भारतेंदु हरिश्चन्द्र द्वारा भारत दुर्दशा नाटक की रचना 1880 में की गई थी। यह राष्ट्रीय चेतना का पहला हिन्दी नाटक है। इस नाटक को मानवीकरण करते हुए प्रतीकात्मक ढ़ंग से प्रयोग किया गया है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र अपने इस नाटक को ‘नाट्य-रासक’ मानते है। नाटक वीर, श्रृंगार और करुण रस पर आधारित है। इस नाटक में भारतेंदु ने प्रतीकों के माध्यम से तत्कालीन स्थिति का वर्णन किया है।वह भारतीयों से भारत की दुर्दशा पर रोने और इस दुर्दशा का अंत करने का आह्वान करते है। ब्रिटिश राज और भारत के आपसी कलह को इस दुर्दशा का कारण मानते है।
रामविलास शर्मा
के शब्दों में- “भारत दुर्दशा में
उन्होंने (भारतेंदु जी) पढ़े-लिखे लोगों को भी अकेले कुछ कर सकने में असहाय
दिखलाया है।”
पात्र परिचय- योगी, भारत, भारत-भाग्य, आशा बुद्धिजीवी वर्ग नाटक के पाँचवा अंक (किताब खाना) सभापति बंगाली, महाराष्ट्रीय, एडिटर, कवि, एक देशी महाशय, दूसरा देशी महाशय
विलेन में- भारत-दुर्दैव, निर्लज्जता, सत्यानाश, रोग, फौजदार, आलस्य, अन्धकार और डिसलॉयलटी
नाटक का कथानक--
इस नाटक में भारत मुख्य पात्र है। इस प्रतीकात्मक नाटक में भारतेंदु ने भारत की
दुर्दशा के सभी पक्षों को काल्पनिक प्रतीकों के माध्यम से स्पष्ट किया है। वह कहता
है- “दीन बना मैं इधर-उधर
डोलता फिरता हूँ, दीवारों से अपना
माथा टकराता हुआ। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं। मेरी विपदा भी बढती जाती है।…
हे नाथ मेरी रक्षा करो, मुझे उबारो।” कोऊ नहिं पकरत मेरो हाथ बीस कोटि सूत होत फिरत मैं हा हा होए अनाथ। अंत में वह
मुर्छित हो जाता है।
प्रथम अंक- स्थान
बीथी एक योगी मंगलाचरण गाते हुए प्रवेश करता है। “रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई। हा हा! भारत दुर्दशा न देखी
जाई।” वह अपने गीत में भारत के
प्राचीन वैभव का गुणगान करते हुए वर्तमान दशा पर दुःख प्रकट करता है और भारत के
दुर्दशा के कारणों पर प्रकाश डालता है।
दूसरा दृश्य-
दूसरे अंक में दीन भारत बिलख-बिलख कर अपनी दुर्दशा का वर्णन करके मुर्छित हो जाता है। तब उसी अवस्था में निर्लज्जता और आशा उसे उठाकर ले जाती हैं।
तीसरा दृश्य-
तीसरे अंक में भारत दुर्दैव भारत की दुर्दशा और अपनी सफलता पर काफी प्रसन्न होता है।
चौथा दृश्य- चौथे अंक में पुनः भारत दुर्दैव रोग, मदिरा, आलस्य, अहंकार आदि की सहायता से भारत की रही सही दशा को भी ख़त्म करने की योजना बनाता है।
पाँचवा अंक-
पाँचवें अंक में सात सभ्यों की कमेटी भारत दुर्दैव से भारत की रक्षा के तरीकों पर
विचार करती है। उसी समय ‘डिसलॉयलटी’
प्रवेश कर सबको गिरफ्तार कर ले जाती है।
छठा अंक- छठे अंक
में भारत भाग्य मुर्छित भारत को जगाने का प्रयास करता है। वह उसे प्राचीन गौरव की याद दिलाता है। अंग्रेजी राज्य में उन्नति की संभावनाओं पर प्रकाश डालता है। जब
उधर से भी उसकी आशा नष्ट हो जाती है, तब वह अंत में निराश होकर सीने में कटार मार लेता है।
नाटक का प्रमुख उद्देश्य है, तत्कालीन भारत की दुर्दशा को दिखाना एवं दुर्दशा के कारणों को कम कर दुर्दशा करने वालों का यथार्थ चित्र उपस्थित करना। व्यंग्य इस नाटक का प्रधान गुण है। समाज व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, सरकारी व्यवस्था, देशवासियों तथा समाज सुधारकों सभी पर तीखे व्यंग्य दिखाई देते हैं इसमें भारतेंदु जी की राज भक्ति तथा भारत का धन विदेश जाने की चिंता साफ-साफ नजर आती है-“अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी। पैधन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी”
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