क्या आप जानते हैं रावण अपने पूर्व जन्म में किसका द्वारपाल था? नहीं जानते तो जानिए, क्लिक करें पढ़ें पूरी कहानी और शेयर करें

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क्या आप जानते हैं रावण अपने पूर्व जन्म में किसका द्वारपाल था? नहीं जानते तो जानिए, क्लिक करें पढ़ें पूरी कहानी और शेयर करें



एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु सनक, सनंदन आदि ऋषि भगवान विष्णु के दर्शन हेतु पधारे, परंतु भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने द्वार पर ही रोककर उन्हें अंदर जाने से मना कर दिया। कहने लगे कि अभी भगवान के विश्राम का समय है।



ऋषिगण ने क्रोध में आकर जय एवं विजय को शाप दे दिया- 'जाओ तुम राक्षस हो जाओ।' बाद में जय और विजय ने ऋषियों से अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से क्षमा करने को कहा। तब ऋषियों ने कहा कि हमारा शाप खाली नहीं जा सकता। हां, इसमें यह परिवर्तन हो सकता है कि तुम हमेशा के लिए राक्षस नहीं रहोगे, लेकिन 3 जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना ही होगा और उसके बाद तुम पुन: इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। लेकिन इसके साथ एक और शर्त यह है कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी-स्वरूप के हाथों तुम्हारा मरना अनिवार्य होगा।



इस शाप के चलते भगवान विष्णु के इन द्वारपालों ने अपने पहले जन्म में हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु राक्षसों के रूप में जन्म लिया। हिरण्याक्ष राक्षस बहुत शक्तिशाली था। उसके कारण पृथ्वी पाताल-लोक में डूब गई थी। पृथ्वी को जल से बाहर निकालने के लिए भगवान विष्णु को वराह अवतार धारण करना पड़ा। इस अवतार में उन्होंने धरती पर से जल को हटाने के अथक कार्य किया। उनके इस कार्य में बार-बार हिरण्याक्ष विघ्न डालता था अत: अंत में श्रीविष्णु ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। उसके बाद धरती पुन: मनुष्यों के रहने लायक स्थान बन गई।


हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकशिपु भी ताकतवर राक्षस था और उसने तप करके ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था। वह जानता था कि इस वरदान के चलते मुझे कोई न आकाश में मार सकता है और न पाताल में। न दिन में और न रात में। न कोई देव, न राक्षस और न मनुष्य मार सकता है तो फिर चिंता किस बात की? यही सोचकर उसने खुद को ईश्वर घोषित कर दिया था।


भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का वध करने के कारण वह विष्णु विरोधी था। लेकिन जब उसे पता चला कि उसका पुत्र प्रहलाद विष्णुभक्त है तो उसने उसे मरवाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन वह अपने पुत्र को नहीं मार सका। अंत में उसने एक खंभे में लात मारकर प्रहलाद से पूछा- 'यदि तेरा भगवान सभी जगह है तो क्या इस खंभे में भी है?' 



खंभे में लात मारते ही खंभे से भगवान विष्णु नृसिंह रूप में प्रकट हुए, जो न देव थे और न राक्षस और न मनुष्य। वे अर्द्धमानव और अर्द्धपशु थे। उन्होंने संध्याकाल में हिरण्यकशिपु को अपनी जंघा पर बिठाकर उसका वध कर दिया।




वध होने के बाद ये दोनों भाई त्रेतायुग में रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और फिर श्रीविष्णु अवतार भगवान श्रीराम के हाथों मारे गए। अंत में वे तीसरे जन्म में द्वापर युग में शिशुपाल एवं दंतवक्त्र नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए। इन दोनों का भी वध भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हुआ।


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*क्यो नहीं लाए थे हनुमान लंका से सीता को....

हनुमान ने एक ही छलांग में समुद्र को पार कर लिया था।। जब अहिरावण पाताल लोक में राम-लक्ष्मण का अपहरण करके ले गया था, तब हनुमानजी ने पाताल लोक जाकर अहिरावण का वध कर राम और लक्ष्मण को मुक्त कराया था।।


पाताल लोक से पुन: लंका आने के लिए उन्होंने राम और लक्ष्मण को अपने कंधे पर बैठा लिया था और आकाश में उड़ते हुए सैकड़ों किलोमीटर का सफर चंद मिनटों में तय कर लिया था।।ऐसे में सवाल उठता है कि जब वे लंका में राम का संदेश लेकर सीता माता के पास गए थे तो वे सीता को कंधे पर बैठाकर लंका से वापस नहीं ला सकते थे? जबकि उन्होंने इस दौरान वहां रावण के पुत्र अक्षय कुमार को मारा, मेघनाद से युद्ध किया, रावण का घमंड तोड़ा और लंकादहन कर रावण को खुली चुनौती देकर वापस भारत आ गए थे तो क्यों नहीं सीता माता को लेकर आए।।


सीताजी को अशोक वाटिका में दुखी और प्रताड़ित बैठे देखकर हनुमानजी के मन में दु:ख उत्पन्न हुआ।। उन्होंने सीता माता के समक्ष लघु रूप में उपस्थित होकर नमन किया और श्रीराम की अंगूठी रखी और कहा- 'हे माता जानकी, मैं श्रीरामजी का दूत हूं।। करुणानिधान की सच्ची शपथ खाकर कहता हूं, यह अंगूठी मैं ही लाया हूं।। श्रीरामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहचान) दी है।।'


हनुमानजी के प्रेमयुक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया कि यह अंगूठी नकली नहीं है और यह नन्हा-सा वानर कोई राक्षसरूप नहीं है।। उन्होंने जान लिया कि यह वानर मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्रीरघुनाथजी का दास है, लेकिन न मालूम कि यह यहां कैसे आ गया? इसे तनिक भी डर नहीं है राक्षसों का क्या?


 हनुमान ने कहा- 'हे माता, मेरे लिए राक्षस और दानवों का कोई मूल्य नहीं।। मैं चाहूं तो आपको अभी तत्क्षण राम के समक्ष ले चलूं लेकिन मुझे इसकी आज्ञा नहीं है।।'


'हे माता! मैं आपको अभी यहां से लिवा ले जाऊं, पर श्रीरामचन्द्रजी की शपथ है।। मुझे प्रभु (राम) की आज्ञा नहीं है।। अतः हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो।। श्रीरामचन्द्रजी वानरों सहित यहां आएंगे।।


हनुमानजी ने कहा- श्रीरामचन्द्रजी यहां आएंगे और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएंगे।। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गाएंगे।। तब सीताजी ने कहा- 'हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान नन्हे-नन्हे-से होंगे।। राक्षस तो बड़े बलवान, शक्तिशाली, मायावी और योद्धा हैं, तो यह कैसे होगा संभव?'


सीताजी ने कहा- 'हे वानर पुत्र, मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है कि तुम जैसे बंदर कैसे समुद्र पार करेंगे और कैसे राक्षसों को हरा पाएंगे?'


यह सुनकर हनुमानजी ने अपना शरीर प्रकट किया।। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का अत्यंत विशाल शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान और वीर था।।


तब विराट रूप को देखकर सीताजी के मन में विश्वास हुआ।। हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया और सीता माता ने अजर अमर होने का वरदान ओर फल खाने की आज्ञा दी।।


*अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥


हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ।। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्‌जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥





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