृत्यु का समाचार पाकर सुलोचना ने अपने ससुर रावण से राम के पास जाकर पति का शीश लाने की प्रार्थना की। किंतु रावण इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने सुलोचना से कहा कि वह स्वयं राम के पास जाकर मेघनाद का शीश ले आये। क्योंकि राम पुरुषोत्तम हैं, इसीलिए उनके पास जाने में तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए।

      रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं- "लक्ष्मण, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है।

      परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे। क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है।

       ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण अपनी सैना लेकर चल पड़े। समरभूमि में उन्होंने वैसा ही किया। युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले आये।

        मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुई उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी। पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यकित की हो।

        ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा। निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा- "यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दे। भुजा में दासी ने लेखनी पकड़ा दी। लेखिनी ने लिख दिया- "प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है।

       युद्ध भूमि में श्रीराम के भाई लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कयी वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्रीराम के पास है।

       पति की भुजा-लिखित पंकितयां पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गयी। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावणने आकर कहा- 'शोक न कर पुत्री। 

       प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे। मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा। करुण चीत्कार करती हुई सुलोचना बोली- "पर इससे मेरा क्या लाभ होगा,। सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के आभाव की पूर्ती नहीं कर सकेंगे। सुलोचना ने निश्चय किया कि 'मुझे अब सती हो जाना चाहिए।'

       किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती? जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया- "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। 

       जिस समाज में बालब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।"

        सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले- "देवी, तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत-से सदगुण थे; किंतु विधी की लिखी को कौन बदल सकता है। आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है। सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी। 

        श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा- "देवी, मुझे लज्जित न करो। पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है। मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो। तुम्हारे सतित्व से तो विश्व भी थर्राता है। बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ? 

      सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- "राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आई हूँ। श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।

        पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आंखें बड़े जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- "सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना की  ईनका वध मैंने किया है। मेरे स्वामी को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। 

         यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ। पर दुर्भाग्य से मेरे पति  पतिव्रता नारी का अपहरण करने वाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी से मेरे जीवन धन परलोक सिधारे।

      सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश भगवान राम के पास है। 

      जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुई कि मेघनाद का शीश श्रीराम के शिविर में है। सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया- "मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुई मेरे पास चली गयी थी। उसी ने लिखकर मुझे बता दिया। 

      व्यंग्य भरे शब्दों में सुग्रीव बोल उठे- "निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है। श्रीराम ने कहा- "व्यर्थ बातें मन करो मित्र। पतिव्रता के महाम्तय को तुम नहीं जानते। 

     श्रीराम की मुखकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गयी। उसने कहा- "यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हंस उठे। सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हंसने लगा। 

     यह देखकर सभी दंग रह गये। सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया। सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे। चलते समय सुलोचना ने श्रीराम से प्रार्थना की- "भगवन, आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ। 

    अत: आज युद्ध बंद रहे। श्रीराम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गई। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।

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