संकल्पनाएँ सिद्धांत निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रत्येक संकल्पना एक घटना विशेष को व्यक्त करती है। ऐसा करते समय घटना विशेष को शेष जगत से पृथक् रखा जाता है।
समाजशास्त्र में प्रयुक्त अनेक अवधारणाएँ या संकल्पनाएँ इसी प्रकार की है। जैसे संस्कृति, व्यक्तित्व. अंत क्रिया, प्रस्थिति, भूमिका आदि।
संकल्पनाएँ परिभाषाओं द्वारा निर्मित होती है। परिभाषा शब्दों की एक व्यवस्था है। यह तर्कों की प्रतीक या गणितशास्त्रीय प्रतीक है।
यह अनुसंधानकर्ताओं को एक सामाजिक प्रघटना के संबंध में अवधारणा के माध्यम से जानकारी प्रदान करती है।
उदाहरण के रूप में प्रतिस्पर्धा की संकल्पना उत्ती समय कोई अर्थ रखती है, जब इसे परिभाषित किया जाए। प्रतिस्पर्धा की परिभाषा इस प्रकार हो सकती है, 'प्रतिस्पर्धा, दो या दो ते अधिक व्यक्तियों या समूहों का समान उद्देश्य, जो इतना सीमित है कि सब उसके भागीदार नहीं बन सकते, को पाने की होड़ है।
यह परिभाषा अनुसंधानकर्ताओं को एक घटना विशेष जिसे कि अवधारणा के माध्यम से व्यक्त किया गया है, को बतलाती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अनुसंधानकर्ता को किसका अध्ययन करना है।
वास्तव में जिन संकल्पनाओं का सिद्धांत निर्माण की दृष्टि से प्रयोग किया जाता है, उनमें
एक गुण यह होता है कि उनका उपयोग करने वालों में वे समान अर्थ का संचार करें। चूंकि समाजशास्त्र में संकल्पनाओं के विकास में पहले प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाता है, अतः उन्हें स्पष्टतः परिभाषित किया जाना आवश्यक है।
इसके अभाव में संकल्पनात्मक अस्पष्टता पनपेगी जो इसके सिद्धांत निर्माण में बाधक है।
मनुष्य होने के नाते हम अपने कार्यों को स्पष्ट करने के लिए भाषा का प्रयोग करते हैं। वास्तव में भाषा शब्दों या शब्दों का वह समूह होता है, जिसमें मुनष्य आपस में अंत क्रिया करते
है। अंतः क्रिया के दौरान जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है, मनुष्य को उसकी समझ होती है।
इस प्रकार मनुष्य धीरे-धीरे ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लगता है जिनका अर्थ समुदाय के सभी लोगों द्वारा एक ही अर्थ में लिया जा समझा जाने लगता है। भाषा वास्तव में एक सामाजिक उत्पाद है।
इसमें शब्दों को एक अर्थ दे दिया जाता है और यह अर्थ सभी को सामान्यतः स्वीकृत होता है। इस तरह सामाजिक अंतः क्रिया सुविधाजनक हो जाती है।
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