भारत माँ की प्यारी संतान भारतीय किसान है, इस कथन के समर्थन में हम यही कहेंगे कि हमारा भारत गाँवों में ही निवास करता है।
भारत गाँवों में ही बसता है, हमारे देश की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में ही रहती है। जो गाँवों को छोड़कर शहरों में किसी कारण बस चले जाते हैं, वे भी गाँव की संस्कृति और सभ्यता में ही पले होते हैं।
भारतीय किसान का जीवन सभ्यता और संस्कृति के इस ऊँचे भवन के नीचे अब फटेहाल है। भारतीय किसान का मुख्य धंधा कृषि है। कृषि ही उसकी भक्ति है और कृषि ही उसकी शक्ति है। कृषि ही उसका जागरण है। इसलिए भारतीय किसान कृषि के दुख दर्द और अभाव को बड़े ही साहस और हिम्मत के साथ सहता है। अभाव को बार बार प्राप्त करने के कारण उसका जीवन ही अभावग्रस्त हो गया है। उसने अपने जीवन को अभाव का सामना करने के लिए पूरी तरह से लगा दिया, फिर भी वह अभावों से मुक्त न हो सका।
भारतीय किसान अपने जीवन के अभावों से कभी भी मुक्त नहीं हो पाता है। इसके कई कारण हैं- सर्वप्रथम उसकी संतुष्टि, अशिक्षा, अज्ञानता आदि हैं तो दूसरी और आधुनिकता से दूरी, संकीर्णता, कूपमण्डूकता आदि है। इस कारण भारतीय किसान आजीवन दुखी और अभावग्रस्त रहता है। वह स्वयं तो अशिक्षित होता ही है अपनी संतान को भी इसी अभिशाप को झेलने के लिए विवश कर देता है। फलतः उसका पूरा परिवार अज्ञानता के भँवर में मँडराता रहता है। भारतीय किसान इसी अज्ञानता और अशिक्षा के कारण संकीर्ण और कूपमण्डूक बना रहता है।
भाग्यवादी होना भारतीय किसान की सबसे बड़ी विडम्बना है। वह कृषि के उत्पादन और उसकी बरबादी को अपनी भाग्य और दुर्भाग्य की रेखा मानकर निराश हो जाता है। वह भाग्य के सहारे अकर्मण्य होकर बैठ जाता है। वह कभी भी नहीं सोचता कि कृषि कर्मक्षेत्र है, जहाँ केवल कर्म ही साथ देता है, भाग्य नहीं। वह तो केवल यही मानकर चलता है कि कृषि कर्म तो उसने कर दिया है, अब उत्पादन होना न होना तो विधाता के वश की बात है। उसके वष की बात नहीं है। इसलिए सूखा पड़ने पर, पाला मारने पर या ओले पड़ने पर वह चुपचाप ईश्वराधीन का पाठ पढ़ता है। इसके बाद तत्काल उसे क्या करना चाहिए या इससे पहले किस तरह से बचाव या निगरानी करनी चाहिए थी, इसके विषय में प्राय भाग्यवादी बनकर वह निश्चिन्त बना रहता है।
रूढि़वादी और परम्परावादी होना भारतीय किसान के स्वभाव की मूल विशेषताएँ हैं। यह शताब्दी से चली आ रही कृषि का उपकरण या यंत्र है। इस को अपनाते रहना उसकी वह रूढि़वादिता नहीं है। तो और क्या है? इसी अर्थ में भारतीय किसान परम्परावादी, दृष्टिकोण का पोषक और पालक है, जिसे हम देखते ही समझ लेते हैं। आधुनिक कृषि के विभिन्न साधनों और आश्वयकताओ। को विज्ञान की इस धमा चौकड़ी प्रधान युग में भी न समझना या अपनाना भारतीय किसान की परम्परावादी दृष्टिकोण का ही प्रमाण है। इस प्रकार भारतीय किसान एक सीमित और परम्परावादी सिद्धान्तों को अपनाने वाला प्राणी है। अंधविश्वासी होना भी भारतीय किसान के चरित्र की एक बहुत बड़ी विशेषता है। अंधविश्वासी होने के कारण भारतीय किसान विभिन्न प्रकार की सामाजिक विषमताओं में उलझा रहता है।
इस प्रकार भारतीय किसान भाग्यवादी संकीर्ण, परम्परावादी, अज्ञानता, अंधविश्वासी आदि होने के कारण दुखी और चिन्तित रहता है। फिर भी वह कर्मठ और सत्यता की मूर्ति है। वह मानवता का प्रतीक आत्म संतुष्ट जीवन यापन करने वाला हमारे समाज का विश्वस्त प्राणी है, जिसे किसी कवि ने संकेत रूप से चित्रित करते हुए कहा है-
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा।
है चल रहा, सन सन पवन, तन से पसीना ढल रहा।
देखो कृषक शोणित सुखाकर, हल तथापि चला रहे।
किस लोभ से वे इस आंच में निज शरीर जला रहे।
मध्याह उनकी स्त्रियाँ ले रोटियाँ पहुँची वहीं।
हैं रोटियाँ रूखी-सूखी, साग की चिन्ता नहीं।
भरपेट भोजन पा गए, तो भाग्य मानो जग गए।
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