बौद्ध, जैन, तिब्बती भोट धर्म से लेकर उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका के आदिवासी कबीलों तक में भैरव की अलग अलग नाम से पूजा होती है

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बौद्ध, जैन, तिब्बती भोट धर्म से लेकर उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका के आदिवासी कबीलों तक में भैरव की अलग अलग नाम से पूजा होती है

 कलियुग में भैरव हैं विशेष प्रभावशाली!


भगवान भैरव दंडपाल हैं, काल भैरव के रुप में वे प्राणियों को उनके कर्मों का दंड देते हैं, लेकिन बटुक भैरव के रुप में सुख-समृद्धि का वरदान भी देते हैं। 


भैरव की उत्पत्ति सृष्टि के सबसे पहले असत्य का दंड देने के लिए हुई थी। जब ब्रह्मा ने विष्णु से झूठ कहा, कि वो महालिंग का अंत देख चुके हैं, तब भैरव ने प्रकट होकर ब्रह्मा का पांचवा मुख अपने बांए हाथ के नाखून से काट दिया। इसके बाद स्वयं सदाशिव प्रकट हुए और उन्होंने भैरव को दंडपाल बनाया। फिर उन्हें काशी जाकर स्थित होने का आदेश मिला। जहां पहुंचकर भैरव के नाखून से चिपका ब्रह्मा का सिर छूटकर गिर गया। 


भगवान भैरव देवाधिदेव महादेव के कोतवाल हैं। इस कलिकाल में भी वे पूर्ण जागृत हैं। 


बौद्ध, जैन, तिब्बती भोट धर्म से लेकर उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका के आदिवासी कबीलों तक में भैरव की अलग अलग नाम से पूजा होती है। खुद उज्जैन में भगवान भैरव की प्रतिमा सबके सामने मदिरापान करती है।


देश के ग्रामीण अंचलों में भैरव बाबा की उपासना मां दुर्गा के साथ होती है, क्योंकि वो जगदंबा और उनकी सहचरियों के लाड़ले भाई के रुप में पूजे जाते हैं। बिना उनकी पूजा किए माता प्रसन्न नहीं होतीं। भैरव बाबा की खुशी से महादेव और जगदंबा की शरण में जाने का मार्ग खुलता है। 


श्री भैरवनाथ को मीठे आटे का रोट प्रिय है। उनकी सवारी के काले कुत्ते को मीठी रोटी खिलाने से भैरव प्रसन्न होते हैं। 


ऊँ भैरवाय नम: ।

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