माघ मास में शुक्ल पक्ष की दशवीं तिथि को पुरे भारत वर्ष मे रामदेवरों पर मेले लगते है. और रामदेव के भक्त पूरी आस्था से पूजा अर्चना करते हैं. राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता बाबा रामदेव जी का जीवन परिचय विस्तार से बताया है। यहाँ पर हम बाबा रामदेव जी का इतिहास, जन्म, परिवार, विवाह, संतान, आदि के बारे में विस्तार से जानेंगे।
युगों-युगों से यह चलता आ रहा है कि जब भी पृथ्वी पर अधर्म, पाप, अस्यृश्यता ने मृत्युलोक पर अपना साम्राज्य स्थापित किया तब ईश्वर ने स्वयं प्रकट होकर पापों से पृथ्वी को मुक्त करवाया है। जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ाते हैं तब ईश्वर ने कभी राम, कभी कृष्ण, नृसिंह कच्छ, मच्छ आदि अनेकों रूपों में प्रकट होकर पृथ्वी को पाप युक्त किया है।
उसी प्रकार कलयुग में पश्चिमी राजस्थान में फैले भैरव नामक राक्षस के आतंक एवं तत्कालीन समाज में अस्पृश्यता, साम्प्रदायिकता अपने चरम सीमा पर पहुंच गई थी। इसीलिए भैरव राक्षस का वध एवं समाज में सामाजिक समरसता की अलख जगाने के लिए बाबा रामदेव जी का अवतार हुआ।
यूं तो भारतवर्ष विभिन्न धर्म संप्रदाय एवं जातियों का देश रहा है, जहां समय-समय पर विभिन्न धर्म, संप्रदाय के अपने-अपने देवी-देवता, पीर-पैगम्बर एवं सती-जती हुए हैं तथा सभी धर्मों के अपने-अपने पूजा स्थल, मंदिर, चर्च, मस्जिद एवं मकबरे उनके अनुयायियों की आस्था एवं श्रद्धा के केंद्र बने हुए हैं, जहां भक्तजन अपने-अपने तरीके से उन आस्था के केंद्रों पर अपनी मनोकामना पूरी होने एवं मन्नत मांगने हेतु श्रद्धा सुमन अर्पित कर अपने आपको धन्य समझते हैं।
मगर एक ऐसा पूर्ण महापुरुष जिसने जाति, धर्म, संप्रदाय, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी का भेद मिटाकर मानव मात्र को प्रभु का रूप समझ कर मानवता एवं सर्व धर्म समभाव का संदेश देकर कृष्ण के अवतार होने का अहसास कराया, जिसे मुसलमान रामसा पीर के नाम के मानकर उनकी समाधि पर शीश नवाते हैं तो हिन्दू कृष्णवतारी बाबा रामदेव मानकर अपने आप को पापों से मुक्त मानता है।
परमाणु परीक्षण के कारण विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान बना चुके पोकरण कस्बे से 12 किमी. उत्तर दिशा में स्थित विख्यात नगरी रुणीचा धाम जिसे लोग रामदेवरा कहते हैं, वहां पर प्रति वर्ष भादवा महीने की शुक्ला द्वितीया से अंतर प्रांतीय मेला शुरू होता है, यह मेला दूज से एकादशी तक लगता है।
प्रचलित लोक गाथाओं के अनुसार अंतिम हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान को उनके नाना अनंगपाल तोमर द्वारा पूरा राज पाट अपने दोहिते पृथ्वीराज चौहान को सौंपकर तीर्थ यात्रा पर निकल गए। तीर्थ यात्रा कर वापस राजधानी दिल्ली आने पर सम्राट पृथ्वीराज चौहान द्वारा राज गद्दी वापस देने से मनाकर देने पर धर्म प्रिय सम्राट अनंगपाल तोमर दिल्ली छोड़कर पाटन (सीकर) आकर अपनी अलग राजधानी बनाईं।
उन्हीं अनंगपाल तोमर के वंशज अजमाल जी (तंवर) थे। अजमाल जी तंवर के कोई संतान नहीं थी। इस कारण राजा अजमाल एवं उनकी राणी मैणादे हर समय संतान नहीं होने के कारण बैचेन एवं दुखी रहते थे। अजमाल तंवर द्वारकाधीश भगवान कृष्ण के भक्त होने के कारण कई बार द्वारिका की यात्रा कर चुके थे।
एक बार वर्षा के मौसम में अजमल जी सुबह-सुबह शौचादि से निवृत होकर वापस अपने महल की ओर आ रहे थे तो उन्हीं के गांव के किसान खेती करने के लिए अपने खेतों की तरफ जा रहे थे। सामने से अजमल जी तंवर को आते देखा तो किसान वापस अपने घरों की तरफ मुड़ गए। अजमल जी आश्चर्यचकित हो गए और किसानों को बुलाकर वापस घरों की ओर मुड़ने का कारण पूछा तो किसानों ने घबराकर यूं ही बीज, बैल, हल आदि पीछे भूल जाने का बहाना बनाया। मगर उस जवाब से अजमल संतुष्ट नहीं हुए और किसानों से कहा कि तुम जो भी बात हो सच-सच बता दो, तुम्हें सातों गुनाह माफ है।
तब किसानों ने बताया कि अन्नदाता आप निसंतान है और आप के सामने आ जाने के कारण अपशगुन हो गए हैं। अजमलजी पर मानो पहाड़ टूट गया और मन ही मन अपने आपको कोसते हुए भगवान द्वारिकाधीश का स्मरण कर कहा कि प्रभु मैं जिस गांव का ठाकुर हूं, उस गांव के लोग मेरा मुंह तक नहीं देखना चाहते तो मेरा जीना बेकार है, यह सोच अजमल जी घर पहुंचे। अजमल जी को दुखी देखकर रानी ने कारण पूछा तो सब बात अजमल ने रानी को बताई तो रानी भी बहुत दुखी हुई, मगर अपने दुख तो अंदर दबाकर अजमल जी से कहा कि आप एक बार द्वारिका जाकर भगवान श्री कृष्ण से विनती करें व अपनी मनोकामना जरूर पूरी होगी।
तब अजमल जी ने द्वारिका जाकर पागलों की भांति पुजारी से बोले कि बता तेरा भगवान कहां है?, नहीं तो तुझे और इस पत्थर को मूर्ति दोनों को तोड़ दूंगा तो पुजारी ने पागल समझ कर कहा कि सागर में जहां पर वो सबसे तेज जल भंवर पड़ रहा है, उस जगह समुद्र में भगवान आराम कर रहे हैं तो अजमल जी को तो भगवान पर दृढ़ विश्वास था, इसलिए श्रद्धा थी और वे सीधे समुद्र में कूद गए।
समुद्र में शेषनाग की शैया पर प्रभु के दर्शन कर अजमल जी भगवान द्वारिकाधीश से वर मांगा कि प्रभु मेरी ही प्रजा मेरा मुंह तक नहीं देखना चाहती है। इसलिए मेरे भी आप जैसा सुंदर पुत्र रत्न हो, भगवान द्वारिकाधीश ने कहा मेरे जैसा तो मैं ही हूं, तब अजमल जी तंवर ने कहा कि प्रभु आपको ही मेरे घर पुत्र रूप में आना होगा। यह वचन ले अजमलजी वापस आए।
प्रचलित लोक धारणाओं के अनुसार अजमल जी के घर पहले पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम बिरमदेव रखा गया और उसके बाद विक्रम संवत 1409 चैत्र सुदी पंचमी के दिन अजमल जी तंवर के घर बाबा रामदेव जी का जन्म हुआ। कलयुग के अवतारी बाबा रामदेव ने अपने शैशव काल में ही दिव्य चमत्कारों से देव पुरुष की प्रसिद्धि पा ली थी।
प्रचलित लोक गाथाओं के अनुसार बाबा रामदेव ने अपने बाल्यकाल में ही माता की गोद में दूध पीते हुए चूल्हे पर से उफनते हुए दूध के बर्तन को नीचे रखना, कपड़े के घोड़े को आकाश में उड़ाना, स्वारथिये सुथार को सर्पदंश से मरने के बाद वापस जिंदा करना आदि कई है। ज्यों-ज्यों बाबा रामदेवजी किशोरावस्था में प्रवेश कर रहे थे, उनके दैविक पुरुष होने के चर्चे दूर-दूर तक फैल रहे थे। प्रचलित गाथा के अनुसार कृष्णावतार बाबा रामदेव जी भैरव राक्षस के आतंक को मिटाने के लिए ही पृथ्वी लोक पर अवतरित हुए थे।
एक दिन बाबा रामदेव जी अपने साथियों के साथ गेंद खेल रहे थे, खेलते-खेलते गेंद को इतना दूर फैंक दिया कि सभी साथियों ने अपने आपको गेंद लाने में असमर्थता जताते हुए कहा कि आपको ही गेंद लानी पड़ेगी तो बाबा रामदेव गेंद लाने के बहाने वर्तमान पोकरण की घाटी पर स्थित साथलमेर आ कर भैरव के अत्याचारों से लोगों को मुक्त करवाना था।
बाबा रामदेव जी के बालक रूप में सुनसान पहाड़ी पर अकेले देखकर पहाड़ी पर धूना लगाए बैठे बालीनाथ जी ने देखा तो कहा कि बालक तू कहां से आया है, जहां से आया है वापस चला जा, यहां पर रात को भैरव राक्षस आएगा। बालीनाथ जी ने कहा कि यह आदम खोर राक्षस तुझे खा जाएगा, तब बाबा रामदेव जी ने रात के समय वहां पर रुकने की प्रार्थना की तो बालीनाथ जी ने अपनी कुटिया (आश्रम) में पुरानी गुदड़ी ओढ़ाकर बालक रामदेव को चुपचाप सो जाने को कहा। अर्द्धरात्रि के समय भैरव राक्षस ने वहां आकर बालीनाथ जी से कहा कि आप के पास कोई मनुष्य है, मुझे मानुषगंध आ रही है तो बालीनाथ जी ने भैरव से कहा कि यहां पर तो तूने बारह-बारह कोस तक तो पक्षी भी नहीं छोड़ा है मनुष्य कहां से आया।
तब बाबा रामदेव ने गुरु बाली नाथ द्वारा चुपचाप सो जाने का आदेश दिए जाने के कारण बोले तो कुछ नहीं, मगर अपने पैर से गुदड़ी को हिलाई तो भैरव की नजर गुदड़ी पर पड़ी तो गुदड़ी को खींचने लगा।
मगर बाबा के चमत्कार से गुदड़ी द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ने लगी तो बालीनाथ जी महाराज ने सोचा कि यह कोई सामान्य बालक तो नहीं है जरूर कोई दिव्य बालक है, गुदड़ी को खींचते-खींचते भैरव राक्षस हांफ कर भागने लगा तो बाबा रामदेव जी ने उठकर बालीनाथजी महाराज से आज्ञा लेकर बैरव राक्षस को वध कर लोगों को उसके आंतक से मुक्त किया।
भैरव राक्षस को वध करने के बाबा रामदेवजी भैरव राक्षस की गुफा से उत्तर दिशा की तरफ कुंआ खुदवा कर रुणीचा गांव बसाया। बाबा रामदेवजी के विद्य चमत्कारों के चर्चें दूर-दूर तक सूर्य के प्रकाश की भांति फैलने लगे। उस समय मुगल साम्राज्य होने के कारण कट्टर पंथ भी चरम सीमा पर था।
एक बार बाबा रामदेव जी की परीक्षा लेने के लिए पांच पीर आये, उस समय बाबा रामदेव जी जंगल में घोड़ों को चरा रहे थे और पीरों को देखकर पूछा आप कहां से आएं है और कहां जायेंगे? तो उन पीरों ने अपने आने का पूरा वृतांत सुनाया तो बाबा रामदेवजी ने बड़े आदर सत्कार के साथ उन पीरों को भोजन परोस कर पीरों से भोजन करने को कहा तो उन पांचों पीरों ने दूसरे के बर्तन में खाना खाने को मना करते हुए कहा कि हम तो अपने ही बर्तनों में भोजन करते है और उन बर्तनों को अपने मक्का (सऊदी अरब) पर ही भूल आए है।
तब बाबा रामदेव जी उनके द्वारा परीक्षा लेने की बात को समझते हुए तुरंत हाथ पसारा और वहीं कटोंरे उन पीरों को दिए और कहा कि अपने अपने कटोंरे को पहचान कर ले लो तो उन पीरों ने नमन करते हुए कहा कि हम तो पीर है, आप पीरों के भी पीर कह कर रामसापीर की उपाधि दी और कहा कि आज से मुसलमान भी आपको रामसापीर के नाम से मानेगें।
तब पीरों द्वारा भोजन करने के बाद दातुन करके दातुन की लकड़ियों से लगाई गई पांच पीपलियों के अवशेष आज भी रामदेवरा से पूर्व दिशा में 10 किमी. पांच पीपली स्थान पर दूर मौजूद है। वहां पर भी कई यात्री दर्शानार्थ जाते हैं। बाबा रामदेव दिव्य पुरुष होने के साथ-साथ एक महान समाज सुधारक और अछूतोद्वारक भी थे।
उस समय अस्पृश्यता एवं सांप्रदायिकता ने समाज को बुरी तरह जकड़ रखा था। मगर बाबा रामदेव ने क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर भी अछूत समझी जाने वाली जातियों को गले लगाया। उनके घरों में जाकर उनके साथ भजन सत्संग करना दलित और हीन समझने जाने वाले लोगों के साथ उठने-बैठने को लेकर उनके रिश्तेदारों तक ने उनके यहां आना-जाना व बोलना बंद कर दिया था। मगर बाबा रामदेव जी ने इन सबकी परवाह किए बिना सामाजिक कुरितियों से जारी रखा। उसी के फलस्वरूप अछूत समझी जाने वाली बाबा की अनन्य भक्त मती डालीबाई ने बाबा रामदेव से पहले समाधि ली। आज बाबा के भक्तों की संख्या पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों में अधिक है।
बाबा रामदेव जी ने अपने 33 वर्ष की अल्प आयु में अनेक चमत्कार और समाज सुधार के कार्य कर वर्तमान रामसरोवर की पाल पर भादवा सुदी एकादशी विक्रम संवत 1442 को जीवित समाधि ली।
बाबा रामदेव जी का जीवन परिचय एक नजर में
नाम बाबा रामदेव जी
अन्य नाम रामसा पीर, रूणीचा रा धणी, बाबा रामदेव
जन्म और जन्मस्थान चैत्र सुदी पंचमी, विक्रम संवत 1409, रामदेवरा
निधन (जीवित समाधी) भादवा सुदी एकादशी, विक्रम संवत 1442 (33 वर्ष), रामदेवरा
समाधी-स्थल रामदेवरा (रुणिचा नाम से विख्यात)
पिता का नाम अजमल जी तंवर
माता का नाम मैनादे
भाई-बहन भाई-बीरमदेव, बहिन-सगुना और लांछा
पत्नी नैतलदे
संतान सादोजी और देवोजी (दो पुत्र)
मुख्य-मंदिर रामदेवरा, जैसलमेर (राजस्थान)
प्रसिद्धि लोकदेवता, समाज सुधारक
वंश तंवर
सम्प्रदाय/पंथ कामड़िया
धर्म हिन्दू
घोड़े का नाम लीलो
बाबा रामदेव जी का पुराना इतिहास (बाबा रामदेव की संपूर्ण कथा)
बाबा रामदेव जी का अवतार और परिवार
बाबा रामदेव जी का अवतार चैत्र सुदी पंचमी, विक्रम संवत 1409 को राजस्थान के जैसलमेर जिले के रामदेवरा में हुआ था। इनके पिता का नाम राजा अजमाल जी और माता का नाम रानी मैनादे था।
रामदेवजी के एक बड़े भाई थे, जिनका नाम बीरमदेव था तथा दो बहनें भी थी, जिनका नाम सगुना और लांछा था। सगुना बाई का विवाह पुंगलगढ़ के पडिहार राव विजयसिंह के साथ हुआ था।
बाबा रामदेव जी का विवाह और संतान
बाबा रामदेव जी का विवाह अमर कोट के ठाकुर दल जी सोढ़ की पुत्री नैतलदे के साथ संवत् 1426 में हुआ था। रामदेवजी के दो पुत्र थे, जिनका नाम सादोजी और देवोजी था।
रामदेवरा में दर्शनीय स्थल
रामदेवरा मंदिर
वर्तमान मंदिर के गर्भ-गृह में बाबा रामदेवजी की समाधी स्थल है। इस स्थान पर बाबा रामदेवजी ने जीवित समाधि ली थी। मुख्य मंदिर के अन्दर प्रवेश करते ही बांयी दीवार में (आले) में अखण्ड ज्योति जलती है, जो कि बाबा के समाधि लेने से आज तक निर्बाध रूप से प्रज्वलित है।
इस ज्योति में दवा प्राप्त अंजन नेत्र में लगाने से समस्त प्रकार के नेत्र रोगों से मुक्ति मिलती है। इस मंदिर के गर्भगृह में तीन समाधियां है, बीच बाबा रामदेवजी की व आस पास में दादा श्री रणसीजी व माता मेणादे की समाधियां हैं।
बाबा की समाधि पर शुक्ल दूज व एकादशी की स्वर्णमुकुट सुशोभित होता है। इस मुख्य समाधि-स्थल से आगे निकलने पर बाबा रामदेवजी के दोनों पुत्रों सादोजी व देवराज जी की समाधियां हैं।
डाली बाई की समाधी
बाबा के मंदिर के ठोक पूर्वी ओर डाली बाई का मंदिर है। कहा जाता है कि डाली बाई बाबा की परम भक्त थी। जब बाबा ने समाधि लेने का निर्णय लिया तो और अपने परिजनों एवं परिचित को बुलाकर समाधि खुदवाई।
जब समाधि खुदकर तैयार हो गई तो डाली बाई ने कहा कि प्रभु पहले मैं समाधि लूंगी और यह जो समाधि खोदी गई है यह मेरी है, आप दूसरी खुदवाइये। तब अन्य लोगों ने कहा कि आपकी समाधि होने का क्या प्रमाण।
थोडी और खोदने का कहा और बताया कि अगर इस समाधि में आठी, डोरी, कांगसी (कंघी व सिर में गूंथने का सूत) निकले तो यह समाधि आप लोग मेरी मानना। तब ऐसा करने पर डाली बाई द्वारा बताये प्रमाण मिल गये। तब उस समाधि में डाली बाई विराजमान हो गई। इनकी समाधी बाबा रामदेवजी की समाधी से कुछ ही दूरी पर स्थित है।
रामसरोवर तालाब
बाबा रामदेवजी ने रामसरोवर तालाब को जनसाधारण के लिए पेयजल मुहैया कराने के उद्देश्य से खुदवाया था, जो अच्छी खासी झील है। इस रामसरोवर में भक्त गण स्नान लाभ लेकर बाबा की समाधि के दर्शन करते है। इस रामसरोवर को वर्तमान में कई सरकारी योजनाओं के द्वारा काफ़ी विकसित किया गया है, जिससे यात्रियों के डूबने की काफी घटनाएं होने लगी थी।
अब प्रशासन ने रामसरोवर में अद्धसैनिक बलोव व जागरिक सुरक्षा विभाग के तैराकों को नियुक्त कर दिया है। इन तैराकों को पैंडल बोट, लाईफ जैकेट, गाड़ियों के ट्यूब व रस्से मुहैया करवाये गये हैं, जिससे आपात स्थिति से निपटने में इनको कोई परेशानी नहीं होती है। महिलाओं के नहाने के लिए अलग व्यवस्था की जाती है।
वहीँ महिला पुलिस भी तैनात रहती है। रामसरोवर की पाल पर फ्लड लाइटों के माध्यम से पर्याप्त प्रकाश व्यवस्था की जाती है, ताकि किसी प्रकार की दुर्घटना होने से रोकी जा सके। पाल पर स्काउट व स्वयं सेवी संस्थाओं के स्वयं सेवक तैनात रहते है, जो यात्री गणों को पाल पर शौच करने से रोकते हैं व उन्हें उचित स्थान का मार्मदर्शन करते है।
रूणीचा कुआँ
रेलवे स्टेशन से लगभग 2 कि.मी. दक्षिण पूर्व में स्थित है। वर्तमान रामदेवरा से पहले रूणीचा गांव ही आबाद था। जहां बाबा रामदेवजी ने अपनी लीलाएं की थी। लेकिन रामसरोवर की पाल पर बाबा के समाधि लेने के बाद उनके वंशजो ने वर्तमान रामदेवरा गांव बसाया था और रूणीचा गांव उजड़ गया।
लेकिन कई भक्त गणों को असलियत आज भी मालूम नहीं है, जो कि रामदेवरा को ही रूणीचा कहते है। वर्तमान में रूणीचा में रूणीचा कुंआ एक धर्मशाला व एक मंदिर है, जिन लोगों को जानकारी है, वे लोग आज भी दर्शन लाभ लेते है।
यह कुंआ स्वयं बाबा रामदेवजी के हाथों द्वारा निर्मित है। पेयजल का अन्य खोत नहीं होने के कारण लोगों ने इसकी सार संभाल रखी, मगर अब नलकूप होने की वजह से इसका जलदोहन नहीं किया जा रहा है।
पांच पीपली
पाँच मुस्लिम साधु बाबा से यहां मिले थे। यह स्थान रामदेवरा से 10 कि.मी. पूर्व की तरफ हैं व यहां एक तालाब, मंदिर व पीरों द्वारा उगाई पांच पीपलियों के अवशेष आज भी मौजूद है। यहीं पर बाबा को पीरों ने रामापीर की उपाधि दी थी।
भैरव राक्षस की गुफा
रामदेवरा कस्बे से करीब 8 कि.मी दक्षिण में स्थित हैं। भैरुव राक्षस इस क्षेत्र में तांडव मचाकर इसी गुफा में विश्राम करता था। यहीं बाबा ने भैरव राक्षस को नियंत्रित करके क्षेत्र की जनता को उसके भय से मुक्त किया था। इस गुफा तक जाने के लिए मेले में जीपे मिलती है व वर्तमान में यह स्थान सड़क मार्ग द्वारा शहर से जुड़ गया है।
बाबा रामदेवजी जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी
लोकदेवता बाबा रामदेवजी को अर्जुन के वंशज माने जाते है।
रामदेवजी को डाली बाई, एक पेड़ की डाली के नीचे मिली थी। जिसके कारण डाली बाई नाम दिया गया।
रामदेवरा मेला पूरे विश्व में साम्प्रदायिक सद्भाव के रूप में विख्यात है।
रामदेवजी एक मात्र ऐसे देवता है, जिनके पैर पूजे जाते है। इनके चरण चिन्ह को पगल्ये कहा जाता है और इन्हें प्रतीक चिन्ह के रूप में पूजा जाता है।
बाबा रामदेवजी के सभी मंदिरों को देवरा के नाम से जाना जाता है और उन पर 5 रंगों की या सफ़ेद रंग की ध्वजा फहराई जाती है, जिसे नेजा के नाम से जाता है।
रामदेवजी का विवाह अमरकोट के सोढा परिवार में हुआ था, अमरकोट वर्तमान पाकिस्तान में स्थित है।
रामदेवरा मेला राजस्थान का कुम्भ कहा जाता है।
भाद्रपद शुक्ला द्वितीया को बाबे री बीज और दूज के नाम जाना जाता है।
रामदेवजी के रात्रि जागरण को जम्मा कहा जाता है।
रामदेवरा मेले का मुख्य आकर्षण तेरहताली नृत्य है, जो कामड़िया लोगों के द्वारा किया जाता है।
रामदेवजी के गुरु का नाम बालीनाथ था।
रामदेवजी ने कामडिया पन्थ की स्थापना की थी।
रामदेवजी के अन्य मंदिर जोधपुर के पश्चिम में मसूरिया पहाड़ी, सूरताखेड़ा (चित्तौड़गढ़) और बिराटिया (अजमेर) में भी स्थित है।
रामदेवजी ऐसे लोकदेवता हुए जो एक प्रसिद्ध कवि भी थे। चौबीस वाणियां नाम की इनकी रचना बहुत प्रसिद्ध है।
रामदेवजी के भजन करने वाले मेघवाल जाति के लोगों को रखिया कहा जाता है।
रामदेवजी को कपड़े का बनाया हुआ घोड़ा इनके भक्त चढ़ाते है।
रामदेवजी को मुसलमान रामसा पीर के नाम से पूजते है और शीश नवाते है तथा हिन्दू कृष्ण अवतार के रूप में पूजते है।
रामदेवरा मेले में श्रद्धालुओं की व्यवस्था के लिए रामदेवरा के सामान्य लोग और प्रशासन 24 घंटे सेवा देते है तथा उनको विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध करवाते है, जिनसे उनको परेशानी नही होती।
बाबा की बीज का व्रत रखने की विधि
व्रत या उपवास धार्मिक आस्था में तो वृद्धि करते ही हैं, स्वास्थ्य में भी लाभकारी सिद्ध होते हैं। इसी बात को मद्देनजर रखते हुए महान संत बाबा रामदेव जी ने अपने अनुयायियों को दो व्रत रखने का आदेश उपदेश दिया।
प्रत्येक माह की शुक्ल पक्ष की दूज व एकादशी बाबा की दृष्टि में उपवास के लिए अति उत्तम थी और बाबा के अनुयायी आज भी इन दो तिथियों को बड़ी श्रद्धा से उपवास रखते हैं। दूज (बीज) के दिन से चन्द्रमा में बढ़ोतरी होने लगती है।
यही कारण है कि दूज को बीज की संज्ञा दी नई है। बीज यानि विकास की अपार संभावनाएं वट वृक्ष के छोटे से बीज में उसकी विशाल शाखाएं, जटाएं, जड़ें, पत्ते व फल समाये रहते हैं। इसी कारण बीज भी आशावादी प्रवृति का घोतक है और दूज को बीज कारूप देते हुए बाबा ने बीज व्रत का विधान रचा ताकि उत्तरोतर बढ़ते चंद्रमा की तरह ही ब्रत करने वाले के जीवन में आशावादी प्रवृति का संचार हो सके।
प्रात:काल नित्कयर्म से निवृत होकर शुद्ध वस्त्र धारण करें। (इससे पूर्व रात्रि व दूज की रात्रि को ब्रह्मचर्य का पालन करें) फिर घर में बाबा के पूजा स्थल पर पगलिये या प्रतिमा जो भी आपने प्रतिष्ठित कर रखी हो, उसका कच्चे दूध व जल से अभिषेक करें और गूगल धूप खेवें।
तत्पश्चात पूरे दिन अपने नित्य कर्म बाबा को हर पल याद करते हुए करें, पूरे दिन अन्न ग्रहण नहीँ करें। चाय, दूध, कॉफी व फलाहार लिया जा सकता है।
वैसे तो बीज ब्रत में व अन्य व्रतों में कोई फर्क नहीं है, मगर बीज का व्रत सूर्वास्त के बाद चन्द्रदर्शन के बाद ही छोड़ा जाता है। यदि बादलों के कारण चन्द्रदर्शन नहीं हो सके तो बाबा की ज्योति का दर्शन करके भी व्रत छोड़ा जा सकता है। व्रत छोड़ने से पहले साफ लोटे में शुद्ध जल भर लेवें और देशी घी की बाबा की ज्योति उपलों के अंगारों की करें।
इस ज्योति में चूरमे का बाबा को भोग लगावें। जल वाले लोटे में ज्योति की थोड़ी भभूति मिलाकर पूरे घर में छिड़क देवें। तत्पश्चात शेष चरणामृत का स्वयं भी आचमन करें व वहां उपस्थित अन्य लोगों को भी चरणामृत दें। चूरमे का प्रसाद लोगों को बांट देवें।
इसके बाद पांच बार बाबा के बीज मंत्र का मन में उच्चारण करके व्रत छोड़ें। इस तरह पूरे मनोयोग से किये गये व्रत से घर-परिवार में सुख-समृद्धि आती है। किसी भी विपति से रक्षा होती है व रोग-शोक से भी बचाव होता है।
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